मेवाड़ महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (भाग – 1)

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय का परिचय :- इनका जन्म 21 मार्च, 1690 ई. को हुआ। इनके पिता महाराणा अमरसिंह द्वितीय व माता देवकुँवरी बाई थीं, जो कि बेदला के राव सबलसिंह चौहान की पुत्री थीं।

व्यक्तित्व :- महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय का कद मंझले से कुछ छोटा, चौड़ी पेशानी, गेहुआ गौर वर्ण, भरा हुआ बदन था। स्वभाव से हंसमुख, हाजिरजवाबी व ईमानदार थे। वीर, धर्मनिष्ठ, मातृभक्त, वचन के पक्के, वक़्त के पाबंद, राज्य प्रबंध में चतुर व योग्य शासक थे।

महाराणा संग्रामसिंह अपने पूर्वजों की भांति दानी व विद्वानों के आश्रयदाता थे। इन महाराणा का आदेश नौकर से लेकर सामंत तक सभी बिना शर्त मानते थे। इनके राज में प्रजा सुखी व संतुष्ट थी। ये चित्रकला को मेवाड़ के सभी महाराणाओं में सर्वाधिक महत्व देने वाले थे।

इन महाराणा को अक्सर बेमतलब दी हुई सलाह और राज कार्य में बाधा डालने वाले लोग पसंद नहीं थे। ये मेवाड़ के पहले महाराणा थे, जिन्होंने दाढ़ी रखना शुरू किया।

22 दिसंबर, 1710 ई. को महाराणा अमरसिंह द्वितीय के देहांत के बाद महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय मेवाड़ की राजगद्दी पर बिराजे। राज्याभिषेक उत्सव कुछ महीने बाद में मनाया गया।

महाराणा संग्रामसिंह से सम्बंधित तीन घटनाओं का उल्लेख यहां किया जा रहा है, जिनसे महाराणा के उसूल व उनके बेहतरीन राज्य प्रबंध का पता चला चलता है।

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय

1) बाईजीराज से नाराजगी :- महाराणा संग्रामसिंह बड़े ही मातृभक्त थे, हर सुबह बाईजीराज अर्थात् अपनी माँ को दंडवत प्रणाम किए बगैर कोई दूसरा कार्य प्रारंभ नहीं करते थे, लेकिन इन महाराणा को बेवजह दी हुई सलाह सख्त नापसंद थी।

एक रोज़ जब सुबह-सुबह महाराणा संग्रामसिंह बाईजीराज से मिलने पहुंचे, तो बाईजीराज ने महाराणा से किसी को जागीर दिलाने की सिफारिश कर दी। महाराणा चुपचाप कक्ष से बाहर आए और जागीर का पट्टा उस व्यक्ति के नाम लिख दिया, लेकिन इसके बाद बाईजीराज से मिलना बंद कर दिया।

बाईजीराज ने बहुत प्रयास किया पर महाराणा न माने। आखिर में बाईजीराज ने तीर्थ यात्रा करने की बात कही, तो महाराणा ने सारे इंतज़ाम करवा दिए, लेकिन स्वयं मिलने को न गए।

बाईजीराज आमेर पहुंची, जहां महाराजा सवाई जयसिंह ने उनका यहां तक आदर सत्कार किया कि स्वयं महल से बाहर जाकर बाईजीराज की पालकी को कंधा देकर भीतर तक लाए।

फ़िर बाईजीराज मथुरा, वृंदावन वगैरह तीर्थ यात्रा कर लौटीं, तो महाराजा सवाई जयसिंह उन्हें पहुंचाने उदयपुर तक आए और कहा कि मैं आप माँ बेटे के बीच का ये रंज मिटवा दूंगा। जब वे उदयपुर लौटे, तो महाराणा पेशवाई के लिए कुछ दूर तक गए और उन्हें अपने डेरे में ले आए।

महाराजा सवाई जयसिंह ने महाराणा के सामने इस मसले पर बात छेड़ी, तो महाराणा ने कह दिया कि “घर का विरोध घर में ही मिटता है। आप हमारे मेहमान हैं, आपको इन सब बातों से कोई मतलब नहीं होना चाहिए।” फिर महाराणा संग्रामसिंह सवाई जयसिंह को उदयपुर राजमहलों में ले आए और आवभगत की।

जयपुर नरेश सवाई जयसिंह व महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय

2) कोठारिया रावत की जागीर से एक गांव ज़ब्त करना :- किसी उत्सव के मौके पर कोठारिया रावत साहब ने महाराणा संग्रामसिंह से अर्ज़ किया कि हुज़ूर आपके जामे का घेरा थोड़ा सा बढ़ा दिया जावे, तो बेहतर रहेगा। महाराणा ने बात मंज़ूर करके इन उमराव की जागीर के एक गांव पर खालिसा भेज दिया।

जब रावत ने कारण जानना चाहा, तो महाराणा ने राज्य के कुल जमा खर्च के दस्तावेज दिखाए और कहा कि “हर एक सीगे के लिए जमा खर्च मुकर्रर है, अब जामे का घेरा ना बढ़ाया जावे, तो बेमुरव्वती है और बढ़ाया जावे तो इसका खर्च कहाँ से वसूल होवे, इस खातिर तुम्हारी जागीर के एक गांव की आमदनी से यह घेरा बढ़ाया जावेगा”

3) एक दिन महाराणा संग्रामसिंह अपने सरदारों के साथ भोजन कर रहे थे, तब दही में शक्कर नहीं थी, तो महाराणा ने रसोड़े के दारोगा को बुलाकर बहुत खरी खोटी सुनाई। दारोगा ने विनम्र होकर कहा कि “हुज़ूर, शक्कर के लिए जो गांव नियत था, वह तो आपने दूसरों को दे दिया, अब शक्कर का खर्च किस गांव की आय से चलाया जावे”।

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय

महाराणा संग्रामसिंह ने दारोगा की बात स्वीकार करते हुए कहा कि तुम सही कहते हो। महाराणा चाहते तो उसी समय शक्कर मंगवा सकते थे या दारोगा द्वारा ऐसा जवाब देने के कारण उसको नौकरी से निकाल सकते थे, परन्तु इसके विपरीत महाराणा ने उस दिन बिना शक्कर के दही का सेवन किया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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