1437 ई. – सारंगपुर का युद्ध :- गुजरात का सुल्तान अहमदशाह मालवा के किले की घेराबंदी करके बैठा हुआ था, परन्तु किले में मौजूद सुल्तान महमूद खिलजी हार मानने को तैयार नहीं था। दूसरी तरफ महाराणा कुम्भा भी मालवा पर आक्रमण करने के लिए सिहोर तक पहुंच गए थे।
मालवा के किले में बैठे सुल्तान महमूद खिलजी ने एक चाल चली। उसने गुजरात के सुल्तान के कुछ हाकिमों को अपनी तरफ मिला लिया, जिससे उसको गुजरात की सेना व सुल्तान के मंसूबे मालूम होते रहे।
महमूद खिलजी ने एक और चाल चली। वह चाहता था कि सारंगपुर के आसपास गुजरात और मेवाड़ की सेनाएं आपस में मिल न जाएं, वरना मालवा हाथ से निकल जाएगा। दोनों सेनाएं ना मिले, इस ख़ातिर उसने ताज खां और मंसूर खां को नियुक्त किया।
गुजरात व मालवा की सेनाओं के बीच हुआ युद्ध :- महमूद खिलजी आवश्यकतानुसार थोड़ी-थोड़ी फ़ौज को जगह-जगह भेजकर गुजराती फ़ौज से छापामार लड़ाइयां लड़ता रहा। गुजरात के सुल्तान ने अपने बेटे को 5 हज़ार की सेना सहित सारंगपुर की तरफ भेजा। गुजरात का सुल्तान भी घेराबंदी छोड़कर उज्जैन आ गया।
कैथल नामक स्थान पर मालवा और गुजरात की सेनाओं में युद्ध हुआ, जिसमें मालवा वालों ने फतह हासिल की। इस लड़ाई में परास्त होकर गुजराती फ़ौज का सेनानायक मलिक हाजी भागकर उज्जैन गया।
मलिक हाजी ने उज्जैन में गुजरात के सुल्तान अहमदशाह को सारा हाल कह सुनाया। अहमदशाह को घबराहट हुई और उसने अपने बेटे को फ़ौज समेत सारंगपुर से वापिस बुला लिया।
उमर खां व मालवा वालों के बीच हुआ युद्ध :- उमर खां, जो कि महाराणा कुम्भा के साथ था, उसे ख़बर मिली कि गुजरात की फ़ौज सारंगपुर से लौट गई है, तो वह अपनी फ़ौज लेकर भेलसा से रवाना हुआ और सारंगपुर की तरफ गया।
इसी दौरान गुजरात के सुल्तान की भी इच्छा हुई कि वह सारंगपुर की तरफ स्वयं जाए, परन्तु उसकी सेना में प्लेग रोग फ़ैल गया, जिसके कारण वह इस युद्ध से अलग हो गया।
महमूद खिलजी ने उमर खां की सेना के कुछ सैनिकों को बंदी बनाकर उनसे युद्धनीति जान ली। फिर महमूद ने अपनी सेना को 4 भागों में बांट दिया और छापामार तरीके से लड़ने का फैसला किया।
उमर खां महमूद की चाल को नहीं समझ सका, लेकिन फिर भी उसने भागने की बजाय युद्ध में लड़कर मरना उचित समझा। महमूद और उमर खां के बीच हुए इस युद्ध में उमर खां परास्त होकर महमूद के हाथों क़ैद हुआ। महमूद ने उमर खां को मार दिया।
महाराणा कुम्भा व महमूद खिलजी के बीच युद्ध :- आख़िर में महाराणा कुम्भा की फ़ौज सारंगपुर के मैदान में पहुंची। गुजरात के सुल्तान अहमदशाह व उमर खां ने महाराणा कुम्भा के लिए एक काम आसान कर दिया कि इन्होंने मालवा के सुल्तान के कई सैनिकों को पहले ही युद्ध में मारकर महमूद की शक्ति क्षीण कर दी थी।
फिर भी महमूद ने अपनी सेना को तैयार किया और मेवाड़ वालों को कड़ी टक्कर दी। बड़ी सख्त लड़ाई के बाद महमूद भागकर मांडू के किले में चला गया और वहां जाकर उसने महपा पंवार से कहा कि “तुम मांडू छोड़कर फ़ौरन चले जाओ”।
महपा गुजरात की तरफ़ भाग निकला। महाराणा कुम्भा की विजयी फ़ौज ने सारंगपुर नगर को जला दिया। कुछ ग्रंथों में महाराणा कुम्भा द्वारा महमूद खिलजी को बंदी बनाकर चित्तौड़ लाने व 6 माह क़ैद रखकर छोड़ने का उल्लेख है।
मुगल लेखक अबुल फ़ज़ल ने इस घटना पर महाराणा कुम्भा की प्रशंसा की है, जबकि डॉ. ओझा व कर्नल जेम्स टॉड ने इसे हिंदुओं की राजनैतिक अदूरदर्शिता व कुलाभिमान कहा है।
परन्तु इतिहासकार सोमानी जी इस घटना से सहमत नहीं हैं। मुझे भी महमूद को क़ैद करने की घटना अतिश्योक्ति ही लगती है। वास्तव में महाराणा को जब महपा पंवार के भाग जाने की सूचना मिली तो वे मांडू नहीं गए और वहां से पुनः मेवाड़ के लिए रवाना हुए।
सारंगपुर के युद्ध विवरण को ध्यान से पढ़ने पर मालूम पड़ता है कि महमूद खिलजी रणनीति व छापामार युद्ध कौशल में काफी तेज था। वह 3 फ़ौजों के आक्रमण के बावजूद भी विचलित नहीं हुआ।
ऐसे में उसको बन्दी बनाकर मेवाड़ लाना सम्भव नहीं। महमूद खिलजी और महाराणा कुम्भा के बीच संघर्ष जीवनभर चलता रहा। महमूद ने मेवाड़ पर कई आक्रमण किए, जिनका वर्णन आगे के भागों में विस्तार से किया जाएगा।
महाराणा कुम्भा की गागरोन व जानागढ़ विजय :- 1423 ई. में होशंगशाह ने गागरोन दुर्ग जीतकर गजनी खां को सौंप दिया था। गजनी खां ने किले में चारदीवारी बनवाकर इसे मजबूती प्रदान की। उसके पतन के बाद महमूद खिलजी ने यह किला बदर खां को सौंप दिया।
बदर खां गुजरात के सुल्तान के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए मारा गया। फिर यह दुर्ग दिलसद खां को सौंपा गया। मालवा से मेवाड़ लौटते समय महाराणा कुम्भा ने मार्ग में गागरोन दुर्ग पर विजय प्राप्त कर इसे राव प्रहलानसिंह खींची को सौंप दिया।
फिर महाराणा कुम्भा ने जानागढ़ के पर्वतीय दुर्ग (प्रतापगढ़ से 10 मील की दूरी पर स्थित) में तैनात हाकिम को मारकर दुर्ग पर अधिकार किया। इस विजय अभियान में मंदसौर से गागरोन तक का सारा भू-भाग महाराणा कुम्भा के अधीन हो गया।
इस प्रकार महाराणा कुम्भा ने मालवे का बहुत सा क्षेत्र मेवाड़ में मिला लिया। महाराणा कुम्भा के शासनकाल में 1439 ई. में रणकपुर में खुदवाए गए शिलालेख से महाराणा कुम्भा की सारंगपुर युद्ध में विजय का उल्लेख मिलता है।
महाराणा कुम्भा के शासनकाल में 1460 ई. में खुदवाई गई कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में लिखा है कि “महाराणा कुम्भकर्ण ने सारंगपुर की असंख्य मुसलमान स्त्रियों को क़ैद किया, महमूद का महामद छुड़वाया, उस नगर को जलाया और अगत्स्य के समान अपने खड्गरूपी चुल्लू से मालवसमुद्र को पी गया।”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)