मध्यप्रदेश में राजगढ़ रियासत के दीवान राजा परसराम जी परमार ने 1681 ई. में नरसिंहगढ़ रियासत की स्थापना की। राजा परसराम के बाद नरसिंहगढ़ पर क्रमशः रावत दलेल सिंह, रावत मोती सिंह, रावत खुमाण सिंह, रावत अचल सिंह का राज रहा।
रावत अचल सिंह के बाद 1795 ई. में रावत सोभाग सिंह परमार नरसिंहगढ़ की राजगद्दी पर बैठे। इन्होंने मेवाड़ के महाराणा की भतीजी से विवाह किया। इन्हीं के पुत्र राजकुमार चैन सिंह परमार हुए, जिनका जन्म 1800 ई. में हुआ। राजकुमार चैन सिंह के दादाजी रावत अचल सिंह ने भी मेवाड़ के महाराणा की पुत्री से विवाह किया था।
वर्ष 1818 ई. अंग्रेजों के लिए वरदान साबित हुआ। इस वर्ष हिंदुस्तान के अनेक राजाओं ने सन्धि पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। इसी वर्ष भोपाल के नवाब से समझौते के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने सीहोर में 1000 सैनिकों की छावनी स्थापित कर दी। नरसिंहगढ़ रियासत के राजनीतिक अधिकार पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक को सौंप दिए गए।
रियासत के दीवान आनंदराम बख्शी और मंत्री रूपराम बोहरा अंग्रेजों से मिल गए थे। इस बात का पता जब कुँवर चैनसिंह को चला, तो उनके क्रोध की सीमा न रही और उन्होंने इन दोनों को यमलोक पहुंचा दिया। जब इसकी शिकायत अंग्रेज अफसर मैडॉक से की गई, तो उसने कुँवर से कहलवाया कि अगर तुमको अपनी जान प्यारी है, तो सुलह के लिए आओ।
कुँवर सुलह के लिए पहुंचे, तो पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक ने कुँवर से कहा कि इन हत्याओं से यदि आपको बचना है तो 2 शर्तें माननी होंगी। पहली शर्त ये कि नरसिंहगढ़ रियासत अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करे और दूसरी शर्त ये कि नरसिंहगढ़ में होने वाली अफीम का सारा हिस्सा अंग्रेजों को ही बेचा जाए।
कुँवर ने दोनों ही शर्तों को ठुकराकर मंगल जमादार से कहा कि हमारा संदेश लेकर अंग्रेज अफसरों के पास जाओ और उनसे कहो कि हमारा राज्य स्वतंत्र है, वे कौन होते हैं हम पर हुक्म चलाने वाले ? मंगल जमादार की हिम्मत न हुई वहां जाने की तो कुँवर ने लाला भागीरथ को अंग्रेजों के पास भेजकर अपनी बात कहलवाई।
इस समय सीहोर में 1 हज़ार अंग्रेज सैनिकों की पलटन मौजूद थी। कुँवर चैनसिंह की सेना में 43 सैनिक होना बताया जाता है, परन्तु वास्तविक संख्या 200-300 के आसपास थी। अपने से 4-5 गुना बड़ी फ़ौज से लड़ने में कुँवर व उनके साथियों ने ज़रा भी संकोच नहीं दिखाया, जबकि अंग्रेज पलटन बंदूकों और तोपों जैसे आधुनिक हथियारों से लैस थी।
अंग्रेजों की तोपों और बंदूकों का सामना कुँवर ने अपनी तलवार से घंटों तक किया। कुँवर चैनसिंह की तलवार का एक करारा वार अष्टधातु की एक तोप पर लगा, जिससे तोप कुछ कट गई और तलवार उसमें फंस गई। मौके का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने उन पर वार किए और कुँवर वीरगति को प्राप्त हुए।
राजकुमार चैनसिंह जी 24 वर्ष की आयु में 24 जुलाई, 1824 ई. को अंग्रेजों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। ये 1857 की क्रांति के 33 वर्ष पूर्व की घटना थी, इसलिए कुँवर जी को इस अंचल का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कहा जाता है।
राजकुमार चैन सिंह जी परमार के साथ इस लड़ाई में दीवान खुमाण सिंह, ईश्वर सिंह, लक्ष्मण सिंह, रतन सिंह, गोपाल सिंह, बख्तावर सिंह, बदन सिंह, हम्मीर सिंह, मोती सिंह, केसरी सिंह, कोक सिंह, श्याम सिंह, रूगनाथ सिंह आदि योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए।
शिवनाथ सिंह राजावत, तरवर सिंह राजावत, प्रताप सिंह गौड़, मोकम सिंह सगतावत, बख्तावर सिंह सगतावत, उम्मेद सिंह सोलंकी, प्यार सिंह सोलंकी, गज सिंह सींदल, गुमान सिंह, मोहन सिंह राठौड़, अखे सिंह चंद्रावत आदि कई राजपूत योद्धा भी वीरगति को प्राप्त हुए।
इस लड़ाई में हिम्मत खां, बहादुर खां, उजीर खां, खलील खां, रुस्तम आदि मुस्लिम योद्धा भी राजकुमार का साथ देते हुए काम आए। गुसाई चिमनगिरि, पैडियो, बखतो नाई, सुखराम दास, देवो, सुभान, मायाराम आदि अन्य जाति के योद्धा भी काम आए।
कुंवर चैन सिंह ने कुंवरानी राजावत जी से विवाह किया था, जो कि मुवालिया ठिकाने की थीं। इन कुंवरानी ने कुँवर चैन सिंह की याद में परशुराम सागर के निकट एक मंदिर बनवाया, जो कुंवरानी जी के मंदिर के नाम से जाना जाता है। कुंवरानी राजावत जी ने अपने पति के देहांत के बाद अन्न का त्याग कर दिया।
सिंढायच बुधसिंह नामक एक कवि ने राजकुमार चैनसिंह की वीरता पर मुग्ध होकर एक गीत लिखा, जिसमें उन्होंने अंग्रेजों से हुई लड़ाई का वीर रस के द्वारा वर्णन किया। उन्होंने राजकुमार चैनसिंह की तुलना राजकुमार के पूर्वज खुमाणसिंह से की।
राजकुमार चैनसिंह का बलिदान कितना महत्वपूर्ण था, इस बात का पता इसी बात से चलता है कि उनके शौर्य की प्रशंसा प्रसिद्ध राष्ट्रीय स्तर के कवि बूंदी के सूर्यमल्ल मिश्रण ने की है। उन्होंने डिंगल शैली में राजकुमार के शौर्य का वर्णन किया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)