मेवाड़ के महाराणा विक्रमादित्य व राजमाता कर्णावती (भाग – 2)

1533 ई. – गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह की चित्तौड़गढ़ पर पहली चढ़ाई :- महाराणा विक्रमादित्य ने 7 हज़ार पहलवानों पर भरोसा करके उनको अपने यहां रख लिया और सामन्तों पर अविश्वास दिखाया, जिससे सामन्त अपनी-अपनी सेना सहित जागीरों में चले गए।

गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने गुजरात, मालवा, चंदेरी, रायसेन आदि की सम्मिलित सेना के साथ चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई कर दी। चित्तौड़गढ़ दुर्ग में इस वक्त मात्र 7 हज़ार पहलवान थे और कुछ नौकर थे, जिनका काम युद्धों में लड़ने का नहीं था।

इसके विपरीत तारीखे बहादुरशाही में लिखा है कि “इस वक्त सुल्तान के पास इतनी फ़ौज थी कि वो चित्तौड़गढ़ जैसे चार किलों को घेर सकता था।” बहादुरशाह ने चित्तौड़गढ़ पहुंचने के अगले ही दिन किले पर हमला करने का आदेश दिया।

अलफ़ खां को 30 हज़ार घुड़सवारों के साथ लाखोटा बारी दरवाज़े पर तैनात रखा गया। तातार खां, राजा मेदिनीराय व अन्य अफगान सरदारों को उनकी फ़ौजों समेत हनुमानपोल पर तैनात रखा गया।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

मल्लू खां और सिकन्दर खां को मालवा की फ़ौज सहित सफ़ेद बुर्ज पर तैनात रखा गया। भूपतराय, जो कि बहादुरशाह की रायसेन की लड़ाई के बाद उसके अधीन हो गए थे, वे भी चित्तौड़गढ़ की चढ़ाई में बहादुरशाह के साथ थे।

भूपतराय व अलप खां को एक अन्य मोर्चे पर उनकी सेनाओं सहित तैनात किया। बहादुरशाह ने इन सभी सेनाओं को एक साथ हमले का हुक्म दिया।

बहादुरशाह के एक सेनापति रूमी खां ने तोपखाने से किले की दीवारों पर गोले दागे, जिसके बाद राजमाता कर्णावती ने सन्धि प्रस्ताव भिजवाया। सन्धि के तहत मालवा के वे हिस्से, जिन पर महाराणा सांगा ने अधिकार किया था, बहादुरशाह को लौटा दिए गए।

मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी का मुकुट व सोने की कमरपेटी, जो कि महाराणा सांगा ने उससे छीनकर अपने बेटे विक्रमादित्य को दी थी, वह मुकुट व कमरपेटी भी बहादुरशाह को सौंप दी गई।

इसके अलावा 10 हाथी, 100 घोड़े व नकद रुपया भी बहादुरशाह को दिया गया। सन्धि के बाद 24 मार्च, 1533 ई. को बहादुरशाह ने घेराबंदी उठा दी और फ़ौज समेत लौट गया।

गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह की चित्तौड़गढ़ पर दूसरी चढ़ाई :- बहादुरशाह के पहले आक्रमण के बावजूद भी महाराणा विक्रमादित्य के चाल-चलन में कोई सुधार नहीं हुआ। उनके खराब रवैये के कारण कुछ और सरदारों ने भी मेवाड़ का साथ छोड़ दिया।

इन्हीं दिनों मुहम्मदजमां ने हुमायूं से बगावत करके बहादुरशाह की शरण ली। हुमायूं ने बहादुरशाह को खत लिखकर बागी की मांग की, लेकिन बहादुरशाह ने यह मांग ठुकरा दी।

इसी बहस के चलते बहादुरशाह ने तातार खां के नेतृत्व में 40 हज़ार की फ़ौज हुमायूं के विरुद्ध भेजी, पर तातार खां बुरी तरह पराजित हुआ।

हुमायूं जैसे शत्रु का सामना करने के लिए बहादुरशाह ने अपनी ताकत बढ़ाने का फैसला किया और इसके लिए उसने पुराने करार तोड़कर पुनः चित्तौड़गढ़ पर हमला करना तय किया।

हालांकि चित्तौड़गढ़ को नष्ट करना उसका ख्वाब था, क्योंकि महाराणा सांगा ने जब अहमदनगर पर हमला करके मुसलमानों का खात्मा किया था, तब से ही बहादुरशाह बदला लेना चाहता था।

बहादुरशाह फ़ौज समेत चित्तौड़गढ़ की तरफ रवाना हुआ। उसने चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी का काम रूमी खां को सौंपकर कहा कि “अगर ये किला फ़तह हुआ, तो तुम्हें वहां का हाकिम बना देंगे।”

राजमाता कर्णावती द्वारा राखी भिजवाना

राजमाता कर्णावती ने मुगल बादशाह हुमायूं को भाई समझकर राखी भेजी व मदद के लिए चित्तौड़ बुलाया। हुमायूं मुगल फौज समेत चित्तौड़ के लिए निकला।

बहुत से लोग ये समझते हैं कि हुमायूं ने वाकई मेवाड़ की मदद कर राखी की लाज रखी थी, पर सही हाल कुछ इस तरह है :-

हुमायूं ग्वालियर तक पहुंचा, जहां उसे बहादुरशाह का खत मिला, जिसमें लिखा था कि “मैं जिहाद पर हूँ। तुम हिंदुओं की मदद करोगे, तो खुदा को क्या जवाब दोगे ?”

खत पढ़ने के बाद हुमायूं 2 माह तक ग्वालियर में ही रहा और चित्तौड़ युद्ध के नतीजे का इंतज़ार करता रहा। राजमाता कर्णावती ने मेवाड़ के नाराज़ सामन्तों के पास पत्र लिखे। पत्र में लिखा कि

“अब तक तो चित्तौड़ सिसोदियों के कब्जे में रहा, परन्तु इस वक्त किला जाने का दिन आया सा मालूम होता है। मैं किला तुम लोगों को सौंपती हूँ, चाहे रखो चाहे जाने दो। विचार करना चाहिए कि कदाचित् किसी पीढ़ी में मालिक बुरा ही हुआ, तो भी जो राज्य परम्परा से चला आता है, उसके हाथ से निकल जाने में तुम लोगों की बड़ी बदनामी होगी”

राजमाता कर्णावती का पत्र पढ़ते ही मेवाड़ के सामन्तों ने अपनी नाराज़गी को ताक पर रखकर मातृभूमि प्रेम को महत्व दिया और अपनी-अपनी जागीरों से सेना सहित चित्तौड़गढ़ की तरफ रवाना हुए।

महारानी कर्णावती द्वारा युद्ध का फैसला करना

कुछ ही समय में एक-एक करके सभी सामन्त सेना सहित सर्वस्व बलिदान की भावना से चित्तौड़गढ़ पहुंच गए। राजमाता कर्णावती के सामने हाजिर होकर सब सामन्तों ने प्रण लिया कि “हमारी लाशों से गुज़रे बगैर बहादुरशाह चित्तौड़गढ़ का किला नहीं ले पाएगा।”

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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