मेवाड़ का प्राचीन इतिहास व संस्कृति (भाग – 4)

मेवाड़ के शासकों से संबंधित दस्तूरी रस्में व रिवाज :- राजतिलक :- मेवाड़ के शासक को ओगणा के मुखिया द्वारा राजगद्दी पर बिठाया जाता था और गिर्वा के ऊंदरी गांव का भील मुखिया अभिषेक योग्य सामग्री, अक्षत, कंकावटी-कुमकुम का चोपड़ा लेकर खड़ा रहता था।

मादड़ी के ब्राह्मणों को बुलाने का रिवाज :- जब भी नए महाराणा गद्दी पर बैठते थे, तो वे मादड़ी गांव के सभी ब्राह्मणों को बुलवाते थे। फिर उनमें से किसी एक को अपने यहां नौकरी करने हेतु चुन लेते थे।

हरी की सवारी :- मेवाड़ के महाराणा राज्याभिषेक के बाद स्वर्गीय महाराणा के शोक का निवारण करने के उद्देश्य से सब्जी (हरियाली) पूजने के लिए किसी स्थान पर जाते थे, इसे ‘हरी की सवारी’ कहते थे।

टीका दौड़ :- टीका दौड़ मेवाड़ में एक रस्म होती थी, जिसमें मेवाड़ के महाराणा ऐसे पड़ोसी राज्यों या क्षेत्रों को लूटते थे, जो उनके शत्रु होते थे। कोई शत्रु ना होने की स्थिति में मेवाड़ के ही भीलों को नाटकीय अंदाज़ में लूटकर रस्म पूरी की जाती थी।

टीका दौड़ की रस्म करते हुए महाराणा राजसिंह

आसंका लेना :- मेवाड़ के शासक जब भी मेवाड़ से बाहर जाते थे, तब एकलिंग जी की आज्ञा लेते थे, इसे ‘आसंका लेना’ कहा जाता था।

अहेड़ा का उत्सव :- मेवाड़ के महाराणा अपने सरदारों सहित होली के दिन शिकार के लिए जाते थे, इसे ‘अहेड़ा’ कहा जाता था।

दाह संस्कार :- जब मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़गढ़ थी, तब मेवाड़ के शासकों का दाह संस्कार दुर्ग में स्थित महासतिया नामक स्थान पर किया जाता था। जब उदयपुर को राजधानी बनाई, तब मेवाड़ के शासकों का दाह संस्कार आहाड़ के महासतिया नामक स्थान पर किया गया।

मेवाड़ में रिवाज था कि गद्दी एक दिन के लिए भी खाली न रखी जावे, इसलिए उत्तराधिकारी गद्दी पर बैठते थे। वे अपने पिता के दाह संस्कार में भाग नहीं लेते थे।

अपवादस्वरूप मेवाड़ के महाराणा प्रताप के देहांत के समय उनका दाह संस्कार उत्तराधिकारी कुँवर अमरसिंह ने किया था। मेवाड़ महाराणाओं की छतरी के बीच में शिवलिंग बनाया जाता था।

आहाड़ स्थित महाराणाओं की छतरियां

महाराणा के देहांत पर कारखानों की चाबियाँ सौंपने का रिवाज :- मेवाड़ में यह रिवाज था कि जब भी महाराणा का देहांत होता, तो सारे शहर के दरवाज़े बन्द कर दिए जाते और राज्य से संबंधित कारखानों पर ताले लगा दिए जाते।

दाहक्रिया के बाद जब उत्तराधिकारी गद्दी पर बैठते, तो कारखाने चलाने वाले लोग चाबियां लेकर नए महाराणा को नज़र करते। फिर महाराणा तय करते कि कौनसा कारखाना किसको सौंपना है। हालांकि अक्सर महाराणा यही कहते थे कि जो कारखाने पहले जिनके सुपुर्द थे, वे ही इसको आगे भी चलाते रहे।

मातमी दरबार का दस्तूर :- जब कोई रिश्तेदार या क्षत्रिय राजा गुज़र जाए, जो किसी तरह संबंधी हो, तो महाराणा को ये ख़बर सुनाने से पहले उनसे कान के मोती खोलने की अर्ज़ की जाती, उसके बाद सभी ज़ेवर उतारे जाने के बाद देहांत की ख़बर सुनाई जाती।

फिर महाराणा स्नान के बाद सफ़ेद वस्त्र पहनकर दरबार में बिराजते, जहां उन्हें कान के मोती, ज़ेवर वगैरह फिर से पहनाए जाते, फिर आख़िर में पान के बीड़े सभी में वितरित होते और दरबार बर्ख़ास्त होता।

दाढ़ी न रखना :- मेवाड़ के शासक दाढ़ी नहीं रखते थे। मेवाड़ में दाढ़ी रखने की शुरुआत महाराणा अमरसिंह द्वितीय से हुई।

मेवाड़ में शराब का प्रचलन :- मेवाड़ के शासक शराब छूना भी धर्म के ख़िलाफ़ समझते थे। मेवाड़ में शराब का प्रचलन महाराणा अमरसिंह द्वितीय के समय (1700 ई. के आसपास) शुरू हुआ। महाराणा स्वरूपसिंह ने शराब पर फिर से प्रतिबंध लगाया, लेकिन उनके बाद फिर इसका प्रचलन चालू हो गया।

ऋषभदेव मंदिर में पिछले द्वार से प्रवेश :- मेवाड़ के महाराणा उदयपुर के धूलेव गांव में स्थित ऋषभदेव मंदिर में कभी भी द्वितीय द्वार से प्रवेश नहीं करते थे।

वे सदैव बाहरी परिक्रमा के पिछले भाग में बने छोटे से द्वार से प्रवेश करते थे, क्योंकि द्वितीय द्वार के ऊपर की छत में 5 शरीर व एक सिर वाली मूर्ति उत्कीर्ण है, जिसको लोग ‘छत्रभंग’ कहते थे।

पाती पेरवन :- युद्ध की स्थिति में जब मेवाड़ के शासक अपने सभी सरदारों को युद्ध में शामिल होने का निमंत्रण भेजते थे, तो उसे पाती पेरवन कहा जाता था।

मेवाड़ के शासक

प्रधान पद :- मेवाड़ में शासक व उत्तराधिकारी के बाद सबसे बड़ा पद प्रधान का होता था। प्रधान पद पर रहने वाले को सोने की छड़ी रखने का अधिकार प्राप्त था, जो अन्य किसी को प्राप्त नहीं होता था।

डूंगरपुर के शासक के मेवाड़ आने पर दस्तूरी रस्म :- जब भी डूंगरपुर के शासक महाराणा के यहां आते थे, तो उन्हें महाराणा को नज़र दिखलानी पड़ती थी। उन्हें अन्य सामन्तों की तरह महाराणा की गद्दी से नीचे ही बैठना पड़ता था, लेकिन अन्य कई मामलों में उनकी इज़्ज़त सामन्तों से बढ़कर की जाती थी।

पालकी की सवारी :- मेवाड़ के महाराणा के सामने कोई भी पालकी में सवार होकर नहीं जा सकता था। यह बेअदबी मानी जाती थी। भूलवश यदि कोई महाराणा के सामने पालकी से गुजरता, तो मालूम होते ही फौरन पालकी से उतर जाता था।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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