1681 ई. में औरंगज़ेब ने महाराणा जयसिंह के पास सन्धि प्रस्ताव भिजवाया, जिसे महाराणा ने मंज़ूर किया और सन्धि की शर्तें तय करने के लिए महाराणा जयसिंह व औरंगज़ेब के बेटे शहज़ादे आज़म का मिलना तय हुआ।
राजसमंद तालाब के उत्तरी किनारे पर मोरचणा और पशूंध की चौरस ज़मीन पर दोनों पक्षों का मिलना तय हुआ। इस सन्धि का बिचौलिया दिलेर खां था। दिलेर खां ने महाराणा जयसिंह को ये खत लिखा :-
“बाद मामूली अल्काब के, शौक और दोस्ती की बातें ज़ाहिर करते हुए लिखा जाता है कि जहां तक हो सका उस बलन्द खानदान (मेवाड़) की भलाई और बिहतरी के वास्ते अर्ज़ किया गया।
चंद्रसेन झाला (बड़ी सादड़ी), जैत झाला (देलवाड़ा), सांवलदास राठौड़ (बदनोर), रावत केसरीसिंह शक्तावत (बांसी), केसरीसिंह चौहान (पारसोली), गोपीनाथ परिहार
और सांवलदास पंचोली के साथ इकरार की हुई बातें (संधि की मूल बातें) और उस दोस्त (महाराणा जयसिंह) के आने का वक्त लिख दिया गया है, जो आपके पास भेज दी गई है।
मुलाकात के लिए सिर्फ़ चार ही दिन बाकी हैं। इस दोस्त के कागज़ पहुंचने पर, जो जल्दी में लिखा गया है, वह बलन्द खानदान कूच व कूच रवाना हो, एक घड़ी की देर न करें।
इस दोस्त (दिलेर खां) को, जो आपको देखने के लिए शौकमंद है, आपके मिलने से खुशी हासिल होगी। ज्यादा शौक के सिवा क्या लिखा जावे। खुशी के दिन सलामत रहें।”
इस तरह दिलेर खां ने महाराणा जयसिंह को खत लिखकर सही वक्त पर भेंट हेतु आने को कहा। महाराणा जयसिंह को मुगलों पर भरोसा नहीं था, उनको लगा कि संभव है ये मुगलों की कोई चाल हो।
इसलिए महाराणा जयसिंह ने बादशाही सिपहसालार महाराज श्यामसिंह से कहा कि आप हमारा एक संदेश लेकर दिलेर खां के पास जाएं। महाराज श्यामसिंह महाराणा का संदेश लेकर दिलेर खां के पास गए और दिलेर खां से कहा कि
“महाराणा जयसिंह चाहते हैं कि जब तक उनकी और शहज़ादे आज़म की भेंट नहीं हो जाती, तब तक आपके दोनों बेटे महाराणा के आदमियों के पास भिजवा दिए जाएं, सुलह की बात होते ही आपको आपके बेटे पुनः सौंप दिए जाएंगे।”
दिलेर खां ने महाराणा की बात मानकर अपने दोनों बेटों को महाराणा के यहां भिजवा दिया। फिर महाराणा जयसिंह को पूरी तरह तसल्ली हो गई और वे 25 जून, 1681 ई. को आज़म से मिलने के लिए रवाना हुए।
महाराणा जयसिंह के साथ 7 हजार सवार व 10 हजार पैदल फौज भी थी। महाराणा जयसिंह के साथ बड़ी सादड़ी के राज चंद्रसेन झाला, बेदला के राव सबलसिंह चौहान, बिजोलिया के राव बैरिशाल पंवार, बदनोर के
मेड़तिया सांवलदास राठौड़, पारसोली के राव केसरीसिंह चौहान, ब्राह्मण पुरोहित गरीबदास, भगवन्तसिंह आदि थे। (भगवन्तसिंह महाराणा जयसिंह के काका अरिसिंह के पुत्र थे)
सुलह के नज़ारे को देखने के लिए आसपास के पहाड़ों पर तकरीबन एक लाख लोग इकट्ठे हो गए। महाराणा जयसिंह शाही लश्कर के नज़दीक पहुंचे, तब शहज़ादे आज़म की तरफ से दिलेर खां, हसन अली खां,
रतलाम के राजा भीमसिंह राठौड़, किशोरसिंह हाड़ा बाहर आए और महाराणा की पेशवाई करके उनको भीतर ले गए। महाराणा जयसिंह शहज़ादे आज़म के बाईं तरफ बिराजे।
आज़म ने महाराणा जयसिंह को एक खिलअत, जड़ाऊ तलवार, जड़ाऊ जमधर, फूलकटारा, हाथी, सोने-चांदी से सुसज्जित एक घोड़ा व एक हाथी, 50 ज़ेवर आदि भेंट किए। महाराणा के साथ आए हुए सरदारों को 40 घोड़े व 10 जड़ाऊ जमधर भेंट किए गए।
मेवाड़ व मुगल सल्तनत के बीच हुई दूसरी सन्धि (1681 ई.) में तय की गई मूल शर्तें :- 1) चित्तौड़गढ़ सहित मेवाड़ के वे सभी क्षेत्र, जिन पर मुगलों का कब्ज़ा है, महाराणा को वापिस सौंपे जाएं।
2) महाराणा राजसिंह के समय में मेवाड़ में मंदिर तोड़े गए थे, वैसी अनुचित कार्रवाई फिर कभी न की जावे। 3) महाराणा द्वारा एक हज़ार घुड़सवार बादशाही फ़ौज में भेजे जावें, जो कि दक्षिण में तैनात किए जाएंगे।
4) चित्तौड़गढ़ के किले की मरम्मत न करवाई जावे। 5) महाराणा द्वारा बादशाह के बागियों को शरण न दी जावे। 6) 1680 ई. में मुगल सेना की चढ़ाई के दौरान जो फ़ौज खर्च हुआ, वह रकम महाराणा द्वारा बादशाह को दी जावे।
7) मुगल बादशाह औरंगजेब द्वारा हिंदुओं से जो जज़िया वसूला जा रहा है, वह मेवाड़ से न वसूला जावे, यदि वसूला गया तो सन्धि वहीं भंग मानी जावेगी।
इस प्रकार यह सन्धि भी 1615 ई. की सन्धि की तरह सम्मानजनक रही, बल्कि इस सन्धि में जज़िया की शर्त जोड़कर महाराणा जयसिंह ने बड़ी चतुरता दिखाई।
महाराणा जयसिंह व शहज़ादे आज़म के बीच सन्धि की इन मूल शर्तों के अतिरिक्त भी कुछ शर्तें तय हुईं थीं, जो कि आज़म ने अपने पिता औरंगज़ेब से गुप्त रखते हुए तय कीं। शर्तें आज़म की गद्दीनशीनी के बाद लागू होना तय किया गया।
इस सन्धि के दौरान जो शर्तें गुप्त रूप से दोनों पक्षों में तय की गईं वो कुछ इस तरह थीं :- 1) फूलिया, बदनोर, बसार, गयासपुर, परधां, डूंगरपुर, ईडर, खेड़ी, माण्डल, जहाजपुर, मंदसौर, खैराबाद, टोंक, सावर, टोडा, मालपुरा आदि परगने महाराणा को दिए जाएंगे।
2) महाराणा का मनसब सात हजारी किया जाएगा। 3) महाराणा को दो करोड़ दाम की जागीर दक्षिण में और एक करोड़ दाम की जागीर के बदले सिरोही का परगना दिया जावेगा।
4) सन्धि की मूल शर्त के अनुसार महाराणा को जो एक हज़ार घुड़सवार दक्षिण में शाही फ़ौज की मदद ख़ातिर तैनात रखने थे, वह शर्त रद्द की जावे।
5) महाराणा की सेवा में रहने वाला उनका जो भी रिश्तेदार या सामंत महाराणा से नाराज़ होकर बादशाह के पास जावे, तो उसकी सुनवाई नहीं की जावे।
6) देवलिया, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, सिरोही के ज़मीदार महाराणा से नाराज़ होकर बादशाह के पास जावें, तो उनकी सुनवाई न की जावे। 7) जिस वक्त उत्तराधिकार संघर्ष हो, उस वक़्त महाराणा की तरफ से आज़म की मदद की जावे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)