राजपूतों के गुण व अवगुण

राजपूतों के गुण व अवगुण :- राजपूतों में दो विशेष गुण ऐसे हैं, जिनका पालन प्राचीनकाल से होता रहा। ये गुण हैं मातृभूमि प्रेमस्वामिभक्ति। राजपूताने में ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलते हैं, जहां मातृभूमि व स्वामी (शासक) की ख़ातिर अनेकों बलिदान दिए गए।

यहां तक कि यदि कोई स्वामी के साथ अभद्रता कर देता या विरोध करता, तो उस पर कलंक का टीका लग जाता। अन्य दरबारी उसे हीनभावना से देखते व उस पर लानत करते।

स्वामिभक्ति के प्रसिद्ध उदाहरणों की बात की जाए, तो मारवाड़ के वीर दुर्गादास राठौड़ का नाम सबसे पहले आएगा, जिन्होंने महाराजा अजीतसिंह को मारवाड़ की राजगद्दी दिलाने के लिए 30 वर्षों तक संघर्ष किया।

मेवाड़ के महाराणा अरिसिंह ने सलूम्बर रावत जोधसिंह चुंडावत को विष वाला पान दिया, तो रावत ने बिना कोई प्रश्न किए वह पान खाकर अपने प्राण त्याग दिए।

वीर दुर्गादास राठौड़

सुमेलगिरी के युद्ध से राव मालदेव चले गए, तब उनके बहादुर सामन्तों ने ऐसा युद्ध लड़ा कि जिसे आज तक लोग याद करते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर शासक भी सामन्तों के सम्मान का बड़ा ध्यान रखते थे व नित नए उपहारों व सौंपे गए कार्यों से उनका उत्साहवर्धन करते थे।

राजपूतों में सच्चाई का गुण रहा, जो भी कहते, सामने कहते। वीरता और कौशल के लिए उन्हें आज भी सम्मान से याद किया जाता है।

जिन कबीलाई क्षेत्रों पर राजपूतों ने अपना अधिकार जमाया, वहां पहले सिर्फ कबीले वासी रहते थे। परन्तु राजपूतों ने अलग-अलग जातियों के लोगों को वहां लाकर बसाया, जिनसे पीढ़ी दर पीढ़ी समाज का विकास होता रहा।

राजपूत काफी कला प्रेमी रहे, चाहे साहित्य, संगीत हो, नृत्य या चित्रकला, राजपूतों ने सदा ही इन कलाओं से सम्बन्धित कलाकारों को बड़े सम्मान के साथ आश्रय दिया।

राजपूत अपने वचन के पक्के होते थे और उस वचन को पूरा करने के लिए हरसंभव प्रयास करते थे। कई बार राजपूत अपने शत्रु को मारने या फिर किसी आपसी झगड़े में किसी को मारने का प्रण लेते, तो वह प्रण उनके या फिर उनके शत्रु के प्राण लेने के साथ ही समाप्त होता।

राजपूत शरण में आए हुए शरणार्थियों की सदा रक्षा करते थे, चाहे इसके लिए सर्वस्व ही क्यों न लुटाना पड़े। इसके लिए रणथंभौर के वीर हम्मीरदेव चौहान से बेहतर उदाहरण भला क्या मिलेगा।

वीर हम्मीरदेव चौहान

राजपूतों के अवगुणों की बात की जाए, तो आपसी झगड़ों में उलझना उनका प्रमुख अवगुण था। हालांकि ऐसा नहीं है कि यह अवगुण केवल राजपूतों में ही था। इस अवगुण का शिकार खिलजी, मुगल, मराठा सभी हुए थे।

राजपूतों के लिए जो नियम व गुण सदियों से चले आ रहे थे, उनमें 16वीं सदी में गिरावट आनी शुरू हुई। यह मुगल बादशाह अकबर के शासनकाल से शुरू हुआ, जब उसने भेदनीति से राजपूतों की रियासतों को एक-एक करके अपनी तरफ मिलाना शुरू किया।

शुरुआत में उसने भेदनीति से रियासतों को जीता, जो रियासतें फिर भी शामिल नहीं हुईं, उन्हें बल से जीतने के प्रयास किए। जो रियासतें फिर भी शामिल नहीं हुईं, उन्हें बेरहमी से कुचलने के प्रयास किए गए। गोंडवाना और मेवाड़ में अत्याचार शुरू करवाए गए।

हालांकि इस दौर में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप, राव चन्द्रसेन, राय नारायणदास राठौड़, रानी दुर्गावती, राव सुरताण देवड़ा, राव दूदा हाड़ा आदि ने लंबे समय तक अकबर की सेनाओं का सामना किया।

महाराणा प्रताप, राव चन्द्रसेन व रानी दुर्गावती ने तो अंतिम श्वास तक मुगल अधीनता स्वीकार न करके स्वतंत्रता और स्वाभिमान के वो उदाहरण प्रस्तुत किए, जिन्हें यह देश युगों-युगों तक स्मरण रखेगा।

राजपूतों में एकता का अभाव रहा। हालांकि ऐसे अवसर भी आए, जब राजपूतों ने एक झंडे के नीचे आकर शत्रुओं का सामना किया। सम्राट पृथ्वीराज चौहान, महाराणा सांगा आदि का नेतृत्व सभी ने स्वीकार किया।

वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप

आज भी लोग राजपूतों को एकता की कमी का दोष देते हैं, लेकिन वास्तविकता ये है कि वर्तमान हिंदुस्तान में जितनी एकता की कमी है, उतनी तो उस दौर में भी नहीं थी। आज हिंदुस्तान न केवल धर्म, बल्कि जातियों और गोत्रों तक भी इतना बंट गया है कि हर तरफ एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी है।

राजपूतों में एक बदलाव आया पुराने गढ़ों को छोड़कर नए राजमहलों में रहने के बाद। राजमहल, जिन्हें वर्तमान में सिटी पैलेस कहा जाता है। ये महल सभी सुख-सुविधाओं से पूर्ण थे व धीरे-धीरे आमोद-प्रमोद का साधन बनते गए। इस बदलाव की शुरुआत भी 16वीं सदी से ही हुई।

डॉ. ओझा जैसे कई इतिहासकारों ने बहुविवाह को अवगुण बताया है, लेकिन यह प्रथा केवल राजपूतों में ही नहीं, अन्य शासकों में भी प्रचलित थी।

इसे अवगुण इसलिए कहा गया, क्योंकि छोटे पुत्र की माता उसे राजगद्दी पर बिठाने के लिए प्रपंच करती थीं, जिससे गृहयुद्ध की जड़ें जमती थीं। राज्यों के लिए गृहयुद्ध होना तो सदियों से प्रचलन में रहा और सभी शासक वर्ग में समय-समय पर ऐसे युद्ध होते रहे।

हालांकि वर्तमान में राजतंत्र के गृहयुद्धों को दोष देना आसान है, परन्तु इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि वर्तमान में हर तीसरा घर घरेलू व जमीन जायदाद के झगड़ों में उलझा हुआ है।

पुराने समय में राजपूतों में शराब का प्रचलन नहीं था। अफीम, मदिरा आदि का प्रचलन था भी तो केवल विशेष अवसरों या युद्ध आदि के पहले अफीम वग़ैरह के सेवन करने के रिवाज स्वरूप था, वह आदतन नहीं था।

लेकिन वर्तमान समय में यह राजपूतों का सबसे बड़ा अवगुण है। राजपूतों को यदि वर्तमान में अपने वर्चस्व, अपने सम्मान व गौरव को बचाए रखना है, तो इस अवगुण से पार पाना होगा।

विशेष अवसरों पर यदि शराब का सेवन होता है, तो वह फिर भी आपके अवगुण का हिस्सा नहीं रहेगा, परन्तु आदत बनने के बाद आप स्वयं ही नहीं, सम्पूर्ण परिवार को ले डूबेंगे।

विशेष अवसरों, जैसे विवाह अवसरों आदि में भी जब शराब का सेवन किया जा रहा हो, तब इस बात का ध्यान रखें कि महापुरुषों की वीरता से ओतप्रोत संगीत ना सुनें और ना बजाएं, क्योंकि ऐसा हुआ तो ये उन वीर पुरुषों का अपमान होगा।

राजपूतों को चाहिए कि वे अपने गुणों को पहचानें और अवगुणों से पार पाने के प्रयास करें। आपसी झगड़ों से दूर रहें और यदि हों तो उन्हें आपसी समझौते से सुलझाएं।

विशेष अवसरों पर सभी से मिलते-जुलते रहें व किसी अन्य गोत्र या वंश आदि पर इतिहास की किसी बात को लेकर छींटाकशी से बचें। जय राजपूताना, जय मातृभूमि।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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