अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के बाद रावल रतनसिंह वीरगति को प्राप्त हुए, तब राजपरिवार के सदस्य व सामन्त राणा अजयसिंह ज़ख्मी हालत में बच निकले। इस समय मेवाड़ के वास्तविक उत्तराधिकारी वीर हम्मीर (राणा अजयसिंह के भतीजे) ऊनवा गांव में अपनी माता के साथ गुप्त रूप से रह रहे थे।
राणा अजयसिंह ने वीर हम्मीर को अपने पास बुला लिया। बीमारी के कारण राणा अजयसिंह दिन प्रतिदिन कमज़ोर होते जा रहे थे। अजयसिंह ने खिलजियों से बचाव की ख़ातिर इस वक्त केलवाड़ा को अपना निवास स्थान बना रखा था।
वीर हम्मीर द्वारा मूंजा बालेचा को मारना :- केलवाड़ा पहाड़ी घाटियों के कारण सुरक्षित जगह थी। इन्हीं दिनों गोडवाड़ के स्वामी मूंजा बालेचा ने राणा अजयसिंह को बड़ा तंग किया।
राणा अजयसिंह ने एक बार पहले कभी हुई लड़ाई में मूंजा बालेचा को भाले से जख्मी किया था, तब से ही मूंजा बालेचा ने राणा अजयसिंह को मारने की ठानी थी।
राणा ने अपने पुत्रों सज्जनसिंह व क्षेमसिंह को भेजा, पर कामयाबी न मिली। उदयपुर के भुवाणा गांव के महल को लोग मुंजा बालेचा का महल बताते हैं। वीर हम्मीर ने राणा से कहा कि “आप मुझे आज्ञा दें, उसका सिर आपके चरणों में रख दूंगा।”
ऐसे साहस भरे वचनों को सुनकर राणा अजयसिंह ने आज्ञा दे दी। वीर हम्मीर को पता चला कि इस वक़्त मूंजा बालेचा किसी जलसे में शामिल होने के लिए गोडवाड़ के सेमारी गांव में गया हुआ है।
इन दिनों वीर हम्मीर केलवाड़ा में रहते थे। इस समय उनकी उम्र लगभग 13-14 वर्ष थी, लेकिन शरीर से बहुत मजबूत व दिलेर थे। वीर हम्मीर ने एक सैनिक टुकड़ी लेकर प्रस्थान किया।
लड़ाई के बाद जब वीर हम्मीर लौट रहे थे, तब केलवाड़ा के लोगों ने देखा कि हम्मीर घोड़े पर सवार हैं और उनके भाले की नोक पर मूंजा बालेचा का सिर है। राणा अजयसिंह ने मूंजा बालेचा के रक्त से अपने भतीजे वीर हम्मीर का तिलक किया और कहा कि “आज से मेवाड़ आपका हुआ।”
इससे अजयसिंह के पुत्र सज्जनसिंह व क्षेमसिंह नाराज होकर मेवाड़ से बाहर चले गए। इन दोनों के वंशज सितारा, कोलापुर, सावंतवाड़ी, तंजावर, नागपुर में हैं। सज्जनसिंह जी महाराष्ट्र में घृष्मेश्वर के पास वेरुल चले गए व इन्हीं की 18वीं पीढ़ी में छत्रपति शिवाजी महाराज हुए।
भीलों को परास्त करके सहयोगी बनाना :- 1428 ई. के श्रृंगीऋषि के शिलालेख से ज्ञात होता है कि महाराणा हम्मीर ने पहाड़ी भीलों को परास्त किया। इसके बाद ये भील महाराणा के सहयोगी बन गए।
महाराणा हम्मीर ने गद्दी पर बैठते ही सबसे पहला काम बड़ी समझदारी से किया। महाराणा हम्मीर खिलजियों से चित्तौड़ दुर्ग वापिस लेना चाहते थे, लेकिन इससे पहले प्रजा की सुरक्षा जरूरी थी।
महाराणा हम्मीर ने मेवाड़ के रास्ते, घाटे व नाके बन्द कर दिए और मेवाड़ की प्रजा को बस्तियां छोड़कर पहाड़ों में जाने का आदेश दिया। महाराणा हम्मीर के आदेश का प्रजा पर गहरा असर हुआ। मेवाड़ के लोग जरूरी सामान साथ लेकर पहाड़ों में चले गए।
महाराणा हम्मीर ने छापामार युद्ध प्रणाली अपनाई। खिलजियों के जो सिपाही नगरों में आते, उनको महाराणा हम्मीर के सिपाही मार डालते।
केलवाड़ा को केंद्र बनाना :- महाराणा हम्मीर ने पहाड़ी क्षेत्रों के नियंत्रण हेतु केलवाड़ा को केंद्र बनाया। केलवाड़ा वर्तमान में राजसमन्द जिले में कुंभलगढ़ दुर्ग के निकट स्थित है।
महाराणा हम्मीर ने केलवाड़ा को आबाद कर दिया, यहां लोग खेती करने लगे। महाराणा हम्मीर ने यहां एक तालाब और मंदिर भी बनवा दिए। पहाड़ी इलाका व कई गुप्त रास्ते होने के कारण शत्रु इस पर कब्ज़ा नहीं कर सके।
1313 से 1316 ई. के बीच हुई चित्तौड़ की लड़ाइयां :- अलाउद्दीन खिलजी के बेटे खिज्र खां ने 1303 ई. से 1313 ई. तक लगभग 10 वर्षों तक चित्तौड़ पर राज किया। इसके बाद अलाउद्दीन ने खिज्र खां को किसी कारणवश अल्मोड़ा बुला लिया।
खिज्र खां अपनी फौज चित्तौड़ में तैनात करके अपने कुछ साथियों समेत चला गया। पीछे से महाराणा हम्मीर हावी होने लगे और एक दिन चित्तौड़ के किले पर हमला कर दिया।
तारीख फिरिश्ता में लिखा है कि “सुल्तान अलाउद्दीन ने अपने बेटे खिज्र खां को अल्मोड़ा बुला लिया, जिस वजह से खिज्र खां बादशाही फौज चित्तौड़ के किले में ही छोड़कर अपने बाकी साथियों समेत चला गया। पीछे से
चित्तौड़ के राजपूत हावी हुए और एक दिन उन्होंने बादशाही मुलाज़िमों को हाथ और गर्दन बाँधकर किले से गिरा दिया और किले पर कब्ज़ा कर लिया। इस तरह बुरी खबरें आती गईं और सुल्तान अलाउद्दीन गुस्से में आकर
अपना ही मांस काटने लगा। इस तरह गुस्से और दर्द के कारण सुल्तान की बीमारी बढ़ती गई और उसका इंतकाल हुआ। इस मामले में मलिक काफूर पर भी ज़हर देने का शक किया गया।”
फिरिश्ता का यह कथन असत्य है कि मेवाड़ वालों ने खिलजियों को हराकर चित्तौड़ पर कब्ज़ा कर लिया। वास्तव में महाराणा हम्मीर ने आक्रमण किया अवश्य था, परन्तु इसमें उनकी विजय नहीं हुई थी।
अगले भाग में महाराणा हम्मीर की चित्तौड़ विजय का वर्णन किया जाएगा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)