सिंझारा :- चैत्र शुक्ल 2 को गणगौर का सिंझारा मानकर मेवाड़ की स्त्रियां अच्छे वस्त्राभूषण पहनकर बाग बाड़ियों में जाती थीं। राज्य में भी उत्सव होता था, जो कि महाराणा की मर्जी के अनुसार होता था। सिंझारा को मेवाड़ में ‘दातणहेला’ कहते हैं।
गणगौर का उत्सव :- चैत्र शुक्ल 3 को गणगौर का उत्सव मनाया जाता। इस दिन तीसरे पहर का तीसरा नक्कारा बजने के बाद महाराणा पालकी में सवार होकर बाहर निकलते थे। मेवाड़ में जब तोपें आ गई थीं, तब से इस दिन एकलिंगगढ़ पर 19 या 21 तोपों की सलामी दी जाती थी।
उदयपुर की बड़ी पोल से त्रिपोलिया घाट तक दोनों तरफ लकड़ी के खम्भे गाढ़े जाकर उनमें रस्सियां बांध दी जाती थीं। खंभों के पास जगह-जगह सैनिक तैनात रहते थे। उसके भीतर राजकीय लोगों के अतिरिक्त कोई नहीं आ सकता था।
जब महाराणा की सवारी महलों से रवाना होती, तो निशान का हाथी सबसे आगे रहता था। उसके पीछे सरदार, पासवान आदि अपने-अपने हाथियों पर सवार होकर आते। उनके पीछे सैनिक टुकड़ी गाजे-बाजे के साथ आती और उनके पीछे एक खास हाथी आता, जिसका हौदा सोने-चांदी से सुसज्जित होता था।

उनके पीछे राज्य के प्रतिष्ठित लोग, उमराव, सरदार, चारण, अहलकार आदि अपने-अपने घोड़ों पर आते। उनके पीछे सोने-चांदी से सुसज्जित कुछ घोड़े आते थे। उनके पीछे रणकंकण का मधुर सुरीला बाजा बजाने वाले लोग होते थे।
उनके पीछे घोड़े पर सवार महाराणा होते थे। महाराणा इस समय अच्छी पोशाक व जामा, अच्छी पगड़ी (अमरशाही, अरसीशाही या स्वरूपशाही पगड़ी), कई प्रकार के आभूषण, कमरबंध, ढाल, तलवार धारण किए हुए होते थे।
महाराणा के साथ लवाजमे के लोग चलते थे। महाराणा के दोनों तरफ चँवर होते थे, इसके अलावा छत्र, छहांगीर, किरणिया, अडाणी, छवा आदि लवाजमा भी साथ होता था।
महाराणा के पीछे अन्य सरदार, पासवान, जागीरदार व रिसाले के सवार चलते थे। उनके पीछे सांडनी सवार व जागीरदारों के सवार चलते थे। सबसे पीछे नक्कारे का हाथी चलता था।
इस सवारी में मेवाड़ के युवराज (उत्तराधिकारी) के चलने के लिए 2 जगह होती थी, या तो वो हाथी-घोड़ों से आगे चले या फिर महाराणा के पैदल जलेब के आगे चले।
सवारी के दोनों तरफ छड़ीदारों की बुलन्द आवाज़ और वीरता का गायन करने वाले लोगों की आवाजें इस सवारी के आनंद व उत्साह को दुगुना कर देती थी।
महाराणा त्रिपोलिया घाट (गणगौर घाट) पर पहुंचकर घोड़े से उतरते थे और नाव में सवार होते थे, जहां दो बड़ी नावें मजबूती से जुड़ी रहतीं। इनमें से एक नाव के ऊंचे गोखडे पर 2 फ़ीट का सिंहासन होता था, जिस पर चार खंभों वाली एक छतरी होती थी।

छतरी और सिंहासन को पहले ही कमखाब, जरदोजी और जरी के वस्त्रों से सुशोभित कर दिया जाता था। छतरी के चारों कोनों और गुम्बज पर बादले के तुर्रे और कलगी लगा दिए जाते।
सिंहासन के चारों तरफ और नीचे के तख्तों पर सरदार, चारण, अहलकार, पासवान आदि अच्छे वस्त्राभूषण पहने हुए अपने-अपने दर्जे के अनुसार बैठते थे। जिनको बैठक का दर्जा नहीं होता था, वे खड़े रहते थे।
दर्जे के हिसाब से दूसरे नंबर पर आने वाले पास ही जुड़ी दूसरी नाव में सवार होते थे और बाकी सब अन्य लोग अन्य नावों में सवार होते थे। फिर नौका की सवारी दक्षिण की तरफ बड़ी पाल तक जाने के बाद पुनः गणगौर घाट की तरफ आती।
इसके बाद महलों से गणगौर माता की सवारी निकलती थी। इस सवारी के साथ सोने-चांदी के आभूषणों व सुंदर पोशाक पहने हुए दासियों का झुंड चलता था। एक स्त्री के सिर पर काष्ठ की बनी हुई 3 फीट ऊंची गणगौर माता की मूर्ति रखी जाती।
यह मूर्ति सोने-चांदी के आभूषणों से सुसज्जित होती थी। गणगौर माता की मूर्ति के दोनों तरफ हाथों में चँवर लिए हुए दो दासियाँ चलती थीं। इनके आगे-पीछे सवारी का लवाजमा चलता था, जिनमें हाथी-घोड़ों पर पंडित, ज्योतिषी, जनानी ड्योढी के महता अहलकार आदि चलते थे।
माता की सवारी जब गणगौर घाट पर पहुंचती, तो महाराणा अपने स्थान से खड़े होकर गणगौर माता को प्रणाम करते। फिर गणगौर माता की मूर्ति को फ़र्शयुक्त वेदिका पर रखकर पंडित व ज्योतिषी लोग पूजन आदि करते थे।
इसके बाद दासियाँ एक गाना गाती, जिसे ‘लूहरें’ कहा जाता था। गणगौर माता को जिस तरह जुलूस के साथ लाते, उसी तरह जुलूस के साथ ही वापस महलों में पहुंचाते थे।

महाराणा भी नाव में सवार होकर रूपघाट पर नाव से उतरते और वहां से महलों में चले जाते। इस पूरे उत्सव में झील किनारे हज़ारों की तादाद में लोग खड़े रहते थे। सिर्फ उदयपुर ही नहीं, राजपूताने के कोने-कोने से लोग यहां की गणगौर देखने आते थे।
गणगौर में ‘गण’ का आशय भगवान शिव व ‘गौर’ का आशय माता पार्वती से है। कहा जाता है कि राजपूत पुरुषों के लिए दशहरा और स्त्रियों के लिए गणगौर बड़ा त्योहार होता है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
Very nice history