मेवाड़ के महाराणा विक्रमादित्य व राजमाता कर्णावती (भाग – 3)

चित्तौड़गढ़ का दूसरा शाका :- गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़गढ़ पर हमला किया, तो राजमाता कर्णावती ने अपने पुत्रों महाराणा विक्रमादित्य व कुंवर उदयसिंह को इस युद्ध से बचाने के लिए बूंदी भेज दिया।

बूंदी के राव सुल्तान हाड़ा इस समय बालक थे, इसलिए बूंदी की तरफ से नरबद हाड़ा के पुत्र अर्जुन हाडा 5 हज़ार की फौज समेत चित्तौड़ पहुंचे।

देवलिया (वर्तमान प्रतापगढ़) के रावत बाघसिंह सिसोदिया को महाराणा का प्रतिनिधि चुना गया और मेवाड़ की तरफ से इस युद्ध का नेतृत्व इन्होंने ही किया।

रावत बाघसिंह ने इससे पहले बयाना के युद्ध में महाराणा सांगा का साथ देते हुए बड़ी बहादुरी दिखाई थी। मेवाड़ के महाराणा ‘दीवान’ कहलाते थे, इस खातिर रावत बाघसिंह व उनके वंशज ‘देवलिया दीवान’ कहलाए।

बहादुरशाह व मेवाड़ की सेनाओं के बीच हुए युद्ध का दृश्य

रावत बाघसिंह ने सभी सर्दारों से कहा कि “आप सभी ने मुझे अव्वल दर्जे का अधिकार दिया है। मुझको आगे रहकर लड़ना चाहिये, इस खातिर मैं भैरवपोल दरवाजे पर तैनात रहूंगा” (इस दरवाजे का नाम इस लड़ाई के वक्त भैरवपोल नहीं होकर कुछ और था)

भैरव पोल के भीतर की तरफ हनुमान पोल पर सौलंकी भैरवदास को तैनात किया गया। राजराणा सज्जा झाला व उनके भतीजे सिंहा झाला को गणेश पोल पर तैनात किया।

इसी तरह डोडिया भाण, रावत नरबद सारंगदेवोत आदि बहुत से मुख्य राजपूत सर्दारों को दुर्ग में अलग-अलग जगह तैनात किया। बहादुरशाह की फ़ौज ने चित्तौड़गढ़ का किला घेर लिया।

हालांकि यह घेराबंदी ज्यादा समय तक चलने वाली नहीं थी, क्योंकि किले में रसद का सामान इतना कम था कि 2 माह भी मुश्किल से चले।

महारानी कर्णावती ने लगभग 1200 क्षत्राणियों के साथ सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर किया, जो चित्तौड़ व मेवाड़ के इतिहास का दूसरा जौहर कहलाया।

महारानी कर्णावती के जौहर का दृश्य

बहादुरशाह ने तोपों से पाडनपोल, सूरजपोल व लाखोटाबारी पर हमला किया, जिससे किले वालों ने दरवाजे खोल दिए और तलवार-भालों समेत शत्रुओं पर टूट पड़े।

चित्तौड़ के दूसरे शाके में वीरगति को प्राप्त होने वाले मेवाड़ी योद्धा :- मेवाड़ी फौज के नेतृत्वकर्ता रावत बाघसिंह सिसोदिया पाडन पोल दरवाजे के बाहर बादशाही फौज द्वारा किए गए तोप के हमले से वीरगति को प्राप्त हुए।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में पाडनपोल दरवाज़े पर स्थित रावत बाघसिंह का स्मारक

पाडन पोल दरवाजे के बाहर रावत बाघसिंह का स्मारक बना हुआ है। रावत बाघसिंह महाराणा मोकल के पौत्र थे। इसी दरवाज़े पर कानोड़ के रावत नरबद सारंगदेवोत भी वीरगति को प्राप्त हुए।

देसूरी के सौलंकी भैरवदास भैरवपोल दरवाजे के बाहर वीरगति को प्राप्त हुए। इनके नाम से ही इस दरवाज़े का नाम भैरवपोल पड़ा। देलवाड़ा के राजराणा सज्जा झाला व उनके भतीजे सिंहा झाला हनुमान पोल दरवाजे के बाहर वीरगति को प्राप्त हुए।

बूंदी के राव सुल्तान की उम्र 9 वर्ष ही थी, जिस वजह से उनकी जगह अर्जुन हाड़ा ने युद्ध में भाग लिया। बादशाही फौज ने बीकाखोह की तरफ सुरंग खोदी और उसमें बारुद भरकर विस्फोट किया, जिससे 45 हाथ दीवार उड़ गई और अर्जुन हाड़ा अपने साथी राजपूतों समेत वीरगति को प्राप्त हुए।

बड़ी सादड़ी के तीसरे राजराणा असा झाला, सोनगरा माला बालावत, रावत देवीदास सूजावत, रावत बाघ सूरचंदोत, लावा (सरदारगढ़) के डोडिया भाण, आमेट व देवगढ़ वालों के पूर्वज रावत नंगा चुण्डावत ने भी बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति पाई।

डूलावतों का गुड़ा के ठाकुर परबतसिंह डूलावत के बेटे खेतसिंह डूलावत, बेदला के दूसरे राव साहब संग्रामसिंह चौहान, रावत पचायण, राठौड़ उदैदास मोजावत, सलूम्बर के चौथे रावत साहब दूदा चुण्डावत भी चित्तौड़ के दूसरे शाके में लड़ते हुए काम आए।

रावत कर्मा चुण्डावत ने भी वीरगति पाई, ये सलूम्बर रावत दूदा के भाई थे। इनके वंशज साकरिया खेड़ी, भोपतखेड़ी, शोभजी का खेड़ा, चुण्डावतों की खेड़ी व देवाली में हैं। सलूम्बर रावत रतनसिंह के पुत्र व रावत दूदा के भाई कुंवर सत्ता चुण्डावत भी वीरगति को प्राप्त हुए।

ग्रंथ वीरविनोद के अनुसार 8 मार्च, 1535 ई. को चित्तौड़ के दूसरे शाके की लड़ाई समाप्त हुई। मुहणौत नैणसी के अनुसार इस लड़ाई में 4 हज़ार राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए, 7 हज़ार राजपूतानियों ने जौहर किया और 3 हज़ार बच्चों को जलाशयों में डाल दिया गया, ताकि उन्हें मुसलमान न बनाया जावे।

बहादुरशाह ने अपने सेनापति रूमी खां से वादा किया था कि चित्तौड़ के किले को जीतने के बाद यह किला उसे सौंप दिया जाएगा, पर बहादुरशाह अपने वादे से मुकर गया।

इससे नाराज होकर रूमी खां ने हुमायूं को पत्र लिखकर कहा कि “चित्तौड़ के राजपूतों ने बहादुरशाह की फ़ौज को काफ़ी नुकसान पहुंचाया है, अगर आप इस वक्त बहादुरशाह पर हमला करें, तो आपकी फ़तह हो सकती है।”

बहादुरशाह को हुमायूं की चढ़ाई की ख़बर मिली, तो वह चित्तौड़गढ़ में कुछ फ़ौज तैनात करके बाकी फ़ौज समेत मंदसौर तक गया, जहां हुमायूं भी आ पहुंचा। बहादुरशाह असफल होकर 25 मार्च, 1535 ई. को भागकर मांडू जा पहुंचा।

हुमायूं ने उसका पीछा किया, तो बहादुरशाह मांडू से चाम्पानेर व खम्भात होता हुआ दीव के टापू पर पुर्तगालियों के पास चला गया, जहां से लौटते वक्त समंदर में मारा गया।

बहादुरशाह की पराजय के बारे में मेवाड़ के सामन्तों ने सुना, तो उन्होंने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण करना तय किया। इस समय चित्तौड़गढ़ में बहादुरशाह के सैनिकों की संख्या भी कम थी।

रावत साईंदास चुंडावत, भाकर सिंह डूलावत आदि सरदारों ने 5-7 हज़ार राजपूतों सहित चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण करके बहादुरशाह के सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया और गढ़ पर अधिकार कर लिया।

महाराणा विक्रमादित्य द्वारा जारी किए गए 2 तांबे के सिक्के व एक ताम्रपत्र मिला है। यह ताम्रपत्र 1532 ई. (वैशाख सुदी 11 विक्रम संवत 1589) को जारी किया गया था। इस ताम्रपत्र के अनुसार महाराणा विक्रमादित्य ने पुरोहित जानाशंकर को जाल्या नामक गाँव दान में दिया।

महाराणा विक्रमादित्य व कुँवर उदयसिंह के चित्तौड़गढ़ लौटने का दृश्य

मेवाड़ के सामन्तों ने रणथंभौर में समाचार पहुंचा दिए कि चित्तौड़गढ़ पर विजय प्राप्त कर ली गई है, तब वहां से महाराणा विक्रमादित्य व कुँवर उदयसिंह चित्तौड़गढ़ लौट आए।

लेकिन महाराणा विक्रमादित्य के भाग्य में ज्यादा राज करना नहीं लिखा था। इन महाराणा की कमज़ोर स्थिति देखकर महाराणा सांगा के बड़े भाई उड़न पृथ्वीराज के दासीपुत्र बनवीर ने अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया और 1536 ई. में 19 वर्षीय महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर दी।

बनवीर द्वारा महाराणा विक्रमादित्य की हत्या का दृश्य

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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