मारवाड़ के राव वीरम राठौड़ (शासनकाल 1374 ई. से 1383 ई. तक) :- राव वीरम मारवाड़ के प्रसिद्ध लोकदेवता रावल मल्लीनाथ जी के छोटे भाई थे। राव वीरम के पिता राव सलखा थे।
राव वीरम के भाई मल्लीनाथ जी ने उनको 7 गांवों समेत गुढ़ा की जागीर दी थी। गुढ़ा महेवा के पास ही स्थित है। गुढ़ा में राव वीरम की ऐसी धाक थी कि यदि कोई महेवा में अपराध करके गुढ़ा में शरण लेता, तो कोई भी उस अपराधी को पकड़ नहीं पाता।
राव वीरम द्वारा जोइया दल्ला को शरण देना :- जोइया दल्ला नामक एक व्यक्ति अपने भाइयों से लड़कर गुजरात चला गया। गुजरात में कई दिन गुजारने के बाद वहीं ब्याह भी कर लिया और फिर लौटकर महेवा की तरफ आया।
महेवा में उसने एक कुम्हार के घर डेरा डाला और कुम्हार की पत्नी से कहा कि किसी नाई को बुला ले आ, बाल बनवाने हैं। कुम्हारिन नाई को बुला लाई। नाई की नज़र तेज़ थी, उसने देखा कि इस व्यक्ति की घोड़ी अच्छी है, इसके पास पैसा भी है, इसकी पत्नी भी सुंदर है, लगता है कोई विशेष व्यक्ति है।
नाई ने महेवा के राव जगमाल के पास जाकर कहा कि कोई धनवान लुटेरा कुम्हार के घर डेरा डाले बैठा है। राव जगमाल राव मल्लीनाथ के पुत्र व राव वीरम के भतीजे थे। राव जगमाल ने अपने गुप्तचर भेजे और पता लगवाया कि वह कौन है।
कुम्हार को अंदेशा हुआ, तो उसने जोइया दल्ला से कहा कि तुम पर हमला होने वाला है। दल्ला ने कहा कि क्या किसी तरह बचाव हो सकता है ? कुम्हार ने कहा कि अगर गुढ़ा चले जाओ, तो राव वीरम तुम्हारी रक्षा करेंगे।
जोइया दल्ला तो गुढ़ा चले गए, पीछे से राव जगमाल के सैनिक कुम्हार के यहां आए, तो पता चला कि राव वीरम ने उन्हें शरण दी है। 5-7 दिन तक राव वीरम के यहां रहने के बाद जोइया दल्ला ने वहां से विदा ली और कहा कि मैं जीवनभर आपका आभारी रहूंगा।
राव वीरम का संघर्ष :- राव मल्लीनाथ के पौत्रों व राव वीरम के बीच आए दिन झगड़े होते थे, जिनसे पिंड छुड़ाकर राव वीरम जैसलमेर चले गए। कुछ दिन वहां ठहरकर नागौर गए। नागौर पर इस समय मुसलमानों का कब्ज़ा था। राव वीरम नागौर में गांवों को लूटने लगे।
राव वीरम कुछ समय तक वरिया नामक पर्वत के पास वीरमपुर नामक गाँव बसाकर रहे थे। फिर वहां से सेतरावा की तरफ गए। इसके बाद कुछ दिन चूंटीसरा गांव में जाकर रहे। यह गांव नागौर में था।
यहां राव वीरम ने मुसलमानों के एक काफिले को लूट लिया, जिससे मुसलमान उनको मारने के लिए आतुर हुए। जब राव वीरम को लगा कि अब यहां भी रहना मुश्किल है, तो वे जांगलू में सांखला ऊदा मूलावत के यहां गए। दरअसल, अपने मुश्किल समय में सांखला ऊदा को राव वीरम ने शरण दी थी।
इसी उपकार को याद करके ऊदा मूलावत ने राव वीरम से कहा कि “मुझमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि मैं आपको शरण दे सकूं, आप आगे बढिए, लेकिन इतना विश्वास दिलाता हूं कि नागौर का मुसलमान हाकिम आपसे बदला लेने के लिए यहां आया, तो मैं उसको रोक दूंगा।”
राव वीरम जोइयावाटी चले गए। जब नागौर के हाकिम ने ऊदा मूलावत पर चढ़ाई करके उनको कैद किया और पूछा कि “बता वीरम कहाँ है ?” ऊदा ने कहा कि “मेरे पेट में है, निकाल लो।”
हाकिम ने ऊदा की माता को बुलाया और कहा कि “वीरम का पता बता, वरना तेरे बेटे की खाल निकलवाकर भूसा भरवाऊंगा।” ऊदा की माता ने कहा कि “वीरम इसकी खाल में नहीं, पेट में है, पेट चीरकर निकाल लो।”
ये सुनकर हाकिम बड़ा खुश हुआ और अपने साथियों से बोला कि “देखो, राजपूतानियों का बल, कैसी निधड़क होती हैं”। हाकिम ने ऊदा को कैद से छोड़ा और राव वीरम की कार्रवाइयों को नज़रंदाज़ करके नागौर लौट गया।
राव वीरम का हावी होना :- राव वीरम जोइयावाटी में बेखौफ रहने लगे। वे किसी भी तरह से चाहते थे कि कैसे खुद को शक्तिशाली बनाया जावे। जोइयों ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया था। लेकिन राव वीरम उन पर ही हावी होने लगे।
ख्यातों के अनुसार जोइये पहले राजपूत थे, पर गुजरात के मुसलमानों ने इनका धर्म परिवर्तन करवा दिया। जोधपुर की ख्यात में लिखा है कि वीरमजी अत्यंत उद्दंड थे, हर एक काम बिना विचारे कर बैठते थे।
राव वीरम द्वारा भाटी बुक्कण को मारना :- आभोरिया भाटी बुक्कण इन जोइयों का मामा लगता था और दिल्ली के सुल्तान का खास था। सुल्तान से उसको तरह-तरह के गलीचे, गदेले, वस्त्राभूषण आदि मिलते थे।
ये सुनकर राव वीरम ने बुक्कण के यहां जाकर कहा कि हमें भोजन नहीं परोसोगे ? भोजन तैयार हुआ, तो राव वीरम ने धोखे से बुक्कण को मार डाला और सारा माल, घोड़े वगैरह छीन लिए।
जोइयों व राव वीरम के बीच हुई लड़ाई :- अब जोइयों के लिए भी राव वीरम का हावी होना असहनीय होता जा रहा था। 5-7 दिन बाद एक ढोल बनवाने के लिए राव वीरम ने फरास का पेड़ कटवा डाला, जो जोइयों को सहन न हुआ।
अति तब हुई, जब राव वीरम ने जोइया दल्ला को ही मारने का विचार किया। दल्ला को षड्यंत्र से मारने के लिए अपने पास बुलाया, लेकिन राव वीरम की पत्नी ने दल्ला को अपना मुंहबोला भाई बना रखा था।
जब दल्ला एक गाड़ी में बैठकर आ रहा था, जिसके एक तरफ घोड़ा व दूसरी तरफ बैल जुता हुआ था। दल्ला को राव वीरम की पत्नी का एक संकेत मिला। संकेत रूप में एक पानी के लोटे में उल्टा दातून डाला गया था, जिससे वो समझ गया कि दगा होने वाला है।
ये सुनकर दल्ला ने अपने चाकर को तो वहीं छोड़ा और खुद गाड़ी लेकर कुछ दूर तक जाकर गाड़ी से उतरा और घोड़े पर सवार होकर जंगल की तरफ चला गया। जब राव वीरम अपने आदमियों समेत वहां पहुंचे, तो मालूम हुआ कि दल्ला तो जंगल की तरफ चला गया है।
दल्ला के जाने से राव वीरम को पता चल गया कि दल्ला को षड्यंत्र का आभास हो गया है और अब जोइयों का हमला जरूर होगा। अगले ही दिन जोइयों ने राव वीरम की गायों को घेर लिया।
ग्वाले ने आकर राव वीरम को सूचना दी, तो राव वीरम अपने सभी साथियों के साथ लड़ने पहुंचे। दोनों पक्षों में हुई जोरदार लड़ाई में राव वीरम ने जोइया दल्ला को मार दिया, लेकिन घावों के चलते खुद भी वीरगति को प्राप्त हुए।
किसी ख्यात में यह घटना कुछ अलग तरह से लिखी गई है कि जोइये शुरू से ही राव वीरम से ईर्ष्या करते थे, लेकिन दल्ला जोइया अपने पर किए हुए उपकारों को याद करके राव वीरम की सहायता करता था।
जोइये इस बात से नाराज़ होकर दल्ला को ही मारना चाहते थे, उसे मारने के लिए चढ़ाई की, तब राव वीरम ने दल्ला को बचाने के लिए जोइयों से लड़ाई लड़ी और वीरगति पाई।
राव वीरम राठौड़ ने 17 अक्टूबर, 1383 ई. में लखवेरा गांव में वीरगति पाई। बीकानेर के गजनेर गांव के एक चबूतरे पर स्थित देवली में राव वीरम के देहांत की तिथि उत्कीर्ण है।
अगले भाग में राव वीरम के पुत्रों के बारे में लिखा जाएगा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)