वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप (भाग – 14)

प्रसिद्ध क्रांतिकारी केसरीसिंह जी बारहठ ने मेवाड़ के महाराणा प्रताप व आमेर के राजा मानसिंह के बीच संवाद को काल्पनिक तरीके से पेश किया है, इसलिए कृपया इसे ऐतिहासिक सत्य न मानें।

हमारे विचार से इस संवाद को समझना आसान है, परन्तु फिर भी हमने कहीं कहीं अनुवाद किया है। यह संवाद कुछ इस तरह है :-

राजा मानसिंह :- लाभ-हानि को विचार मैं न लावत हो, एसो हट नाहक ही कैसे झेल राख्यो है। महारान ज्ञानी व्है अज्ञानी की सी बात करो, केवल स्वतंत्रता में कह मेल राख्यो है।।

अर्थात आप लाभ हानि का विचार नहीं करते। आप ज्ञानी होकर अज्ञानी सी बात करते हैं। केवल स्वतंत्रता में क्या रखा है ?

महाराणा प्रताप :- प्यारी है स्वतंत्रता सबै ही जीव धारिन को, छोरि कर याको मैं तो मन बहलाऊँ ना। व्है के परतंत्र तीन लोक को न राज चाहों, काहू के डराए हू तै दिल दहलाऊँ ना।

कुँवर मानसिंह कछवाहा

देवन के देव एकलिंग है हमारे नाथ, ताके अतिरिक्त सीस काहे पे नमाऊँ ना। हार जाऊं समर उजार जाऊं देस, देह डारी जाऊं तोऊ जमीदार कहलाऊँ ना।

अर्थात स्वतंत्रता सभी जीवों को प्यारी होती है, इसे छोड़कर मैं अपना मन नहीं बहलाऊंगा। मुझे 3 लोक का राज नहीं चाहिए पर किसी के डराने से अपना दिल दहलाऊंगा नहीं।

एकलिंग जी के अतिरिक्त किसी के समक्ष अपना सिर नहीं झुकाउंगा। चाहे अपना देश, अपने प्राण ही क्यों न हार जाऊं पर मुगल दरबार में ज़मीदार कहलाऊंगा नहीं।

(मुगल दरबार में मुगल अधीनस्थ राज्यों के राजा उपस्थित रहते थे, उस समय हो सकता है उनमें से कइयों को राय, राजा आदि की उपाधि मिली हुई होती, लेकिन उन्हें उस राज्य का मालिक न कहकर, ज़मीदार कहकर ही सम्बोधित किया जाता था।)

गोगुन्दा के मायरा में स्थित महाराणा प्रताप की गुफा व शस्त्रागार

राजा मानसिंह :- सम्पत्ति हमारी है सलाम करिवे की रान। जिनकी सलाम बीच सम्पत्ति को धाम है। जिनकी सलाम ही ते भूपन के भूप होत, जिनकी सलाम ते जहान बीच नाम है।

जिनकी सलाम ते असाध्य सोउ साध्य होत, जिनकी सलाम ते सधे न कौन काम है। नाहक ही ऐसा हट आप गहि लीजै नाहिं, एक बैर कीजे पातशाह सौ सलाम है।

महाराणा प्रताप :- कैसे तुर्क चर्णन में तेगन धरत भूप, बदन झुकाय कैसे सीस को नमावे है ? करत सलाम जात कैसे है विलोम गति, पीछी चौबदार कैसे लूम पकरावे है ?

कैसे करबद्ध होय आमखास रहे खरे, कैसे महिपाल अधोदृष्टि से रहावे है ? कहा करे मान ! हम सदा ते असिक्षत है, ऐसी सभ्यता से वंदे करणो न आवे है।

अर्थात जिस प्रकार मुगल दरबार में मुगल अधीनस्थ राजागण बादशाह को सलाम करते हैं और इसी मुद्रा में बिना पीठ दिखाए पीछे पीछे जाते हैं,

जिस प्रकार वे मुगल दरबार में हाथ बांधे खड़े रहते हैं, हे राजा मानसिंह, मैं तो सदा से अशिक्षित हूँ, क्योंकि ऐसी सभ्यता से प्रणाम करना तो मुझे आता ही नहीं।

महाराणा प्रताप

राजा मानसिंह :- अकबर पातसाह भारत के भूपन को, दासता की जकर जंजीर जरि दीने है। जापे भयो कोप को कटाच्छ जवनेश जुको, ताके घर संजमनी बीच भर दीने है।

कैते नृप सीस आसमान सों अराय रहें, धाय धाय चर्णन में शस्त्र धर दीने हैं। आपको बिगारवे की बात है कितीक रान ? बड़े-बड़े साहन को मात कर दीने है। अर्थात अकबर भारत के नरेशों को दासता की जंजीर में जकड़ देगा।

जिन राजाओं के सिर गुरुर से आसमान को छूते थे, उन्होंने भी अपने शस्त्र चरणों में समर्पित कर दिए हैं। उसने बड़े बड़े सुल्तानों को मात दी है, तो आपको परास्त करना उसके लिए क्या बड़ी बात है ?

महाराणा प्रताप :- भीलन की पल्लीन में फिरत रहोंगो सदा, कुटी में रहोंगो महलात में रहोंगो ना। खावत रहोंगो बैल पात गिरी कन्दरन, पारतन्त्र व्यंजन को पावत रहोंगो ना।

कूरम, विधर्मिन को दास हों रहोंगो ना, मैं तो तुर्क हाथ व्है के दच्छन रहोंगो ना। जाति व्है रहोंगो मैं विजाति व्है रहोंगो कहा ? मात व्है रहोंगो मातहत व्है रहोंगो ना।

महाराणा प्रताप

अर्थात भीलों की पालों में फिरता रहूंगा, कुटिया में रहूंगा, महलों में रहूंगा नहीं। कंदमूल खाउंगा पर दूसरों के अधीन रहकर व्यंजन खाऊंगा नहीं। स्वयं के अधीन रहूंगा पर दूसरों के अधीन रहूंगा नहीं।

राजा मानसिंह :- भारत के भूप सब साह के अधीन भए, छत्रिन की जाति मग आपको गहेगी ना। दिल्लीश्वर की क्रोध की अग्नि बीच, बनि के पतग देह आपनी दहेगी ना।

केवल स्वतंत्रता के कारण विलासिता को, छोरि कर कष्ट नेक कबहू सहेगी ना। रान श्री प्रताप यह डावरे सी बात करो, रावरे रखेते ही स्वतंत्रता रहेगी ना।

महाराणा प्रताप :- भारत के भूपति स्वतंत्रता चहे न चहे, नवरोजा जार कर्म कबहू सहेंगे ना। सीसवद वन्स होय जनानी अवारी अग्र, हूरम हजूर मह पैदल बहेगे ना।

दास के समान आम खास में खरे ही खरे, रेसम की लूम रास हमको गहेगे ना। फलचर कहेंगे, वनचर कहेंगे लोग, बनचर कहेंगे, अनुचर कहेंगे ना।

* अगले भाग में महाराणा प्रताप को संधि हेतु मनाने के लिए अकबर द्वारा भेजे गए राजा भगवानदास कछवाहा व राजा टोडरमल के संधि प्रस्तावों का विस्तृत वर्णन किया जाएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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