महाराणा फतहसिंह का बाठरड़ा पधारना :- महाराणा फतहसिंह बाठरड़ा पधारे, जहां के राव दलेलसिंह के पुत्र कुंवर मदनसिंह सारंगदेवोत की मदद से महाराणा ने भेड़का (स्थानीय नाम भड़का) के पहाड़ में एक शेरनी का शिकार किया।
महाराणा ने प्रसन्न होकर कुंवर मदनसिंह को सोने के तोड़े, घोड़ा, सिरोपाव व राव दलेलसिंह को घोड़ा, सिरोपाव भेंट किए।
1913 ई. – देलवाड़ा का उत्तराधिकार मसला :- देलवाड़ा के सरदार झाला मानसिंह के निसंतान देहांत होने पर उनके चाचा विजयसिंह ने गद्दी का दावा किया। विजयसिंह कोटा रियासत में स्थित कोनाड़ी में गोद गए थे।
महाराणा फतहसिंह ने उनका दावा मंज़ूर न किया। महाराणा ने बड़ी सादड़ी के राजराणा रायसिंह के भाई जवानसिंह के पुत्र जसवंतसिंह झाला को देलवाड़ा की गद्दी पर बिठाया।
महकमा खास में नई नियुक्तियां :- इन्हीं दिनों जोधपुर के रावबहादुर पंडित सुखदेव प्रसाद और मेहता जगन्नाथ सिंह को महकमा खास की जिम्मेदारी सौंपी गई। 4-5 वर्ष बाद सुखदेव प्रसाद अपने पद से इस्तीफा देकर जोधपुर लौट गए।
1917 ई. – जागीरें गिरवी रखने पर रोक :- मेवाड़ के बहुत से सरदार महाजनों से कर्ज़ लेते और जागीरें गिरवी रख देते, जिससे कई बार कर्ज़ जमा न करवाने पर महाजन लोग जागीरों की आमदनी हड़प जाया करते थे। महाराणा फतहसिंह ने मेवाड़ में आदेश जारी करके जागीरें गिरवी रखने पर रोक लगा दी।
गोद लेने की परंपरा पर रोक :- इसी वर्ष महाराणा ने एक और आदेश जारी करके भोमियों पर बिना राज आज्ञा के गोद लेने की परंपरा पर रोक लगा दी। (सामंतों पर यह रोक पहले से थी)
1918 ई. – इन्फ्लूएंजा का प्रकोप :- यूरोप में इन्फ्लूएंजा का रोग फैला, जो धीरे-धीरे हिन्दुस्तान में भी फैल गया। अक्टूबर, 1918 ई. में यह रोग उदयपुर में भी फैल गया।
मेवाड़ में यह रोग शहर व गांवों के साथ-साथ पहाड़ियों की चोटियों पर बनी भीलों की झोंपड़ियों तक भी पहुंच गया, जिससे हज़ारों लोगों की मृत्यु हो गई।
13 नवम्बर, 1918 ई. – आसींद ठिकाने को खालसा करना :- आसींद के रावत रणजीतसिंह चुंडावत का निसंतान देहांत होने पर महाराणा फतहसिंह ने आसींद ठिकाना अपने अधिकार में ले लिया और ठकुरानी के निर्वाह के लिए रकम तय कर दी।
महकमा खास में नई नियुक्ति :- सुखदेव प्रसाद द्वारा इस्तीफा देने के बाद महाराणा फतहसिंह ने दीवान बहादुर मुंशी दामोदरलाल को नियुक्त किया। एक साल के बाद दामोदरलाल ने भी इस्तीफा दे दिया।
1920 ई. – बिजोलिया, बेगूं समेत मेवाड़ में कई जगह किसान आंदोलन व महाराणा द्वारा कार्यभार अपने पुत्र को सौंपना :- मेवाड़ के भीतर ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल ले जाने के लिए चुंगी कर (टैक्स) देना पड़ता था।
इस व्यवस्था के लिए हर गांव में अहलकार का होना मुमकिन नहीं था, इस ख़ातिर व्यापारियों को बहुत दिक्कत आने लगी और किसान लगान से परेशान थे। लगान के अलावा मेवाड़ में जंगली सूअरों की अधिकता थी, जिस वजह से किसानों की खेती को काफी नुकसान पहुंचता था।
मेवाड़ में यह आदेश कई वर्षों से चला आ रहा था कि प्रजा को जंगली सूअरों का शिकार करने का अधिकार नहीं है, इस ख़ातिर किसान उन सूअरों को नुकसान नहीं पहुंचा सके। मेवाड़ महाराणा का सामंतों पर अधिक प्रभाव न रहा, जिससे सामंत किसानों से मनचाहा लगान लेने लगे।
सबसे पहले बिजोलिया के किसानों ने आंदोलन शुरू किया और लागतें देना बंद कर दिया। बिजोलिया किसान आंदोलन भारत का प्रथम व्यापक व शक्तिशाली किसान आंदोलन था, जो कि 1897 ई. में ही प्रारंभ हो चुका था।
1906 ई. में साधु सीताराम दास, फतहकरण चारण व ब्रम्हदेव ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। 1916 ई. में इस आंदोलन का नेतृत्व मशहूर क्रांतिकारी विजयसिंह पथिक ने संभाला।
महाराणा फतहसिंह ने इसकी जांच करवाने के लिए एक कमीशन तैयार की, लेकिन कोई फायदा न हुआ और आंदोलन बढ़ता ही गया। बेगूं, अमरगढ़, पारसोली, बसी, चित्तौड़, कपासन, सहाड़ा, राशमी आदि इलाकों में भी असंतोष फ़ैल गया।
1921 ई. में बेगूं के सरदार और किसानों में मुठभेड़ हो गई। किसानों ने मातृकुंडिया में एकत्र होकर तय किया और 1 हज़ार किसान उदयपुर राजमहलों में फरियाद लेकर आए, जहां किसानों को समझाया गया पर तसल्ली न हुई।
नाहरमगरे के पास महाराणा के 2 अधिकारियों पर किसानों ने हमला कर दिया। 1922 ई. में एजेंट गवर्नर जनरल रॉबर्ट हॉलैंड व बिजोलिया के किसानों के बीच बातचीत हुई और बहुत सी लाग-बागों को समाप्त कर दिया गया।
महाराणा फतहसिंह की आयु 71 वर्ष हो चुकी थी और चौतरफा मेवाड़ में असंतोष फैल रहा था, तो महाराणा को लगा कि उनके ही शासन में कोई कमी रह गई है, तो उन्होंने मुख्य अधिकार अपने हाथ में रखकर शेष समस्त कार्यभार अपने पुत्र महाराजकुमार भूपालसिंह को सौंप दिए।
28 जुलाई, 1921 ई. से राजकाज का कार्य महाराजकुमार भूपालसिंह करने लगे। महाराणा फतहसिंह के समय में महाराजकुमार द्वारा किए गए सुधार कार्यों का हाल महाराजकुमार के इतिहास में ही लिखा जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)