मेवाड़ के इतिहास में पुरोहित राम के घराने का योगदान :- जब अजमेर के सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय का देहांत हुआ, तब उनके पुरोहित रणथंभौर चले गए और वीर हम्मीरदेव चौहान के समयकाल तक उन पुरोहित के वंशज वहीं रहे।
वीर हम्मीर के देहांत के बाद चौहानों ने इटावा, मैनपुरी, गुजरात आदि की तरफ प्रस्थान किया। इस समय पुरोहित भी उनके साथ चले गए। 1527 ई. में मुगल बादशाह बाबर और मेवाड़ के महाराणा सांगा के बीच खानवा का भीषण युद्ध हुआ।
तब राजोर के स्वामी माणिकचंद चौहान अपने 4 हज़ार सैनिकों सहित महाराणा सांगा के ध्वज तले लड़ने आए। इस समय माणिकचंद के साथ उनके पुरोहित वागीश्वर भी थे। माणिकचंद चौहान व पुरोहित वागीश्वर ने खानवा के युद्ध में वीरगति पाई।
माणिकचंद चौहान के वंशजों को कोठारिया ठिकाना जागीर में दिया गया और वागीश्वर के वंशज इस ठिकाने में पुरोहित रहे। जब मेवाड़ की राजगद्दी पर दासीपुत्र बनवीर बैठ गया, तब कोठारिया के रावत खान चौहान ने बनवीर का साथ छोड़कर महाराणा उदयसिंह का साथ दिया।
इस समय महाराणा उदयसिंह ने कोठारिया के पुरोहित नरू (वागीश्वर के पौत्र) के दूसरे पुत्र पुरोहित राम को अपना विश्वासपात्र बनाया। इस समयकाल से राम व उनके वंशज पुरोहिताई छोड़कर मेवाड़ महाराणाओं की सेवा में रहने लगे।
महाराणा उदयसिंह ने एक ताम्रपत्र जारी करके राम को ओडा नामक गाँव भेंट किया, परन्तु वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के शासनकाल में मुगलों से हुए गोगुन्दा के युद्ध के दौरान राम का ताम्रपत्र खो गया।
इस युद्ध के बाद 29 अक्टूबर, 1577 ई. को महाराणा प्रताप ने नया ताम्रपत्र जारी करके पुरोहित राम व उनके पुत्र भगवान और काशी को ओडा नामक गाँव भेंट किया। भगवान के प्रपौत्र सुखदेव हुए।
महाराणा जगतसिंह के शासनकाल में सुखदेव महाराजकुमार कर्णसिंह की सेवा में रहते थे। जब महाराणा कर्णसिंह का राज्याभिषेक हो गया, तब उन्होंने सुखदेव को अरड़क्या नामक गाँव भेंट किया और कर्णपुर में भी भूमि भेंट की।
सुखदेव के पुत्र जगन्नाथ हुए, जो कि महाराणा जयसिंह के समकालीन थे। महाराणा जयसिंह ने जगन्नाथ व उनके भाइयों को अलग-अलग गांव भेंट किए। महाराणा जयसिंह और महाराजकुमार अमरसिंह के बीच संघर्ष शुरू हुआ।
तब पुरोहित जगन्नाथ ने पिता-पुत्र के बीच में मेल कराने के लिए वीर राठौड़ दुर्गादास व गोपीनाथ राठौड़ का साथ दिया। इस बात से महाराणा जयसिंह बड़े प्रसन्न हुए।
जिस समय महाराणा जयसिंह घाणेराव में थे, तब उन्होंने 3 फरवरी, 1692 ई. को पुरोहित जगन्नाथ को निकोड़ नामक गाँव भेंट किया। 19 जून, 1695 ई. को महाराणा जयसिंह ने जगन्नाथ को लालवास नामक गाँव भेंट किया।
जगन्नाथ के पुत्र दीनानाथ हुए, जो कि महाराणा जगतसिंह द्वितीय के समकालीन थे। महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने दीनानाथ को जहाजपुर का हाकिम नियुक्त कर दिया।
जब महाराणा अरिसिंह मेवाड़ के शासक बने, तब उन्होंने पुरोहित दीनानाथ के कार्यों से प्रसन्न होकर 3 जनवरी, 1766 ई. को उनको केसर व पदराड़ा नाम के 2 गांव भेंट किए।
महाराणा अरिसिंह के शासनकाल में निकोड़ नामक गाँव पुरोहित के हाथों से निकल गया। दीनानाथ के पौत्र रामनाथ हुए, जो कि महाराणा भीमसिंह के समकालीन थे।
जब मराठों व पिंडारियों ने मेवाड़ में उपद्रव मचाया, तब महाराणा भीमसिंह ने अपने पुत्र कुँवर अमरसिंह को चित्तौड़गढ़ की रक्षार्थ भेजा। इस समय कुँवर अमरसिंह के साथ पुरोहित रामनाथ भी थे।
महाराणा भीमसिंह डूंगरपुर के रावल जसवंतसिंह से काफी नाराज थे। पुरोहित रामनाथ ने यह नाराज़गी मिटा दी, जिससे डूंगरपुर रावल ने 1818 ई. में रामनाथ को बीजावरु नामक गाँव भेंट किया।
कर्नल जेम्स टॉड व महाराणा भीमसिंह पुरोहित रामनाथ के कार्यों से काफी प्रसन्न हुए और निकोड़ नामक गांव पर फिर से रामनाथ का अधिकार करवा दिया। 1822 ई. में महाराणा भीमसिंह ने पुरोहित रामनाथ को एक हाथी, सोने के लंगर व उमण्ड नामक एक गांव भेंट करना चाहा।
रामनाथ ने उमण्ड गांव को लेना स्वीकार किया, परन्तु हाथी व सोने के लंगर नहीं लिए। रामनाथ ने महाराणा से कहा कि आप इनके बदले उदयपुर में बड़ी पोल के बाहर एक सदाव्रत की स्थापना करें।
(सदाव्रत :- सदाव्रत अनाज के कोठार को कहते थे, जहां से गरीबों को या फिर अकाल आदि दुर्भिक्ष के समय प्रजा को मुफ्त अनाज बांटा जाता था)
महाराणा भीमसिंह ने रामनाथ का प्रस्ताव स्वीकार करके सदाव्रत की स्थापना कर दी। जब महाराणा जवानसिंह मेवाड़ के शासक बने, तब उन्होंने मेवाड़ की आमद खर्च की जांच करने के लिए 3 लोगों की एक समिति गठित की, जिनमें से एक रामनाथ भी थे।
रामनाथ के 2 पुत्र हुए :- श्यामनाथ व प्राणनाथ। प्राणनाथ के पुत्र अक्षयनाथ हुए। अक्षयनाथ के पुत्र सुंदरनाथ, सरुपनाथ व शोभानाथ हुए। रामनाथ के देहांत के बाद उनका कार्य उनके पुत्र श्यामनाथ को सौंपा गया।
1832 ई. में महाराणा जवानसिंह ने श्यामनाथ को जालिमपुरा नामक गाँव भेंट किया। 1832 में महाराणा जवानसिंह भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक से मिलने अजमेर गए थे, तब श्यामनाथ भी उनके साथ थे।
1833 ई. में महाराणा जवानसिंह गयाजी की यात्रा हेतु गए थे, तब श्यामनाथ को भी अपने साथ ले गए थे। महाराणा स्वरूपसिंह ने श्यामनाथ के कार्यों से प्रसन्न होकर 6 अप्रैल, 1847 ई. को उनको ओवरां गांव भेंट किया।
1850 ई. में महाराणा सरदारसिंह की पुत्रियों के विवाह कोटा व रीवां के राजघरानों में हुए थे। इन विवाहों में पुरोहित श्यामनाथ ने ही मध्यस्थता की थी। इस कारण कोटा व रीवां के महाराजाओं ने श्यामनाथ को पुरस्कार दिए।
जब महाराणा स्वरूपसिंह व सामन्तों के बीच मतभेद हुए, तब इस झगड़े को मिटाने के लिए राजपूताने का ए.जी.जी. सर हेनरी लॉरेंस नीमच गया। नीमच में विरोधी सरदार भी सलूम्बर रावत केसरीसिंह के नेतृत्व में एकत्र हुए।
इस समय महाराणा की तरफ से श्यामनाथ को भी भेजा गया था। एक बार महाराणा स्वरूपसिंह ने अनैतिक रूप से श्यामनाथ से धन वसूला था, जिस कारण श्यामनाथ नाराज़ होकर ईडर चले गए।
ईडर के शासक ने उनको सम्मान सहित अपने यहां रखा। जब महाराणा स्वरूपसिंह का देहांत हो गया, तब सर हेनरी लॉरेंस ईडर जाकर श्यामनाथ को मनाकर उदयपुर ले आया।
जब महाराणा शम्भूसिंह नाबालिग थे, तब वे ईर्ष्यालु लोगों के बहकावे में आ गए। श्यामनाथ स्पष्टवक्ता और सच्चे स्वामिभक्त थे, इसलिए उन्होंने इन लोगों का विरोध किया, जिसके फलस्वरूप श्यामनाथ को उदयपुर छोड़कर जाना पड़ा।
महाराणा शम्भूसिंह को दुर्व्यसनों में फंसा दिया गया, लेकिन जब उनकी आंखें खुलीं, तब उन्होंने श्यामनाथ को पुनः उदयपुर बुलवाया और कहा कि “तुम्हारी नेक सलाह न मानने और स्वार्थी लोगों के जाल में फंस जाने से ही मेरी तंदुरुस्ती बर्बाद हुई, यदि तुम मेरे पास बने रहते, तो कभी ऐसा न होता।”
पुरोहित श्यामनाथ ने अपने अंतिम दिनों में सन्यास ग्रहण करके शरीर छोड़ा। श्यामनाथ के पुत्र पद्मनाथ हुए, जो कि महाराणा सज्जनसिंह के समकालीन थे। इस समय पद्मनाथ को इजलासखास, महद्राजसभा व देशहितकारिणी सभा का सदस्य बनाया गया।
महाराणा फतहसिंह के शासनकाल में पुरोहित पद्मनाथ को वाल्टर कृत राजपूत हितकारिणी सभा का सदस्य बनाया गया। पद्मनाथ के 3 पुत्र हुए :- शंभुनाथ, मथुरानाथ व देवनाथ।
इस प्रकार पुरोहित राम के घराने ने कई पीढ़ियों तक मेवाड़ के प्रति अपनी निष्ठा सिद्ध की। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)