मेवाड़ की राणा शाखा

मेवाड़ की राणा शाखा :- कहते हैं कि मेवाड़ की राणा शाखा की शुरुआत राणा राहप से होती है, लेकिन राणा राहप से लेकर राणा अजयसिंह तक कोई भी मेवाड़ के शासक नहीं हुए, बल्कि मेवाड़ के सामंत थे।

ग्रंथ वीर विनोद में इनको मेवाड़ के शासक लिखकर भूल कर दी गई थी। मेवाड़ की रावल शाखा तो रावल क्षेमसिंह से चली आ रही थी, उसी समय क्षेमसिंह के छोटे भाई राणा राहप मेवाड़ के सामंत रहे।

राणा राहप :- ये रावल कर्णसिंह के छोटे पुत्र थे। ये सिसोदा नामक गाँव में रहते थे। कर्णसिंह ने अपने पुत्र माहप (राहप के बड़े भाई) को आदेश दिया कि मेड़ता के राजा को बंदी बनाकर लाओ।

माहप फौज समेत रवाना हुए, पर ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत हो जाने से मार्ग में ही एक अच्छा स्थान देखकर झरने के पास पड़ाव डाला और कुछ दिन वहीं रुक गए। जब यह समाचार कर्णसिंह को मिला, तो उन्होंने माहप को वापिस बुला लिया और छोटे पुत्र राहप को भेजा।

रावल कर्णसिंह

राहप थोड़े ही दिनों में मेड़ता के राजा को बंदी बनाकर कर्णसिंह के सामने ले आए। कर्णसिंह ने प्रसन्न होकर राहप को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

एक दिन शिकार के लिए राणा राहप ने एक जंगली सूअर पर तीर चलाया, पर वह तीर कपिलमुनि नाम के एक ब्राह्मण को लगा और इनकी मृत्यु हुई।

इस बात से राणा राहप को बड़ी तकलीफ हुई और उन्होंने कुंड वगैरह कई स्थान बनवाए, जो केलवाड़ा के समीप अब तक कपिलमुनि के नाम से मौजूद हैं। राणा राहप ने सहसल पालीवाल को अपना पुरोहित बनाया।

ऊपर लिखित राणा राहप का इतिहास मुहणौत नैणसी की ख्यात से लिया गया है। सम्भव है इसमें कोई त्रुटि हो, क्योंकि नैणसी 17वीं सदी में हुए थे।

शराब से सम्बंधित पुरानी कथा, जिसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है :- मेवाड़ के शासक शराब छूना भी अपने धर्म और परम्परा के विरुद्ध मानते थे। राणा राहप को जब कुष्ठ रोग हुआ था तो वैद्य लोगों ने दवाई में शराब मिलाकर पिला दी, कुछ समय बाद राणा राहप स्वस्थ भी हो गए।

मेवाड़ राजवंश की कुलदेवी मां बायण

बाद में उनको बताया गया कि आपकी दवाई में शराब मिलाई गई थी। राणा राहप ने सेवक से सीसा मंगवाया और उसे आग पर रख दिया। जब वह गल गया, तो उसे मुंह में रख दिया, जिससे उनका देहांत हो गया।

‘सीसा’ नामक धातु और ‘उद’ अर्थात् पीना। इसी कारण जिस गुहिल वंश का नाम बाद में ‘सिसोदिया’ पड़ा। आधुनिक इतिहासकार इस घटना को सत्य नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि राणाओं के ‘सिसोदा’ नामक गाँव में रहने के कारण इस वंश का नाम सिसोदिया पड़ा।

राणा राहप जीवनभर सिसोदा, केलवाड़ा, केलवा आदि मेवाड़ी गांवों में रहे। राणा राहप के बाद के कुछ राणाओं के सिर्फ नाम मिलते हैं, ज्यादा विवरण उपलब्ध नहीं है। ये नाम कुछ इस तरह हैं :-

राणा नरपति, राणा दिनकरण, राणा जशकरण, राणा नागपाल, राणा पूर्णपाल, राणा पृथ्वीपाल, राणा भुवनसिंह।

राणा भुवनसिंह के एक पुत्र चंद्रा के वंशज चंद्रावत सिसोदिया कहलाये, जिनको रामपुरा की जागीर मिली। ‘बांकीदास री ख्यात’ में भूलवश चंद्रा को महाराणा हम्मीर का भाई बता दिया गया है, जो कि गलत है।

राणा भुवनसिंह के बाद क्रमश: राणा भीमसिंह, राणा जयसिंह व राणा लक्ष्मणसिंह हुए। राणा लक्ष्मणसिंह रावल रतनसिंह के समय मेवाड़ के प्रमुख सामंत थे। राणा लक्ष्मणसिंह के 9 पुत्र हुए, जिनमें से 7 पुत्र अलाउद्दीन खिलजी से हुई लड़ाई में काम आए।

राणा लक्ष्मणसिंह के 9 पुत्र :- (1) अरीसिंह :- अरीसिंह के पुत्र महाराणा हम्मीर हुए। अलाउद्दीन की फौज से लड़ाई में अरीसिंह के वीरगति पाने के वक़्त कुंवर हम्मीर को पहले ही दुर्ग से सुरक्षित बाहर भेज दिया गया था।

(2) अभयसिंह :- अल्लाउद्दीन से फौजी लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए। इनके वंशज कुम्भावत हुए। (3) नरसिंह :- अल्लाउद्दीन से फौजी लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए।

(4) कुक्कड़ :- अल्लाउद्दीन से फौजी लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए। (5) माकड़ :- अल्लाउद्दीन से फौजी लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए। (6) ओझड़ :- अल्लाउद्दीन से फौजी लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए।

(7) पेथड़ :- अल्लाउद्दीन से फौजी लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए। इनके वंशज भाखरोत कहलाये।

(8) राणा अजयसिंह :- ये राणा लक्ष्मणसिंह के पुत्र थे, जो अलाउद्दीन से हुई लड़ाई में सख़्त ज़ख्मी होकर पहाड़ों में चले गए, जिससे बचने में सफल रहे। सांडेराव के जती (जैन गुरु) ने राणा अजयसिंह का इलाज किया।

चित्तौड़गढ़

अब मेवाड़ की राजगद्दी पर सुल्तान अलाउद्दीन का बेटा खिज्र खां बैठा था और मेवाड़ के पहाड़ों में मेवाड़ के वास्तविक उत्तराधिकारी महाराणा हम्मीर थे, जो की अभी बालक थे।

राणा अजयसिंह बालक हम्मीर के काका थे। कुछ इतिहासकारों ने राणा अजयसिंह को भूलवश मेवाड़ का शासक लिख दिया, जबकि वे मेवाड़ के शासक न होकर महाराणा हम्मीर के संरक्षक थे।

(9) अनंतसिंह :- ये भी अलाउद्दीन से हुई लड़ाई में जीवित बचे या संभवतः लड़ाई में भाग नहीं लिया। अनंतसिंह जालौर चले गए। जब अलाउद्दीन ने जालौर पर हमला किया और जालौर में शाका हुआ, तब बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। जिस जगह इनका धड़ गिरा वह जगह अब तक ‘अनंत डूंगरी’ के नाम से प्रसिद्ध है।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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