राजा बासु का मेवाड़ अभियान :- मुगल बादशाह जहांगीर ने 1605 से 1608 ई. तक शहज़ादे परवेज़ को मेवाड़ अभियान पर भेजा, 1608 से 1609 ई. तक महाबत खां को भेजा, 1609 ई. से 1611 ई. तक अब्दुल्ला खां को भेजा।
उक्त तीनों ही सैन्य अभियानों की असफलता के बाद जहांगीर ने अब एक हिन्दू राजा के हाथों में मेवाड़ अभियान की कमान सौंपी। जहांगीर ने अब्दुल्ला खां को मेवाड़ अभियान से हटाकर गुजरात की तरफ भेज दिया और उसकी जगह राजा बासु को फौज देकर मेवाड़ भेजा।
राजा बासु का परिचय :- राजा बासु पंजाब के पहाड़ी क्षेत्र में स्थित रियासत नूरपुर के तंवर राजपूत राजा थे। ये दिल्ली के प्रसिद्ध तंवर राजा अनंगपाल द्वितीय के छोटे भाई राजा जीतपाल तंवर के वंशज थे। ये 1580 ई. में नूरपुर की गद्दी पर बैठे थे।
अकबर ने राजा बासु को 1500 सवारों का मनसब दिया था। इन्होंने अकबर के समय बगावत कर दी थी और क्योंकि जहांगीर भी उन दिनों अकबर का विरोधी था, तो उसका सम्पर्क राजा बासु से हो गया। बादशाह बनने के बाद जहांगीर ने राजा बासु का मनसब बढ़ाकर 3 हज़ार सवार कर दिया। जहांगीर ने राजा बासु को मेवाड़ अभियान पर भेजने से पहले उनके मनसब में 500 सवारों की वृद्धि करते हुए यह 3500 सवार कर दिया।
राजा बासु ने मुगल फ़ौज के साथ मेवाड़ की तरफ कूच किया और मेवाड़ में प्रवेश करके मुगल थाने बिठाना शुरु किया। महाराणा ने भी जगह-जगह मुगल फौज से मुकाबला किया। जहांगीर ने राजा बासु की मदद के लिए सफदर खां को शाही फौज के साथ मेवाड़ भेजा। सफदर खां का मनसब भी बढ़ा दिया गया।
बदीउज्ज़मा ने एक बार मुगल सल्तनत से बगावत करके मेवाड़ महाराणा अमरसिंह से हाथ मिला लिया था, पर उसे बन्दी बनाकर आगरा ले जाया गया, जिसके बाद उसने बादशाही मातहती कुबूल कर ली थी। 1612 ई. में जहांगीर ने इसी बदीउज्ज़मा को महाराणा अमरसिंह के खिलाफ मेवाड़ भेज दिया। बदीउज्ज़मा के जरिए जहांगीर ने राजा बासु के लिए एक विशेष तलवार भी भिजवाई।
जहांगीर ने मेवाड़ के गैर-सैनिक प्रबंध को भी मज़बूती प्रदान की। उसने खुसरो बे उज़बेग नामक सिपहसालार को वहां की सरकार का फ़ौज़दार नियुक्त किया। वहां भेजने से पहले उसका मनसब भी बढ़ा दिया गया और उसे उपहार आदि भी दिए गए।
1612 ई. में बीकानेर के महाराजा रायसिंह राठौड़ का देहांत हो गया। राजपूताने के सभी राजाओं में ये जहांगीर के सबसे बड़े विश्वासपात्र थे। महाराजा रायसिंह ने महाराणा प्रताप के विरुद्ध सैन्य अभियानों में भाग लिया था, जबकि ये महाराणा प्रताप के बहनोई थे। इनके देहांत के बाद इनके पुत्र कुँवर दलपत बीकानेर की राजगद्दी पर बैठे।
1612 ई. में बैरम खां व अकबर की पत्नी सलीमा सुल्तान की मृत्यु हो गई। इसी वर्ष मुगलों की तरफ से चित्तौड़ अभियान में सिपहसालार व हल्दीघाटी युद्ध में बख्शी की भूमिका निभाने वाले आसफ खां की 63 वर्ष की आयु में बुराहनपुर में मृत्यु हो गई। गोंडवाना की रानी दुर्गावती के विरुद्ध अंतिम सैन्य अभियान का नेतृत्व भी इसी ने किया था।
राजा बासु व महाराणा अमरसिंह के बीच मैत्री संबंध :- राजा बासु को उनकी इच्छा के विरुद्ध इस सैन्य अभियान में भेज तो दिया गया, परन्तु वे मेवाड़ का हृदय से सम्मान करते थे। राजा बासु के साथ उनके पुरोहित व्यास भी मेवाड़ आए थे। राजा बासु ने पुरोहित व्यास को भेजकर महाराणा अमरसिंह से भक्त शिरोमणि मीराबाई जी की पूजी हुई कृष्ण भगवान की एक मूर्ति मांगी।
महाराणा अमरसिंह को ये जानकर बड़ी खुशी हुई और उन्होंने अपनी सेनाओं को राजा बासु पर आक्रमण करने से रोक दिया। 13 जुलाई, 1612 ई. को महाराणा अमरसिंह ने मूर्ति के साथ-साथ रेवल्या के पास का झींत्या नाम का एक गांव भी उन पुरोहित को भेंट कर दिया। यह मूर्ति वर्तमान में नूरपुर के किले में बृजराज स्वामी के नाम से प्रसिद्ध है।
तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “खान-ए-आज़म मिर्जा अजीज कोका ने मुझसे कहा कि वह गाज़ी बनना चाहता है और बागी राणा अमर के खिलाफ जंग करना चाहता है, तो मैंने उसको मालवा भेजकर कहा कि मालवा में कुछ काम निपटाकर राणा के मुल्क में चला जावे”
एक फ़ारसी तवारीख में मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका द्वारा जहांगीर को जो निवेदन पत्र लिखा गया, उसका वर्णन कुछ इस तरह किया गया है कि “बूढ़ा सेनापति मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका जोश में आ गया और उसने बादशाह को खत लिखकर एक अर्ज़ करते हुए लिखा कि हुज़ूर को याद होगा कि शाही दरबार में जब कभी राणा पर हमला करने का ज़िक्र होता था, तो आपका यह नौकर उम्मीद करता था कि यह हमला हो और इस लड़ाई में वह अपनी जान कुर्बान करे।”
इसी तवारीख़ में आगे लिखा है जिसके अनुसार मिर्ज़ा जहांगीर से कहता है कि “आपको मालूम है कि ये वो हमला है, जिसमें अगर आपका ये नौकर मर भी गया तो भी वह अल्लाह की राह में कुर्बान हुआ माना जाएगा और अगर फतहयाब हुआ तो फिर गाज़ी होने में मुश्किल ही क्या ? मिर्ज़ा की लिखी ऐसी बातें पढ़कर बादशाह खुश हो गए। बादशाह ने मिर्ज़ा को तोपखाना, खज़ाना जो चाहिए था दे दिया और विदा किया।”
मिर्ज़ा अजीज कोका को 1613 ई. में मेवाड़ भेजा गया। इसी वर्ष राजा बासु का देहांत हो गया। जहांगीर ने राजा बासु को खत लिखकर मेवाड़ पर हमला करने का हुक्म दिया, जिससे राजा बासु ने दबाव में आकर मेवाड़ के विरुद्ध हमले की तैयारी की।
मेवाड़ नरेशों ने सदा से ही मित्रता व शत्रुता दोनों को ही अच्छे से निभाया है। महाराणा अमरसिंह ने राजराणा हरिदास झाला को फौज देकर विदा किया। राजा बासु इस वक्त शाही लश्कर के साथ शाहबाद थाने पर तैनात थे। शाहबाद थाना मेवाड़ की सीमा पर है।
यहां हुई लड़ाई में राजराणा हरिदास झाला ने बड़ी बहादुरी दिखाई व विजयी रहे। इस लड़ाई में राजा बासु तंवर मारे गए। जहांगीर लिखता है कि “दो मिहर को ख़बर आई की राजा बासु की शाहबाद थाने पर मौत हो गई। शाहबाद राणा अमर के मुल्क की सरहद पर है”।
मजासिर-उल-उमरा नामक फ़ारसी तवारीख में लिखा है कि “राजा बासु कुछ दिन मेवाड़ में लड़कर दक्षिण जाते हुए मर गया।” इस प्रकार कुछ और इतिहासकारों की पुस्तकें भी राजा बासु के देहांत पर सटीक प्रकाश नहीं डालतीं। उनका मानना है कि राजा बासु का देहांत स्वतः ही हो गया।
यदि राजा बासु का देहांत दक्षिण जाते हुए हो जाता, तो जहांगीर उनका देहांत शाहबाद में होना नहीं बताता। मुझे मेवाड़ की एक पुस्तक से राजराणा हरिदास झाला के शाहबाद अभियान में हिस्सा लेने का वर्णन मालूम हुआ। ये मात्र एक संयोग नहीं हो सकता कि राजा बासु का देहांत 1613 में शाहबाद थाने पर हो जाए और इसी वर्ष राजराणा हरिदास झाला उस तरफ फ़ौज लेकर जाएं।
राजा बासु के देहांत के बाद उनके पुत्र राजा सूरजमल तंवर नूरपुर की गद्दी पर बैठे। जहांगीर ने राजा सूरजमल को 2 हज़ार सवारों का मनसब दिया। राजा सूरजमल ने जहांगीर के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी थी।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (ठि. लक्ष्मणपुरा-मेवाड़)