महाराणा जयसिंह की मांडलगढ़ विजय :- जनवरी, 1681 ई. में महाराणा जयसिंह ने एक फ़ौज मांडलगढ़ किले पर भेजी। मांडलगढ़ में हुए युद्ध में मुगल फ़ौज परास्त हुई और दुर्ग पर महाराणा का अधिकार हो गया।
इस लड़ाई में मुगल थानेदार मारा गया। 31 जनवरी, 1681 ई. को इस लड़ाई की ख़बर औरंगज़ेब को मिली। औरंगज़ेब के जिस बेटे अकबर को मेवाड़ व मारवाड़ के राजपूतों ने औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ किया था, वह अकबर भागकर सांचौर चला गया।
औरंगज़ेब के हुक्म से शहज़ादे आज़म ने उसका पीछा किया। (कृपया इसे मुगल बादशाह अकबर समझने की भूल न करें, यह औरंगज़ेब का बेटा था जिसका नाम भी अकबर था)
महाराणा जयसिंह ने मंत्री दयालदास को फौज समेत शहज़ादे आज़म की फौज पर रात के वक़्त छापामार आक्रमण करने भेजा। इस समय दयालदास का परिवार भी उनके साथ था। आज़म को इस हमले की भनक पहले ही लग गई और उसने दिलावर खां को लड़ने भेजा।
यह लड़ाई 1 फरवरी से 3 फरवरी के बीच हुई और 4 फरवरी को लड़ाई की ख़बर औरंगज़ेब को मिली। इस लड़ाई में बहुत से मेवाड़ी वीर काम आए, तो दयालदास को लगा कि पराजय निकट है, इसलिए उन्होंने अपनी ही पत्नी को मार दिया और ख़ुद बचने में कामयाब रहे।
बहुत सा सामान मुगलों के हाथ लगा और दयालदास की पुत्री मुगलों द्वारा पकड़ी गई। महाराणा जयसिंह के लिए मुश्किलें बढ़ रही थीं, क्योंकि हर दिन कोई न कोई लड़ाई हो रही थी, जिसमें यह डर बना रहता था कि कहीं कोई राजपूत स्त्री मुगलों के द्वारा न पकड़ी जावे।
औरंगज़ेब के लिए भी मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं, क्योंकि दक्षिण में मराठों की गतिविधियों ने जोर पकड़ लिया था।इसके अलावा मेवाड़ और मारवाड़ के हज़ारों राजपूतों ने मुगल सल्तनत से बग़ावत कर रखी थी। ऊपर से शहज़ादे अकबर ने भी विद्रोह के झंडे खड़े कर रखे थे।
इस तरह औरंगज़ेब और महाराणा जयसिंह दोनों ही सुलह को बढ़िया विकल्प समझ रहे थे। औरंगज़ेब ने अपने बेटे आज़म से कहा कि राणा से सुलह करने का तरीका निकालो। उन दिनों आज़म के सेनापति दिलेर खां के सलाहकारों में महाराज श्यामसिंह सिसोदिया भी थे।
महाराज श्यामसिंह महाराणा कर्णसिंह के पुत्र गरीबदास के पुत्र थे। आज़म ने दिलेर खां से कहा कि तुम श्यामसिंह से इस मसले पर बात करो। फिर दिलेर खां इस सन्धि प्रस्ताव का बिचौलिया बना और महाराज श्यामसिंह को सन्धि प्रस्ताव लेकर महाराणा जयसिंह के पास भेजा गया।
महाराज श्यामसिंह ने महाराणा से कहा कि “इस वक्त औरंगज़ेब दक्षिण के मामलों में उलझा है और ख़ुद सुलह चाहता है, इसलिए अगर इस वक्त सुलह की जाए, तो अनुकूल शर्तों पर बात बन सकती है।”
महाराणा जयसिंह को महाराज श्यामसिंह की बात पसन्द आई और उन्होंने कोठारिया के रावत रुक्मांगद चौहान, पारसोली के राव केसरीसिंह चौहान, बावल के रावत घासीराम शक्तावत आदि सामन्तों को बातचीत हेतु औरंगज़ेब के पास भेजा।
औरंगज़ेब तो सुलह चाहता ही था, उसने फ़ौरन एक फ़रमान महाराणा जयसिंह को भेजा। इस फ़रमान में उसने लिखा कि :-
“जो अर्ज़ी राव केसरीसिंह, रुक्मांगद और घासीराम के हाथ भिजवाई गई, वह बुज़ुर्ग दरगाह में पहुंची। उससे नेकनियती और मज़बूत इकरार के इरादे मालूम हुए।
जो अगर सफ़ाई ज़ाहिर करके बड़े हुक्मों के मुवाफिक कार्रवाई कुबूल करोगे, तो हम भी उस ख़्याल के साथ, जो उस खानदान के मर्ज़ी ढूंढने वाले की बाबत हमारे दिल में है और
उसके कुसूरों की मुआफ़ी की तरफ़ इरादा पैदा करता है, निहायत मिहरबानी से फ़रमान मए पंजे मुबारक के निशान के और मनसब व टीका इनायत होने की दरख़्वास्त करेंगे।
उस उम्दा खैरख्वाह (महाराणा जयसिंह) की दूसरी अर्ज़ियों पर भी ख्याल किया जावेगा। उस नेक इरादा खैरख्वाह को मालूम होवे कि शहज़ादे आज़म से मुलाकात के बाद बाकी की अर्ज़ियाँ कुबूल करने की सोची जावेगी।”
औरंगज़ेब के इस फ़रमान का सीधा आशय ये है कि वह चाहता है कि महाराणा जयसिंह और शहज़ादे आज़म की मुलाकात हो, जहां संधि की शर्तें तय की जावें, जिसके बाद ही उन अर्ज़ियों पर विचार किया जाएगा, जो महाराणा ने औरंगज़ेब के पास भिजवाई।
यह फ़रमान 5 मार्च, 1681 ई. को अजमेर में लिखा गया था। यह फ़रमान लेकर महाराणा के सामंत अजमेर से उदयपुर के लिए रवाना हुए। इन दिनों शहज़ादा अकबर मारवाड़ में राठौड़ों के साथ था और शहज़ादा आज़म उसको ढूंढ रहा था।
14 अप्रैल, 1681 ई. को आज़म ने महाराणा जयसिंह को एक ख़त लिखा कि “शहज़ादा अकबर देसूरी की तरफ़ से मेवाड़ में आ रहा है, उसको पकड़ लेना या हो सके तो मार देना।”
शहज़ादे अकबर के साथ मारवाड़ के राठौड़ राजपूतों का सैन्य भी था और इन दिनों मेवाड़-मारवाड़ में भी अच्छे सम्बन्ध बने हुए थे।
इसके अतिरिक्त इस समय स्वयं महाराणा की एक सैनिक टुकड़ी भी रावत रतनसिंह चुंडावत के नेतृत्व में अकबर के साथ थी। महाराणा जयसिंह ने इन सब बातों का विचार करके वीर दुर्गादास राठौड़ को खत लिखा कि आप अकबर को यहां न लाकर दक्षिण की तरफ ले जाओ।
वीर दुर्गादास अकबर को लेकर दक्षिण में चले गए, जहां छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे छत्रपति शम्भाजी महाराज ने अकबर को राहेड़ी के किले में ठहराया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)