मेवाड़ की क्षत्राणियों का इतिहास :- मेवाड़ के इतिहास में क्षत्राणियों ने भी साहस व भक्ति से इतिहास रचा है। आज उन क्षत्राणियों का संक्षिप्त इतिहास यहां लिखा जा रहा है।
महारानी पुष्पावती ने 6ठी सदी में एक पुत्र को जन्म दिया, जो गुहिल नाम से प्रसिद्ध हुए व मेवाड़ के गुहिल वंश के संस्थापक कहलाए। 10वीं सदी में मेवाड़ के रावल भर्तृभट्ट द्वितीय ने राष्ट्रकूट वंश की राजकुमारी महालक्ष्मी से विवाह किया था।
इनके पुत्र रावल अल्लट ने हूण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया था। कहते हैं कि मेवाड़ के प्रसिद्ध सहस्रबाहु मंदिर के निर्माण में महारानी महालक्ष्मी व रानी हरियादेवी का विशेष योगदान था।
राजकुमारी हरियादेवी ने हर्षपुर नामक गाँव भी बसाया। 13वीं सदी में मेवाड़ के रावल तेजसिंह की रानी जयतल्ल देवी ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में पार्श्वनाथ का एक भव्य मंदिर बनवाया था।
1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण के समय रावल रतनसिंह की रानी पद्मिनी ने हजारों क्षत्राणियों के साथ जौहर करके अपने सतीत्व व गौरव की रक्षा की थी।
रावल रतनसिंह के सामन्त राणा लक्ष्मणसिंह के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर अरिसिंह ने खमनौर के निकट ऊनवा गांव की एक चंदाणा चौहान राजपूतानी की वीरता और साहस से प्रभावित होकर उनसे विवाह किया था।
इन्होंने एक जंगली सूअर को क्षण भर में मार गिराया था। इन्होंने ही महाबलशाली पुत्र वीर हम्मीर को जन्म दिया था। महाराणा लाखा का विवाह मारवाड़ की राजकुमारी हंसाबाई राठौड़ से हुआ था।
रानी हंसाबाई ने मेवाड़ और मारवाड़ की राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लिया था व इस राजनीति को काफी हद तक प्रभावित किया था। इन्हीं के पुत्र मोकल मेवाड़ के अगले महाराणा हुए।
झीलवाड़ा के निकट जब महाराणा मोकल के खेमे पर शत्रुओं ने अचानक हमला कर दिया, तब महारानी हाड़ी ने तलवार निकाली और 5 शत्रुओं को मारकर वीरगति पाई।
महाराणा कुम्भा की पुत्री रमाबाई ने साहित्य, शिल्प व संगीत के क्षेत्र में बड़ा नाम कमाया। रमाबाई ने जावर में विष्णु मंदिर, रामकुंड, कुंभलगढ़ में दामोदर मंदिर व एक सरोवर का निर्माण करवाया।
महाराणा रायमल की रानी श्रृंगार देवी राठौड़ ने घोसुंडी की बावड़ी का निर्माण करवाया। महाराणा सांगा पर उनकी रानी कर्णावती का प्रभाव था। रानी कर्णावती ने महाराणा सांगा से अपने पुत्रों विक्रमादित्य व उदयसिंह के लिए रणथंभौर जैसी बड़ी जागीर दिलवाई थी।
गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह के चित्तौड़ आक्रमण के दौरान रानी कर्णावती ने एक बार तो यह युद्ध टाल दिया, परन्तु दूसरी बार बहादुरशाह ने आक्रमण किया, तब रानी कर्णावती ने हजारों क्षत्राणियों के साथ जौहर कर अपने सतीत्व की रक्षा की।
कहते हैं कि महाराणा विक्रमादित्य की रानी जवाहर बाई इस युद्ध में वीरता से लड़ी थीं। महाराणा सांगा की पुत्रवधू मीराबाई जी ने अपनी कृष्ण-भक्ति से अपना नाम युगों-युगों तक अमर कर दिया।
पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान करके बनवीर से कुँवर उदयसिंह के प्राणों की रक्षा की। महाराणा उदयसिंह की रानी सज्जाबाई ने प्रहलादराय जी का मंदिर बनवाया व रानी वीरबाई ने झालीबाव नामक बावड़ी बनवाई।
महाराणा उदयसिंह की महारानी जयवंता बाई ने अपने पुत्र में ऐसे गुणों का संचार किया, जिससे वे केवल महाराणा नहीं, वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के नाम से प्रसिद्ध हुए।
1568 ई. में अकबर के आक्रमण के दौरान चित्तौड़गढ़ दुर्ग में रावत पत्ता चुंडावत की रानी फूल कंवर के नेतृत्व में सैंकड़ों क्षत्राणियों ने जौहर किया।
महाराणा प्रताप की महारानी अजबदे पंवार ने महाराणा के साथ सभी कष्टों को वहन किया और जीवनभर उनका उत्साहवर्धन करती रहीं। अपने पिता व भाइयों के हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति प्राप्त होने के बावजूद भी अजबदे बाई जी विचलित नहीं हुईं और संघर्ष के मार्ग को सहर्ष अपनाया।
महाराणा प्रताप व महाराणा अमरसिंह के शासनकाल में मेवाड़ के रनिवास को भी कई बार जंगलों में कष्ट सहन करने पड़े, लेकिन उन्होंने भी अपने स्वाभिमान के साथ कभी समझौता नहीं किया।
किशनगढ की राजकुमारी चारूमति राठौड़ से विवाह करने के लिए औरंगज़ेब ने किशनगढ के राजा पर दबाव डाला, तब राजकुमारी ने एक खत मेवाड़ के महाराणा राजसिंह को लिखा।
इस खत में महाराणा के पूर्वजों के गौरव व कृष्ण-रुक्मिणी विवाह की बातें लिखी, जिन्हें पढ़कर महाराणा राजसिंह औरंगज़ेब के खिलाफ जाते हुए किशनगढ आए और राजकुमारी से विवाह करके उन्हें मेवाड़ ले गए।
महाराणा राजसिंह के शासनकाल में जब औरंगज़ेब ने मेवाड़ पर अपनी सेनाएं भेजीं, तब महाराणा ने सभी सामन्तों को सेना सहित हाजिर होने का आदेश दिया।
सलूम्बर के रावत रतनसिंह चुंडावत को यह संदेश मिला, तब उन्हें अपनी नवविवाहिता हाड़ी रानी को छोड़कर जाने का मन न हुआ। रानी से कहा कि कोई निशानी भेजो, ताकि युद्ध के समय तुम्हारी याद आए, तो उसे देखकर अपना मन हल्का कर सकूं।
हाड़ी रानी ने अपना सिर काटकर भिजवा दिया और इतिहास में ऐसा अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया, जिससे सभी को संदेश जाता है कि मातृभूमि प्रेम सदैव व्यक्तिगत प्रेम से बढ़कर माना जाए।
महाराणा राजसिंह की रानियों ने मेवाड़ में बावड़ियों का निर्माण करवाकर जल संरक्षण की उपयोगिता सिद्ध की। 1708 ई. में मेवाड़ की राजकुमारी चंद्रकुंवरी बड़ी प्रसिद्ध हुई, क्योंकि उनका विवाह आमेर के राजा सवाई जयसिंह से करवाया गया।
मेवाड़ और जयपुर रियासतों के बीच एकता के उद्देश्य से यह विवाह हुआ, परन्तु समस्त राजपूताने के लिए अभिशाप बन गया और भविष्य में मराठों के राजपूताने में प्रवेश का कारण बना।
महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय की माता बाईजीराज देव कंवर ने उदयपुर के सीसारमा में वैद्यनाथ का बड़ा सुंदर मंदिर बनवाया। मेवाड़ की राजमाताओं ने समय-समय पर अनेक चांदी और स्वर्ण के तुलादान करवाए और कई मंदिर व बावड़ियां बनवाकर प्रसिद्धि पाई।
1810 ई. में राजकुमारी कृष्णाकुमारी की हत्या मेवाड़ के इतिहास की बड़ी ही दुःखद घटना है, जब जयपुर-जोधपुर रियासतों में कृष्णाकुमारी से विवाह को लेकर विवाद हुआ,
जिसमें पिंडारियों ने भी दखल दिया और इन सबका अंत कृष्णाकुमारी को ज़हर का प्याला देकर किया गया। इस ज़हर को कृष्णाकुमारी ने बिना कोई प्रश्न किए पी लिया और अपने प्राण त्याग दिए।
इस प्रकार मेवाड़ की क्षत्राणियों ने कभी अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर किए, तो कभी तलवार से शत्रुओं का संहार किया। कभी मंदिर व बावड़ियां बनवाकर शिल्प कला में रुचि दिखाई, तो कभी साहित्य व संगीत में अपना योगदान दिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
krishana kumari vivad 1807 me hua tha bhai sahab. Please thoda ek bar fir se gor kijiyega.