19 मार्च, 1569 ई. :- अकबर ने कहा “कल ईद है और अगर कल भी सुर्जन हाडा बाहर आकर हमारी ताबेदारी कुबूल नहीं करेगा, तो कल ही रणथम्भौर बर्बाद होगा”
अकबर की तरफ से आमेर के राजा भगवानदास ने दुर्ग में जाकर राव सुर्जन हाडा को मुगल अधीनता स्वीकार करने की सलाह दी। राजा भगवानदास ने राव सुर्जन से कहा कि जब “चित्तौड़ जैसे किले को शहंशाह ने फतह कर लिया, तो इस किले की क्या बिसात”
20 मार्च, 1569 ई.
राव सुर्जन हाडा ने अपने पुत्रों दूदा व भोज को किले से बाहर भेजकर बादशाही ताबेदारी कुबूल की। इसी वक्त सामन्तसिंह हाडा को ये नागवार गुजरा, तो उन्होंने तलवार निकाली। राजा भगवानदास के एक सिपहसालार बीपकदास ने सामन्तसिंह को फटकार लगाई।
अबुल फजल लिखता है “वह गुस्से वाला राजपूत तलवार लेकर शाही दौलतखाने की तरफ दौड़ा। उस राजपूत ने पुरणमल समेत 2-3 शाही सिपहसालारों को जख्मी कर दिया। उसने शहंशाह के डेरे के अन्दर खड़े बहाउद्दीन मजजूब के दो टुकड़े कर दिए। आखिरकार मुजफ्फर खां के एक आदमी ने उस राजपूत का कत्ल किया”
इस वाकिये से अकबर काफी हैरान हुआ, पर उसने राव सुर्जन हाडा के पुत्रों को इस घटना के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया। अकबर ने दूदा व भोज को खिलअत वगैरह इनायत की।
22 मार्च, 1569 ई.
राव सुर्जन हाडा स्वयं दुर्ग से बाहर निकले और किले की चाबियाँ अकबर को सौंपते हुए मुगल अधीनता स्वीकार की। दोनों तरफ से कुछ शर्तें तय हुईं, जो इस तरह हैं :-
* मुगलों की तरफ से शर्तें :- (1) राव सुर्जन हाडा या उनके बड़े पुत्र को शाही दरबार में हाजिरी देनी होगी। (2) बूंदी को रणथम्भौर किले के बदले 52 परगने दिए जाएंगे।
* बूंदी की तरफ से शर्तें :- (1) बूंदी को मुगलों से वैवाहिक सम्बन्धों के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। (2) बूंदी सदैव मेवाड़ के राणा की दुहाई मानता रहेगा, इस खातिर जब भी आप (अकबर) मेवाड़ के खिलाफ किसी अभियान में हमला करने के लिए फौज भेजें, तो उसमें हम हाडा राजपूतों को शामिल न किया जावे।
* राव सुर्जन हाडा ने अकबर से कहा कि मैं इस किले में 3 दिन और रहकर यहां के बन्दोबस्त करना चाहता हूं, तब तक दूदा व भोज आपके पास ही रहेंगे। अकबर ने ये बात मान ली और 3 दिन बाद राव सुर्जन हाडा ने दुर्ग बादशाही सिपहसालार मेहतर खां को सौंप दिया।
* अगले दिन अकबर ने रणथम्भौर दुर्ग में प्रवेश किया और फिर वह अजमेर चला गया। इस तरह बूंदी, रणथंभौर आदि क्षेत्र सदा सदा के लिए मेवाड़ से पृथक हो गए।
(रणथम्भौर का युद्ध समाप्त)
1570 ई. :- बादशाही हमलों से तंग आकर महाराणा उदयसिंह कुम्भलगढ़ पधारे व फिर से सैनिकों की नई भर्ती प्रारम्भ की। कुम्भलगढ़ से फौज समेत वे गोगुन्दा पधारे। 1560 ई. में महाराणा उदयसिंह ने गोगुन्दा को भविष्य में राजधानी चुनने के मकसद से कुछ निर्माण कार्य करवाए थे। 1570 ई. में महाराणा उदयसिंह ने गोगुन्दा को मेवाड़ की राजधानी घोषित की।
“अकबर का नागौर दरबार” :- इसी वर्ष नवम्बर-दिसम्बर में अकबर ने नागौर दरबार रखा, जहां राजपूताने के कई शासक उपस्थित हुए, पर महाराणा उदयसिंह ने इसमें भाग नहीं लिया।
इस दरबार में जितने भी शासक थे, सभी ने बादशाही मातहती कुबूल की, पर मारवाड़ के राव चन्द्रसेन भरे दरबार से उठकर चले गए और जंगलों में प्रवेश किया। मारवाड़ भले ही अकबर के अधीन था, पर राव चन्द्रसेन का स्वाभिमान जीवित था।
नागौर दरबार में मारवाड़ के मोटा राजा उदयसिंह, बीकानेर के कल्याणमल, जैसलमेर के हरराय समेत कईं शासकों ने मुगल अधीनता स्वीकार की। नागौर में मालवा के बाज बहादुर ने अकबर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।
“अकबर को खटकता मेवाड़”
अकबर ने चित्तौड़ विजय के 2 वर्ष बाद एक जश्न रखा।इस जश्न में एक दिलचस्प वाक्या हुआ। अकबर नशे में धुत होकर खुद को मेवाड़ के राजपूतों की तरह बहादुर बताते हुए अपनी तलवार अपने ही सीने में घोंपने लगा।किसी की हिम्मत नहीं कि अकबर को उसका हाथ पकड़ कर रोक सके।
तभी आमेर के कुँवर मानसिंह दौड़ते हुए आए और अकबर को झटका दिया। इस झटके से अकबर की तलवार दूर जा गिरी, लेकिन तलवार से अकबर का अंगूठा थोड़ा कट गया। इस बात से अकबर को कुँवर मानसिंह पर बड़ा क्रोध आया।
1571 ई. :- अकबर ने आमेर के राजा भारमल को महाराणा उदयसिंह के पास सन्धि प्रस्ताव लेकर भेजा, पर महाराणा उदयसिंह ने इसे अस्वीकार किया। इसी वर्ष महाराणा उदयसिंह ने गोगुन्दा में दशहरे का उत्सव मनाया।
* इसी वर्ष अकबर ने आगरा के स्थान पर फतेहपुर सीकरी को अपनी राजधानी बनाई
* अगले भाग में महाराणा उदयसिंह जी द्वारा जारी किए गए ताम्रपत्रों, महाराणा उदयसिंह जी के देहांत का वर्णन किया जाएगा
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
Good jankari ये सची ithas ko पढ़कर दिल dub गया