महाराणा विक्रमादित्य का परिचय :- महाराणा विक्रमादित्य का जन्म 1517 ई. में हुआ। ये महाराणा सांगा व महारानी कर्णावती के पुत्र थे।
राज्याभिषेक :- 1531 ई. में महाराणा रतनसिंह का देहांत हो जाने के कारण उनके छोटे भाई विक्रमादित्य व उदयसिंह रणथंभौर से चित्तौड़गढ़ आए। चित्तौड़गढ़ में 14 वर्षीय महाराणा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ।
राजमाता कर्णावती :- ये महाराणा सांगा की पत्नी व बूंदी के राव नरबद हाड़ा की पुत्री थीं। इन महारानी के 2 पुत्र हुए :- १) महाराणा विक्रमादित्य २) कुँवर उदयसिंह।
महाराणा की अयोग्यता :- महाराणा विक्रमादित्य 14 वर्ष के थे। हालांकि उस ज़माने के 14 वर्षीय राजपूत भी बड़े काबिल हुआ करते थे, परन्तु महाराणा विक्रमादित्य बड़े ही अयोग्य शासक थे। कई हरकतें तो ये बच्चों जैसी करते थे।
गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह का बढ़ता वर्चस्व व महाराणा विक्रमादित्य का असफल नेतृत्व :- इन दिनों गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह की शक्ति बहुत बढ़ गई थी, क्योंकि उसने सुल्तान महमूद खिलजी को बन्दी बनाकर मालवा को अपने अधीन कर लिया था।
बहादुरशाह ने रायसेन के किले पर चढ़ाई की। रायसेन पर इस समय सलहदी के भाई लक्ष्मणसेन का अधिकार था। सलहदी के पुत्र भूपति राय मेवाड़ के महाराणा विक्रमादित्य से फ़ौजी मदद मांगने के लिए चित्तौड़गढ़ आए।
इन्हीं दिनों बहादुरशाह ने मुहम्मद खां आसीरी और इमादुल्मुल्क को मेवाड़ पर चढ़ाई करने भेजा। इस सेना का सामना करने के लिए महाराणा विक्रमादित्य 40 हज़ार घुड़सवार व बहुत से पैदल सैनिकों के साथ चित्तौड़गढ़ के किले से रवाना हुए।
दोनों सेनाएं जगह-जगह पड़ाव डालते हुए आगे बढ़ रही थीं। महाराणा की फ़ौजी संख्या के बारे में जब बहादुरशाह को ख़बर मिली, तो उसने विचार किया कि उसके द्वारा भेजी गई फ़ौज के हौंसले पस्त हो सकते हैं।
ये विचार करके बहादुरशाह ने पहले तो रायसेन के किले की घेराबंदी हेतु अख़्तियार खां को फ़ौज समेत तैनात किया और स्वयं एक सेना सहित रायसेन से रवाना हुआ और 24 घंटे में 70 कोस का सफ़र तय करके उस सेना के साथ मिल गया, जो उसने मेवाड़ के विरुद्ध भेजी थी।
इस तरह बहादुरशाह की फ़ौजी संख्या बहुत ज्यादा हो गई थी। इस फौजी संख्या के बारे में जानकर महाराणा विक्रमादित्य के हौंसले पस्त हो गए और वे पुनः चित्तौड़गढ़ की तरफ लौट आए।
महाराणा विक्रमादित्य द्वारा इस तरह पीछे लौट जाने से बहादुरशाह के हौंसले काफी बुलन्द हो गए और अब उसे लगने लगा कि चित्तौड़गढ़ पर फ़तह हासिल करनी चाहिए।
सामन्तों को नाराज़ करना :- महाराणा विक्रमादित्य को अपने सरदारों पर बिल्कुल भरोसा नहीं था। उन्होंने बहादुर राजपूत सामन्तों की बजाय 7 हज़ार पहलवानों को रख लिया, जिनके बल पर महाराणा को ज्यादा भरोसा था।
महाराणा कहा करते थे कि अगर कोई हमला हुआ भी, तो फिक्र करने की जरूरत नहीं, मेरे पास 7 हज़ार पहलवान हैं। राजमाता कर्णावती ने विक्रमादित्य को काफी समझाया, पर उन पर कोई असर न हुआ।
महाराणा की हरकतों से तंग आकर कई खास सर्दारों ने खुद ना आकर अपने भाई-बेटों को दरबार में भेजना शुरु कर दिया। सामन्त अपनी-अपनी सेनाएं लेकर अपनी जागीरों में चले गए।
बहादुरशाह की चित्तौड़गढ़ पर पहली चढ़ाई :- बहादुरशाह ने रायसेन के किले को जीत लिया और फिर बड़ी भारी तैयारी करके मेवाड़ पर चढ़ाई करना तय किया। बहादुरशाह ने 1532 ई. में मुहम्मद खां आसीरी को फ़ौज सहित चित्तौड़गढ़ पर हमला करने के लिए रवाना किया।
साथ ही उसने मालवा में खुदाबन्द खां को पत्र लिखकर आदेश दिया कि वह मालवा की फ़ौज समेत मुहम्मद खां आसीरी के साथ भेजी गई फ़ौज में शामिल हो जावे।
16 नवम्बर, 1532 ई. को बहादुरशाह स्वयं भारी भरकम फ़ौज सहित मुहम्मदाबाद से रवाना हुआ और 3 दिन का सफ़र तय करके मांडू पहुँचा।
जब मुहम्मद खां आसीरी व खुदाबन्द खां की फ़ौजें मंदसौर में पहुँची, तो महाराणा विक्रमादित्य ने घबराकर सन्धि करने के लिए अपने वकील मंदसौर भेजे।
सन्धि में महाराणा विक्रमादित्य ने प्रस्ताव रखा कि मालवा का जो हिस्सा महाराणा सांगा ने जीतकर मेवाड़ में मिलाया, वह हिस्सा बहादुरशाह को सौंप दिया जाएगा और कर (टैक्स) भी दिया जाएगा।
बहादुरशाह के फ़ौजी अफसरों ने जब ये बात बहादुरशाह तक पहुंचाई, तो उसने सन्धि के लिए मना कर दिया और तातार खां को भी फ़ौज समेत चित्तौड़गढ़ के लिए रवाना किया।
डॉ. ओझा ने लिखा है कि इन दिनों महाराणा विक्रमादित्य की आदतों से तंग आकर नरसिंहदेव (महाराणा सांगा के भतीजे) व चंदेरी के राजा मेदिनीराय ने मेवाड़ का साथ छोड़ दिया व बहादुरशाह के साथ मिल गए और वहां जाकर महाराणा की सेना का भेद बताते रहे।
31 जनवरी, 1533 ई. को तातार खां चित्तौड़गढ़ पहुंच गया और उसने किले के नीचे के 2 दरवाज़ों पर कब्ज़ा कर लिया। इस तरह बहादुरशाह की फ़ौज ने भैरवपोल दरवाज़े तक कब्ज़ा कर लिया।
3 दिन बाद मुहम्मद खां आसीरी व खुदाबन्द खां भी फ़ौज व तोपखाने समेत चित्तौड़गढ़ पहुंच गए। इसके बाद बहादुरशाह भी मांडू से रवाना होकर चित्तौड़गढ़ पहुंच गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)