मेवाड़ का प्रारंभिक इतिहास (भाग – 11)

चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर चालुक्यों का राज :- चालुक्य नरेश कुमारपाल ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर मधुसूदन के पुत्र सोमेश्वर को नियुक्त किया। सोमेश्वर ने चित्तौड़ में वराहप्रासाद का निर्माण करवाया। सोमेश्वर ने इस मंदिर के लिए दूनाड़ा नामक गाँव भेंट किया।

कुमारपाल द्वारा द्यूत पर प्रतिबंध लगाना :- कुमारपाल ने मेवाड़ में प्रचलित द्यूत क्रीड़ा पर प्रतिबंध लगाया। निसन्देह कुमारपाल द्वारा किया गया यह सुधार कार्य प्रशंसनीय है। क्योंकि मेवाड़ के 10वीं सदी के शिलालेखों के अनुसार द्यूत क्रीड़ा मेवाड़ में प्रचलित थी, जिसमें राजा की अनुमति थी।

1159 ई. में कुमारपाल के मंत्री यशपाल द्वारा रचित ‘मोह पराजय’ नाटक में द्यूत के प्रचलन की बातें लिखी हैं। इसके अनुसार कुमारपाल द्वारा कुछ राजाओं व राजाओं के रिश्तेदारों को निर्देश दिए गए कि द्यूत न खेला जाए। मेवाड़ के एक राजकुमार को भी यह निर्देश दिया गया था।

चित्तौड़गढ़ पर चौहानों का अधिकार :- कुमारपाल द्वारा नियुक्त सोमेश्वर कुछ समय तक चित्तौड़ का अधिकारी रहा। उसके बाद सज्जन नामक अधिकारी को वहां नियुक्त किया गया।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

इस समय शाकम्भरी पर चौहान वंश के प्रतापी शासक बीसलदेव का राज था। बीसलदेव ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया और सज्जन को बुरी तरह परास्त करके गढ़ पर अधिकार कर लिया।

रावल रणसिंह (कर्णसिंह) :- इनका इतिहास ग्रंथ वीर विनोद में गलत दर्ज कर लिया गया, जिसकी नकल से वर्तमान में भी कई पुस्तकों में अशुद्धियां पाई जाती हैं। रावल कर्णसिंह ने आहोर के पर्वत पर एक किला बनवाया।

रावल कर्णसिंह के 3 पुत्र हुए :- (1) क्षेमसिंह :- क्षेमसिंह ने 1168 ई. में मेवाड़ वंश की रावल शाखा की स्थापना की। (2) माहप (3) राहप :- राहप ने मेवाड़ वंश की राणा शाखा की स्थापना की।

रावल क्षेमसिंह :- रावल क्षेमसिंह ने मेवाड़ की रावल शाखा प्रारंभ की। इनके 2 पुत्र हुए :- (1) सामंतसिंह, जिनका वंश वागड़ में चला।

रावल क्षेमसिंह

(2) कुमारसिंह :- कुमारसिंह का वंश मेवाड़ के रावल रतनसिंह तक चला। रावल रतनसिंह के वंशजों का कोई वास्तविक वर्णन इतिहास में नहीं मिलता। रावल रतनसिंह के बाद मेवाड़ का शासन “राणा शाखा” के हाथ में आया, जिसका वर्णन मौके पर किया जाएगा।

रावल सामंतसिंह :- ये 1171 ई. के करीब मेवाड़ के शासक बने। रावल सामंतसिंह के 2 शिलालेख मिले हैं, जो कि क्रमशः 1171 ई. व 1179 ई. के हैं।

चालुक्यों को परास्त करना :- चालुक्य शासक कुमारपाल के बाद अजयपाल शासक बने। मेवाड़ के शासक सामंतसिंह व चालुक्य अजयपाल के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में मेवाड़ी फ़ौज ने चालुक्यों को शिकस्त दी।

अजयपाल न केवल पराजित हुए, बल्कि युद्ध में लगे घावों से सख़्त ज़ख्मी भी हुए। चालुक्यों जैसे प्रबल योद्धाओं को परास्त करने के बाद गुहिलों का रुतबा छा गया। परन्तु गुहिलों के लिए अभी समस्याएं थमने वाली नहीं थीं। कुछ समय बाद उन्हें चालुक्यों से पुनः मैत्री करनी पड़ी।

आबू के लूणवसही नेमिनाथ जैन मंदिर की प्रशस्ति के लेखक व सुरथोत्सव काव्य के रचयिता पुरोहित सोमेश्वर ने लिखा है कि

“जब मेवाड़ के सामंतसिंह ने रणक्षेत्र में गुजरात के राजा का बल तोड़ डाला था, तब आबू के परमार राजा धारावर्ष के छोटे भाई प्रहलादन की तलवार ने गुजरात के राजा की रक्षा की। गुजरात के राजा अजयपाल ने अर्धनारीश्वर की आराधना करके अपने घावों की पीड़ा शांत की।”

रावल सामंतसिंह द्वारा वागड़ में राज्य स्थापित करना :- मेवाड़ के सामंतों और रावल सामंतसिंह के बीच किसी बात को लेकर विवाद हो गया, जिससे सामंत नाराज़ हो गए।

इन सामंतों ने गुजरात के राजा व आबू के परमार राजा धारावर्ष के छोटे भाई प्रहलादन की सहायता से सामंतसिंह को पद से ख़ारिज करवा दिया। सामंतसिंह वागड़ चले गए और वहीं अपना राज्य स्थापित किया।

फिर गुजरात के शासक सोलंकी राजा भीमदेव द्वितीय बने। राजा भीमदेव द्वितीय ने वागड़ पर आक्रमण करके सामंतसिंह को परास्त किया, लेकिन वागड़ का प्रदेश सामंतसिंह ने दोबारा जीत लिया।

रावल सामंतसिंह

चौहान राजा कीर्तिपाल द्वारा चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण :- नाडौल के सोनगरा चौहान राजा कीर्तिपाल, जो राजा कीतू चौहान के नाम से भी प्रसिद्ध हैं, उनकी शत्रुता शाकम्भरी के चौहानों से थी।

राजा कीर्तिपाल चौहान ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया और शाकम्भरी के चौहानों को परास्त करके गढ़ पर अधिकार कर लिया।

रावल कुमारसिंह :- ये रावल सामन्तसिंह के भाई थे। रावल कुमारसिंह ने राजनैतिक रूप से बड़ी समझदारी दिखाई और मैत्री संबंधों के ज़रिए अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़े।

1179 ई. में इन्होंने गुजरात के चालुक्य राजा भीमदेव से संधि करके उनकी सहायता से चौहान राजा कीर्तिपाल को पराजित करके मेवाड़ पर पुनः अधिकार किया। सम्भवतः इसी समय चित्तौड़गढ़ दुर्ग भी गुहिलों द्वारा जीत लिया गया।

संधि की शर्त के अनुसार कुमारसिंह ने आहाड़ का राज चालुक्यों को सौंप दिया और शेष मेवाड़ पर कुमारसिंह का अधिकार रहा। आहाड़ पर चालुक्यों का राज होना गुहिलों को खटकता तो था, परन्तु इस समय वे चालुक्यों को परास्त करने की स्थिति में नहीं थे। रावल कुमारसिंह के पुत्र मथनसिंह हुए, जो मेवाड़ के अगले शासक बने।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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