महाराणा प्रताप के राज्याभिषेक के समय 1572 ई. में मेवाड़ की स्थिति :- महाराणा प्रताप के लिए राजगद्दी काँटों की सेज साबित हुई। इस समय मेवाड़ के चित्तौड़गढ़, मांडलगढ़, जहांजपुर, रायला, बदनोर, बागोर आदि क्षेत्रों पर मुगल आधिपत्य स्थापित हो चुका था।
मेवाड़ की राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। मेवाड़ उत्तर, पूर्व और पश्चिम में तीन ओर से मुगलों से घिरा हुआ था। मेवाड़ की केवल दक्षिण व दक्षिण-पूर्वी सीमा ही मुगल प्रभाव से मुक्त थी।
यहां तक कि मेवाड़ में भी कुछ जगह ऐसी थी, जहां के राजपूत अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाना चाहते थे। 1568 ई. में हुए युद्ध में मेवाड़ के बेहतरीन योद्धा वीरगति को प्राप्त हो चुके थे।
अकबर को भी अपने विस्तृत साम्राज्य में मेवाड़ के छोटे से प्रदेश का स्वतन्त्र अस्तित्व असहनीय था। इसलिए महाराणा प्रताप ने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए कुछ कदम उठाए।
“सिरोही की लड़ाईयां” :- इसी वर्ष सिरोही में राव सुरताण देवड़ा व बीजा देवड़ा में उत्तराधिकार संघर्ष शुरु हुआ, जिसमें बीजा देवड़ा ने सिरोही पर कब्जा कर लिया।बीजा देवड़ा को सिरोही पर राज करते हुए 4 महीने हो गए।
महाराणा प्रताप ने अपने भांजे राव कल्ला देवड़ा (बीसलपुर व बागसीन के जागीरदार, राव मेहजल के पुत्र व सिरोही राव जगमाल के पौत्र) को सिरोही का राजतिलक व फौज देकर सिरोही पर कब्जा करने भेजा।
राव कल्ला देवड़ा के सिरोही पहुंचने पर बीजा देवड़ा बिना लड़े ही चला गया और सिरोही पर राव कल्ला का कब्जा हुआ। कुछ समय बाद बीजा देवड़ा 250 सवारों समेत सिरोही पर चढ़ आया। राव कल्ला देवड़ा ने 500 सवारों समेत देवड़ा रावत हामावत को लड़ने भेजा।
इस लड़ाई में राव कल्ला के 40 राजपूत काम आए व 6 घायल हुए। (मुंहणौत नैणसी के अनुसार इस लड़ाई में राव कल्ला पराजित हुए, पर ये सही नहीं है क्योंकि इस लड़ाई के बाद भी सिरोही पर राव कल्ला का कब्जा बना रहा)।
बीजा देवड़ा सिरोही पर कब्जा न कर पाया, तो उसने अपने शत्रु राव सुरताण से हाथ मिला लिया। राव सुरताण और बीजा देवड़ा की फौजें मिल गईं, फिर भी इनको लगा कि कल्ला देवड़ा से जीतना अब भी मुश्किल है।
तब इन्होंने अफगान शासक जालौर के नवाब मलिक खां से फौजी मदद मांगी। राव सुरताण व बीजा देवड़ा ने मलिक खां को 1 लाख के धन व सिरोही के 4 परगने (सियाणा, बडगांव, लोहियाणा, डोडियाल) देकर 1500 पठानों की फौज मंगवाई।
इस तरह राव सुरताण, बीजा देवड़ा व मलिक खां की फौजे मिल गईं और सिरोही की तरफ बढने लगे। कल्ला देवड़ा की फौज में कुछ मेवाड़ी वीर व शेष कल्ला देवड़ा की खुद की फौज थी। गांव कालन्दरी से एक कोस दूर लड़ाई हुई, जिसमें कल्ला देवड़ा पराजित हुए।
कल्ला देवड़ा की तरफ से वीरगति पाने वाले योद्धा :- चीबा पत्ता, मुकुन्ददास सिसोदिया, श्यामदास सिसोदिया, दलपत सिसोदिया।
कल्ला देवड़ा पराजित होकर जोधपुर चले गए। राव सुरताण ने सिरोही पर कब्जा किया और वहां मौजूद कल्ला देवड़ा की अन्त:पुर की स्त्रियां कल्ला देवड़ा के पास जोधपुर भिजवा दीं गईं।
महाराणा प्रताप ने कल्ला देवड़ा को सिरोही भेजकर राव सुरताण से शत्रुता मोल ली थी, पर जब महाराणा को पता चला कि राव सुरताण भी मुगल विरोधी हैं, तो महाराणा प्रताप ने राव सुरताण से मित्रता की। इस वक्त राव सुरताण की उम्र ज्यादा नहीं थी।
कन्नड़ साहित्य में महाराणा प्रताप :- महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित कई पुस्तकें कन्नड़ भाषा में लिखी गई हैं।
वासुदेवय्या द्वारा लिखित ‘आर्यकीर्ति’ ग्रंथ में महाराणा प्रताप के जीवन का हृदयस्पर्शी चित्रण किया गया है। मिटीजी ने ‘राणा प्रतापसिंह’ नामक नाटक की रचना की, जिसे कर्नाटक में बहुत प्रसिद्धि मिली।
कर्नाटक के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार लि. वे. गलगनाथ ने महाराणा प्रताप के समस्त जीवन को उपन्यास के रूप में प्रस्तुत किया। ‘राणा प्रतापसिंह उपन्यास’ सारे कर्नाटक में लोकप्रिय हुआ।
सा. शि. मरुलय्या ने ‘राणा’ नामक नाटक की रचना की। इसके अलावा भी कन्नड़ भाषा में महाराणा प्रताप पर कई पुस्तकें लिखी गईं।
कर्नाटक के नेता कर्नाटक कुल पुरोहित आलूर वेंकटराव ने कर्नाटक के एकीकरण की लड़ाई में महाराणा प्रताप के आदर्श को अपनाया और इस बात को उन्होंने अपने लेखों में लिखा।
चारण कवि दुरसा आढा जी द्वारा रचित दोहा :- “कलजुग चले न कार, अकबर मन आंजस युहीं। सतजुग सम संसार, परगट राण प्रतापसी।।”
अर्थात कलयुग रूपी अकबर के मन में हर्ष वृथा है क्योंकि संसार में जब तक सत्ययुग रूपी महाराणा प्रतापसिंह विद्यमान हैं, तब तक अकबर की मर्यादा नहीं बढ़ेगी।
* अगले भाग में महाराणा प्रताप की छप्पन और मन्दसौर विजय व महाराणा के भाई जगमाल व शक्तिसिंह के मुगल सेवा में जाने के बारे में लिखा जाएगा
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (मेवाड़)
चिबावत देवड़ा होने पर बहुत गर्व है