मेवाड़ के महाराणा कुम्भा भाग – 20

1458 ई. – सुल्तान महमूद खिलजी की मेवाड़ पर 7वीं चढ़ाई :- मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी ने इस बार कुम्भलगढ़ दुर्ग को लक्ष्य बनाया। उसने आहाड़ में पड़ाव डाला और वहां से शहज़ादे गयासुद्दीन को कुंभलगढ़ फ़तह करने भेजा।

महाराणा कुम्भा द्वारा कुम्भलगढ़ को बनवाए हुए कुछ ही समय हुआ था। गयासुद्दीन ने जब कुंभलगढ़ का किला देखा, तो वापिस आहाड़ लौट गया और अपने पिता को दुर्ग की मजबूती से अवगत कराया।

अगले दिन महमूद ने कुंभलगढ़ के नज़दीक जाकर पास की पहाड़ी पर घोड़ा चढ़ाया, तो किला देखकर दंग रह गया और उसे यक़ीन हो गया कि इस किले को फ़तह नहीं किया जा सकता है।

इसलिए महमूद फ़ौज समेत लौट गया। लौटते वक्त उसने डूंगरपुर के महारावल से धन वसूल किया। फिरिश्ता और निजामुद्दीन दोनों ने सुल्तान महमूद खिलजी की कुम्भलगढ़ चढ़ाई की असफलता का वर्णन किया है।

कुम्भलगढ़ दुर्ग

निजामुद्दीन ने तबक़ात-ए-अकबरी में लिखा है कि “जब मालवे का सुल्तान महमूद खिलजी फ़ौज समेत कुम्भलगढ़ पर हमला करने पहुंचा और किले को बाहर से देखा, तो इस नतीजे पर पहुंचा कि सालों तक घेरा डालने के बाद भी इस किले को जीतना मुमकिन नहीं है।”

महमूद बेगड़ा की मेवाड़ पर चढ़ाई :- 1458 ई. में गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन के मरने के बाद अहमदशाह का बेटा दाऊद गद्दी पर बैठा, जो बड़ा निकम्मा व अयोग्य शासक था, इसलिए इसकी जगह फतह खां गद्दी पर बैठा और ख़ुद को ‘महमूद बेगड़ा’ के नाम से मशहूर किया।

1463 ई. में महमूद बेगड़ा ने जूनागढ़ के राजा मंडलीक पर हमला किया। राजा मंडलीक महाराणा कुम्भा की पुत्री रमाबाई के पति थे, इसलिए महाराणा कुम्भा ने राजा मंडलीक की सहायता की, जिससे महमूद बेगड़ा परास्त हुआ।

कुछ समय बाद महाराणा कुम्भा के छोटे भाई खेमा (क्षेमकर्ण), जो महाराणा कुम्भा के विरोधी थे, उन्होंने महमूद बेगड़ा को महाराणा के ख़िलाफ़ भड़काया।

महमूद वैसे ही महाराणा से मिली पराजय को भूला नहीं था, इसलिए उसने मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी। महमूद द्वारा यह चढ़ाई 1463 से 1467 ई. के बीच की गई। इस लड़ाई में महमूद बुरी तरह परास्त होकर गुजरात लौट गया।

1466-1467 ई. – महमूद खिलजी का मेवाड़ पर अंतिम हमला :- मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी ने 8वीं बार फ़ौज समेत मेवाड़ पर चढ़ाई की। वह छप्पन होते हुए कुंभलगढ़ पहुंचा, जहां उसे ज्ञात हुआ कि महाराणा कुम्भा जावर में हैं।

महाराणा को भी ठीक इसी समय ज्ञात हुआ कि सुल्तान कुंभलगढ़ पहुंच चुका है। इसलिए महमूद भारी सामान वहीं सुरक्षित छोड़कर अपने बड़े बेटे शहज़ादे गयासुद्दीन और ताज खां समेत जावर की तरफ़ रवाना हुआ और इसी दौरान महाराणा कुम्भा कुंभलगढ़ के लिए रवाना हुए।

महाराणा कुम्भा

सम्भवतः दोनों के मार्ग अलग-अलग होने के कारण रास्ते में इनका टकराव नहीं हुआ। सुल्तान ने जावर पहुंचकर देवी का मंदिर ध्वस्त किया और फिर कुंभलगढ़ के लिए रवाना हुआ। 16 मार्च, 1467 ई. को महमूद खिलजी कुम्भलगढ़ पहुंचा।

कुंभलगढ़ में महाराणा कुम्भा की फ़ौज से पराजित होने के बाद सुल्तान फ़ौज समेत भागा, लेकिन भारी सामान साथ होने के कारण गति धीमी थी। इसलिए महमूद ने एक फौजी टुकड़ी को भारी सामान सहित उसकी राजधानी की तरफ रवाना कर दिया।

महाराणा कुम्भा को ख़बर मिली कि सुल्तान चित्तौड़ पहुंच गया है, तब महाराणा ने चित्तौड़ की तरफ कूच किया। सुल्तान ने चित्तौड़ पर कोई हमला नहीं किया और अपने वतन लौट गया।

इस पराजय को छिपाते हुए तवारीख मासिर-इ-मोहम्मदशाही में लिखा है कि “राणा ने मालवा की फ़ौज को नुकसान पहुंचाया, पर फ़तह सुल्तान की ही हुई और सुल्तान चित्तौड़ फ़तह करना मुश्किल समझकर लौट गया”

मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी ने भी मेवाड़ फतह करने की ख्वाहिश मन में रखकर ही 1469 ई. में अंतिम श्वास ली अर्थात महाराणा कुम्भा के देहांत के ठीक अगले वर्ष।

महाराणा कुम्भा के युद्धकालीन जीवन का निष्कर्ष :- महाराणा कुम्भा ने मेवाड़ राज्य की सीमाओं का विस्तार किया, कई क्षेत्रों को उन्होंने करदाता बनाकर छोड़ दिया। शेखावाटी, अजमेर, टोडा, नागौर, हाड़ौती आदि क्षेत्रों पर मुसलमानों के दख़ल को महाराणा कुम्भा ने काफी हद तक खत्म करने में सफलता हासिल की।

कई बार महाराणा कुम्भा ने राजपूत राजाओं की सहायता करते हुए उक्त राजाओं के यहां कब्ज़ा किए हुए मुसलमानों को हराया और पुनः उन्हीं राजपूत राजाओं को करदाता बनाकर राज्य सौंप दिया। ये महाराणा कुम्भा की कुशल रणनीति थी।

महाराणा कुम्भा ने जीवनभर मालवा और गुजरात के सुल्तानों से संघर्ष किया। ये दोनों ही सुल्तान महाराणा कुम्भा के राज्य से अधिक शक्तिशाली थे। फिर भी महाराणा कुम्भा ने इनको हर बार परास्त किया।

युद्धरत महाराणा कुम्भा

यह मेवाड़ का सौभाग्य था कि मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी के समकालीन मेवाड़ की गद्दी पर महाराणा कुम्भा जैसे सुयोग्य शासक विराजमान थे, अन्यथा यदि कोई कम योग्य शासक होता तो निश्चित ही महत्वाकांक्षी महमूद खिलजी मेवाड़ को हथिया लेता।

महाराणा कुम्भा युद्धकला व रणनीति में इतने निपुण थे कि उन्होंने अपने जीवन में कभी पराजय का मुंह नहीं देखा। हां, ये सत्य है कि महाराणा कुम्भा के राज्य में कहीं कोई हिस्सा महाराणा की गैरमौजूदगी में शत्रुओं ने जीत लिया हो, परन्तु वह क्षेत्र भी महाराणा पुनः जीत लेते थे।

आमने-सामने की लड़ाई हो या छापामार युद्ध, महाराणा कुम्भा अजेय थे। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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