मेवाड़ महाराणा अरिसिंह द्वितीय (भाग – 9)

1771 ई. – गंगार का युद्ध :- मेवाड़ के बागी सामन्तों ने टोपला गांव की लड़ाई में महाराणा अरिसिंह की फ़ौज का सामना किया, लेकिन शिकस्त खाई और बागी सामन्तों के सहयोगी जयपुर के नागा साधुओं को भी भागकर जान बचानी पड़ी।

ये बागी सामंत एक राजपूत लड़के को महाराणा रतनसिंह नाम देकर महाराणा अरिसिंह को पदच्युत करना चाहते थे। इस प्रयास में कई बार असफलता मिली, लेकिन इन सामन्तों ने अपनी ज़िद नहीं छोड़ी।

1770 ई. में हुई टोपला गांव की लड़ाई में पराजित होने के बाद बागी सामंत एक वर्ष तक शांत रहे और फिर 1771 ई. में दोबारा लड़ाई की तैयारियां शुरू कर दीं। महता सूरतसिंह, साह कुबेरचंद अमरदार, खुशहाल देपुरा आदि बेदला के राव रामचंद्र चौहान से मिले और 10 हजार नागा साधुओं को लेकर फिर से मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी।

नागा साधुओं को जोगी व महापुरुष भी कहा जाता था। जोगियों की सेना ने गंगार गांव में पड़ाव डाला और मेवाड़ के गांव लूटने लगे। इस बार अलग बात ये थी कि इस फ़ौज में वे दोनों सामंत शामिल नहीं थे, जो महाराणा का विरोध करने में सबसे आगे थे, वे थे देवगढ़ के राघवदेव चुंडावत व भींडर के महाराज मुहकम सिंह शक्तावत।

मेवाड़ के बागी सामंत महाराणा अरिसिंह के विरोध में थे, क्योंकि महाराणा की नीतियां अनुचित थीं, लेकिन अब ये बागी सामंत बाहर से शत्रुओं को लाकर मेवाड़ के ही गांव लुटाने लगे, जिससे इनकी नीतियां महाराणा से भी ज्यादा अनुचित हो गईं।

महाराणा अरिसिंह द्वितीय

अप्रैल, 1771 ई. में महाराणा अरिसिंह ने सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत को उदयपुर की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी। फिर महाराणा ने अपने काका बाघसिंह को गोडवाड़ के जागीरदारों की सैनिक टुकड़ियों सहित गोडवाड़ की तरफ भेजा, क्योंकि कुम्भलगढ़ में बैठा हुआ रतनसिंह (नकली महाराणा) वहां पर कब्ज़ा करना चाहता था।

इस तरह हर तरफ़ इंतज़ाम करने के बाद महाराणा अरिसिंह फौज समेत रवाना हुए और गंगार से डेढ़ कोस की दूरी पर जा पहुंचे। जोगियों के सेना में 12 सैनिक टुकड़ियां थीं और सभी के लिए अलग-अलग अफ़सर तैनात किए गए थे। सभी अफ़सर बाण, बंदूक, जुजरवा, चक्र आदि हथियारों से लैस हो गए।

महाराणा अरिसिंह ने अपनी फ़ौजी जमावट कुछ इस तरह की :- दाहिनी तरफ जमादार अरब, जमादार सिंधी कोली व जमादार कासिम खां 4 हज़ार की फ़ौज समेत तैनात थे। बाईं तरफ जमादार फिरोज़, जमादार मलंग, अब्दुर्रज्जाक, जमादार लड़ाऊ, जमादार गुलहाला 7 हज़ार सिपाहियों के साथ तैनात थे।

बीच में स्वयं महाराणा अरिसिंह घोड़े पर सवार थे और उनके साथ निम्नलिखित सामंत, सहयोगी आदि थे :- कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह कृष्णावत चुंडावत, कोठारिया के रावत फतहसिंह चौहान, बिजोलिया के राव शुभकरण पंवार,

बदनोर के ठाकुर अखैसिंह के पुत्र गजसिंह मेड़तिया राठौड़, महाराणा अरिसिंह के काका शिवरती महाराज अर्जुनसिंह (महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के पुत्र), रूपाहेली के शिवसिंह मेड़तिया राठौड़, नीम्बाहेड़ा के हरिसिंह मेड़तिया राठौड़,

दिवाला के ईसरोद जालिमसिंह मेड़तिया राठौड़, ईटाली के रामदास मेड़तिया राठौड़, खारडे के वैरिशाल मेड़तिया राठौड़, वाजोली के अखैसिंह मेड़तिया राठौड़, खैराबाद के बाबा शक्तिसिंह राणावत, हमीरगढ़ के रावत धीरतसिंह राणावत, महुवा के बाबा सूरतसिंह राणावत,

सनवाड़ के बाबा शम्भूसिंह राणावत, लसाणी के गजसिंह जगावत चुंडावत, दौलतगढ़ के ईसरदास सांगावत चुंडावत, बनेडिया के चत्रसाल चौहान, थांवला के नाथसिंह चौहान, रूद के जवानसिंह गोकुलदासोत शक्तावत, नगराज, धायभाई कीका, धायभाई जोधा, चारण पन्ना आढा, जमादार कासिम खां।

इनके अलावा महाराणा अरिसिंह की सेना में महता अगरचन्द की कमान में 500 घुड़सवार और खैराड़ के  एक हज़ार पैदल सिपाही भी थे।

महाराणा अरिसिंह द्वितीय

सूरज निकलने से पहले दोनों सेनाएं गंगार गांव की रणभूमि में आमने-सामने आ पहुंची। शिवरती के महाराज अर्जुनसिंह ने अपने भतीजे महाराणा अरिसिंह से कहा कि “सेना को लड़ाई का आदेश दीजिए।”

फिर महाराणा ने कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह चुंडावत के पास एक चोबदार को भेजा और कहलाया कि “अपना घोड़ा आगे बढ़ाओ, क्योंकि हरावल में लड़ना आपके ठिकाने का दस्तूर है।”

रावत अर्जुनसिंह ने चोबदार से कहा कि “अभी हरावल में कुछ सैनिकों को अफ़ीम देना बाकी है, इसलिए थोड़ी देर बाद आगे बढ़ते हैं।” (राजपूतों में यह रिवाज था कि लड़ाई से पहले दस्तूर के लिए थोड़ी सी अफ़ीम दी जाती थी)।

इसी दौरान हरावल में तैनात किसी राजपूत ने चोबदार से कहा कि “मेवाड़ पर राज तो महाराणा को ही करना है, सो वे ही क्यों नहीं अपना घोड़ा आगे बढ़ाते पहले।” चोबदार ने जाकर ये बात महाराणा अरिसिंह को कही, तो महाराणा ने बरछा हाथ में लिया और घोड़ा आगे बढ़ाते हुए शत्रुओं पर टूट पड़े।

इतने में रावत अर्जुनसिंह भी फुर्ती रखकर लड़ाई में शामिल हो गए। महाराणा अरिसिंह का हमला इतना तेज़ था कि कुछ ही देर में जोगियों की सेना भाग निकली। बहुत से जोगी इस लड़ाई में मारे गए और बचे खुचे गंगार के किले में जा पहुंचे।

इस समय किसी ने ये दोहा कहा :- “अड़सी जूं अडिया जिके पडिया करै पुकार। महापुरुषां की मुंड की गलगी गांव गंगार।।” अर्थात महाराणा अरिसिंह से जो लड़े वे पड़े-पड़े पुकार करते रहे और महापुरुषों के सिर गंगार गांव में गल गए।

इस बार महाराणा अरिसिंह ने जोगियों को सज़ा देने की ठानी और सेना सहित जाकर गंगार के किले को घेर लिया। महाराणा अरिसिंह के तोपचियों ने किले पर गोले बरसाए, जिससे किले वाले भयभीत हो गए।

महाराणा अरिसिंह द्वितीय

महाराणा के विरोधी सामंत बेदला के राव रामचंद्र के पुत्र देवीसिंह चौहान इस समय गंगार के किले में एक जती से विजय होम करवा रहे थे, कि तभी तोप का गोला भीतर गिरा और उस जती का सिर उड़ गया, जिससे घबराकर देवीसिंह चौहान महाराणा के पैरों में आ गिरे।

साह कुबेरचंद देपुरा ने गंगार के किले में ही पेशकब्ज़ खाकर आत्महत्या कर ली। अमरचंद देपुरा को महाराणा के सैनिकों ने कैद कर लिया। महाराणा ने अमरचंद को महता अगरचन्द के हवाले करके मांडलगढ़ के किले में भेज दिया, जहां कैदखाने में अमरचंद की मृत्यु हो गई।

नागा साधुओं ने कसम खाई की अब कभी महाराणा के विरुद्ध नहीं लड़ेंगे, तब महाराणा ने उनको क्षमा कर उदयपुर की तरफ प्रस्थान किया। इस लड़ाई में महाराणा के काका शिवरती के महाराज अर्जुनसिंह सख़्त ज़ख्मी हुए, उनको तलवार के 15 ज़ख्म लगे।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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