मेवाड़ के रावल रतनसिंह व रानी पद्मिनी (भाग – 4)

अलाउद्दीन खिलजी का चित्तौड़गढ़ पर कब्ज़ा :- 26 अगस्त, 1303 ई. को सोमवार के दिन 6 महीने व 7 दिन की लड़ाई के बाद रावल रतनसिंह वीरगति को प्राप्त हुए और अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग फतह कर कत्लेआम का हुक्म दिया।

मेवाड़ के 30 हजार नागरिकों को अपने प्राण गंवाने पड़े। अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ के नागरिकों के सभी पशुओं का भी कत्ल करवा दिया। अलाउद्दीन 10 दिनों तक चित्तौड़गढ़ दुर्ग में रहा।

महावीर जैन मंदिर का विध्वंस :- चित्तौड़गढ़ दुर्ग में जैन कीर्ति स्तम्भ के ठीक नज़दीक महावीर जैन मंदिर है। अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के दौरान यह मंदिर खंडित कर दिया गया। इसका जीर्णोद्धार महाराणा मोकल व महाराणा कुम्भा के शासनकाल में हुआ।

अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग अपने बेटे खिज्र खां को सौंप दिया व चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद रखा। खिज्र खां भी धर्मांध था। उसने भी मंदिरों का विध्वंस जारी रखा।

रावल रतनसिंह

अमीर खुसरो तारीख-ई-अलाई में लिखता है “सोमवार तारीख 11 मुहर्रम हि.स. 703 (25 अगस्त, 1303 ई.) को चित्तौड़ का किला फतह हुआ। सुल्तान एक ऐसे किले में दाख़िल हुए, जहां परिंदा भी नहीं पहुंच सकता था। वह

राय (रावल रतनसिंह) भाग गया, पर बाद में खुद सुल्तान के पास आया और तलवार की बिजली से बच गया। हिंदू कहते हैं कि जहां पीतल का बर्तन होता है, वहीं बिजली गिरती है और राय (रावल रतनसिंह) का चेहरा डर के

पीतल सा पीला पड़ गया था। तीस हज़ार हिंदुओं के कत्ल का हुक्म देकर सुल्तान ने चित्तौड़ का राज अपने बेटे खिज्र खां को सौंपा और किले का नाम खिज्राबाद रखा। सुल्तान ने खिज्र खां को लाल छत्र, ज़रदोज़ी खिलअत, दो झंडे –

एक हरा और दूसरा काला, दिए और उस (खिज्र खां) पर लाल (हीरे) और पन्ने न्योछावर किए। फिर सुल्तान दिल्ली की तरफ लौटे। ख़ुदा का शुक्र है कि हिंद के जो राजा इस्लाम को नहीं मानते, उन सबको अपनी काफिरों को कत्ल करने वाली तलवार से मार डालने का हुक्म दिया”

तारीख-ए-फ़िरोजशाही में जियावर्नी लिखता है “सुल्तान अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को घेरा और थोड़े ही अर्से में उसको ताबे (अधीन) कर लिया। घेरे के वक़्त चौथे महीने में किले वालों ने सुल्तान की फौज को बड़ा नुकसान

पहुंचाया। सुल्तान जब चित्तौड़ फ़तह करके दिल्ली लौटे, तो तरगी ने 30-40 हज़ार की फ़ौज समेत किले पर हमला कर दिया। इस वक़्त सुल्तान के पास फ़ौजी कमी थी,

क्योंकि सुल्तान ने चित्तौड़ फ़तह करने के वक़्त ही एक फ़ौज अरंगल की तरफ़ भेज दी थी। दूसरी वजह ये रही कि सुल्तान की फ़ौज को चित्तौड़ के घेरे में काफ़ी नुकसान पहुंचा था, जिससे फ़ौज, घोड़ों और हथियारों की कमी पड़ गई”

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

फिरिश्ता लिखता है “जब रतनसिंह क़ैदख़ाने से भाग गया, तब वह लूटखसोट करके बादशाही मुल्क को नुकसान पहुंचाने लगा”

अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध इस युद्ध में चित्तौड़गढ़ की तरफ़ से वीरगति को प्राप्त योद्धा :- रावल रतनसिंह, गोरासिंह, बादलसिंह, राणा लक्ष्मणसिंह (मेवाड़ के सामन्त व सेेनापति), अरिसिंह, अभयसिंह, नरसिंह, कुक्कड़, माकड़, ओझड़, पेथड़।

वास्तव में मेवाड़ के सेनापति गोरासिंह नहीं, बल्कि राणा लक्ष्मणसिंह थे। गोरासिंह का वर्णन केवल कथाओं में ही मिलता है, परन्तु राणा लक्ष्मणसिंह का वर्णन शिलालेखों में मिलता है।

महाराणा कुम्भा के शासनकाल में खुदवाई गई कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में वर्णन है कि अलाउद्दीन खिलजी से हुई लड़ाई में मेवाड़ के लक्ष्मणसिंह वीरगति को प्राप्त हुए।

रावल रतनसिंह ने पहले ही अपने भाई-बेटों को ये कहकर दुर्ग से बाहर निकाल दिया था कि “यदि हम लोग मारे जावें, तो आप सब फिर से किले पर अधिकार कर लें, क्योंकि गुहिलों का राज हर हाल में बना रहना चाहिए।”

दरीबा का शिलालेख :- रावल रतनसिंह के शासनकाल से संबंधित अब तक एकमात्र शिलालेख प्रकाश में आया है, जो दरीबा की खान के पास वाले मातृकाओं के मंदिर के एक स्तम्भ पर खुदा है। उक्त शिलालेख 31 जनवरी, 1302 ई. को बुधवार के दिन खुदवाया गया।

रानी पद्मिनी महल (चित्तौडगढ़ दुर्ग)

सहोदरा देवी :- रावल रतनसिंह की एक पुत्री सहोदरा देवी का विवाह सिरोही के शासक राव लुम्भा देवड़ा से हुआ था। सहोदरा देवी सिरोही की पटरानी थी, अर्थात वे राव लुम्भा की पहली पत्नी थीं।

गम्भीरी नदी के पुल का निर्माण :- खिज्र खां ने चित्तौड़ में गम्भीरी नदी पर एक मज़बूत पुल बनवाया, जो कई मंदिरों को तोड़कर उनके पत्थरों से बनवाया गया। साथ ही चित्तौड़गढ़ दुर्ग में लगे कुछ शिलालेखों को भी इस पुल में चुनवा दिया गया। इनमें से एक शिलालेख रावल समरसिंह का था।

चित्तौड़ की तलहटी वाले मकबरे का शिलालेख :- चित्तौड़ की तलहटी के बाहर एक मकबरे पर शिलालेख खुदा है, जो 11 मई, 1310 ई. को खुदवाया गया। इस शिलालेख में अलाउद्दीन खिलजी को ‘दूसरा सिकंदर’ बताया गया है।

रावल रतनसिंह व महाराणा हम्मीर के बीच का इतिहास लेखन बहुत मुश्किल रहा, क्योंकि इतिहासकारों ने अलग-अलग मत रखे हैं। निष्कर्ष तक पहुंचने में काफी समय लगा। इसका वर्णन अगले भाग में किया जाएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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