बाबू कुँवर सिंह परमार का सम्पूर्ण इतिहास

1857 की क्रांति के महान क्रांतिकारी ‘बाबू कुँवर सिंह’ :- महान शासक विक्रमादित्य व राजा भोज के वंश में 14वीं सदी में राजा भोजराज हुए, जिनका राज शाहबाद पर था। उनके वंशज राजा सुजान सिंह परमार ने जगदीशपुर में गद्दी स्थापित की।

उन्हीं के वंश में राजा साहबज़ादा सिंह परमार हुए, जिनके पुत्र राजा कुँवर सिंह थे। कुँवर सिंह का जन्म 13 नवम्बर, 1777 ई. को जगदीशपुर में हुआ। इनकी माता महारानी पंचरतन देवी थीं।

क्रांति के समय कुँवर सिंह की उम्र 80 वर्ष थी और वे चरित्र के धनी थे। कुँवर सिंह का कद 6 फ़ीट का था व नाक थोड़ी टेढ़ी थी। घुड़सवारी के बहुत शौकीन थे।

1826 ई. में कुँवर सिंह के पिता का देहांत हुआ और कुँवर सिंह जगदीशपुर के मालिक बने। कुँवर सिंह के भाइयों को कुछ गांव दिए गए थे, लेकिन उनके बंटवारे को लेकर विवाद हुआ, जो कुछ समय बाद सुलझा लिया गया।

बाबू कुँवर सिंह

इस समय जगदीशपुर की सालाना आय 6 लाख रुपए थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार के मालगुजारी के नियमों के कारण बाबू कुँवर सिंह की आर्थिक स्थिति बहुत अधिक बिगड़ गई।

जगदीशपुर पर 20 लाख रुपए का कर्जा हो गया, लेकिन फिर भी उनकी प्रजा के मन में उनके लिए बहुत श्रद्धा के भाव थे।

1846 ई. में स्कूल बनवाने हेतु कुँवर सिंह ने मुफ्त में ज़मीन दी और साथ ही 100 रुपए अपनी तरफ से भेंट किए। उन्होंने जगदीशपुर में एक शिव मंदिर और टैंक बनवाया।

कुँवर सिंह ने बंदूक चलाने व अन्य युद्ध कलाएं सिखाने हेतु बाहर से अनुभवी लोग बुलाए और उनके ज़रिए अपने सैनिकों को प्रशिक्षित करवाया। 1857 ई. में हिंदुस्तान में कई जगह क्रांति का बिगुल बज चुका था।

3 जुलाई, 1857 ई. को पटना में क्रांति फैली। अंग्रेज इस क्रांति का दमन पूरी तरह नहीं कर पाए थे कि तभी 25 जुलाई को दानापुर में 7वीं, 8वीं और 40वीं फ़ौजी पलटन के भारतीय सैनिकों ने क्रांति कर दी।

अंग्रेज अफसर लायड ने इन क्रांतिकारियों को परास्त किया। क्रांतिकारी सोन नदी को पार करते हुए आरा की तरफ चले गए। 27 जुलाई को सोमवार के दिन सुबह 8 बजे क्रांतिकारियों ने आरा में प्रवेश किया और क़ैदख़ाने के द्वार तोड़कर 400 क़ैदियों को रिहा कर दिया।

बाबू कुँवर सिंह को इस बात की सूचना मिली, तो वे 30 जुलाई को आरा पहुंचे और क्रांति का नेतृत्व अपने कंधों पर ले लिया। बाबू कुँवर सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने बोयल के बंगले को घेर लिया।

गंगा नदी के तट पर कैप्टन दुन्वर और बाबू कुँवर सिंह की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। इस लड़ाई में कैप्टन दुन्वर मारा गया और बाबू कुँवर सिंह ने ऐतिहासिक विजय प्राप्त की।

कैप्टन दुन्वर की मृत्यु का हाल जानकर मेजर इन्सेंट इर फ़ौज सहित रवाना हुआ और 2 अगस्त को आरा के नज़दीक बीबीगंज नामक गाँव में आ गया। 3 अगस्त को मेजर इन्सेंट इर ने एल इस्ट्रेंज की मदद से बाबू कुँवर सिंह की सेना को परास्त किया।

कुँवर सिंह आरा से रवाना हुए और जगदीशपुर पहुंचे। मेजर इन्सेंट इर भी वहां आ पहुंचा। जगदीशपुर के निकट दिलावर नामक स्थान पर मेजर इन्सेंट इर और कुँवर सिंह के बीच युद्ध हुआ। बाबू कुँवर सिंह को परास्त होकर जगदीशपुर छोड़ना पड़ा।

बाबू कुँवर सिंह की प्रतिमा

कुँवर सिंह 40वीं पैदल सैन्य टुकड़ी के साथ सासाराम की तरफ चले। कुँवर सिंह ने सासाराम के पठानों को क्रांति के लिए उत्साहित किया और फिर रीवां की तरफ चले। रीवां में रामगढ़ और दानापुर के क्रांतिकारी भी आ पहुंचे।

कुँवर सिंह ने रीवां के ज़मीदारों को क्रांति के लिए उत्साहित किया। इरचन्द राज और हशमत अली की मदद से बाबू कुँवर सिंह ने रीवां में क्रांति फैला दी। फिर कुँवर सिंह उत्तरप्रदेश के पूर्वी जिलों की तरफ आगे बढ़े।

कुँवर सिंह बांदा पहुंचे, तो वहां के नवाब और जनता ने उनका जोरशोर से स्वागत किया। अवध से भी कई सैनिक बांदा पहुंचे और कुँवर सिंह का नेतृत्व स्वीकार किया। कुँवर सिंह ने ग्वालियर के क्रांतिकारियों से भी सम्पर्क साध लिया।

कुँवर सिंह सेना सहित कालपी पहुंचे और फिर कानपुर पर आक्रमण करने के लिए तैयार हुए। इसी दौरान आजमगढ़ में क्रांति हो गई, जिसकी ख़बर मिलते ही कुँवर सिंह आजमगढ़ पहुंच गए।

कुँवर सिंह ने राजपूतों और पठानों की मिलीजुली सेना का नेतृत्व करते हुए अंग्रेज अफ़सर मैलसन को आजमगढ़ के निकट उतरोलिया के जंगलों में बुरी तरह परास्त किया।

वायसराय लॉर्ड केनिंग ने परिस्थिति की गम्भीरता को समझते हुए क्रीमिया युद्ध के विजेता लॉर्ड मार्क को 13वीं पैदल पलटन के साथ आजमगढ़ भेजा।

इस वक्त कुँवर सिंह आजमगढ़ के किले में ही थे। अग्रेजों ने आजमगढ़ पर तोपों से गोले दागे। कुँवर सिंह ने बड़े ही धैर्य के साथ युद्ध का संचालन किया और अंग्रेजी सेना के पृष्ठ भाग पर आक्रमण करके उसे पीछे धकेल दिया।

इसी दौरान लॉर्ड मार्क लागडेन और बेनविल कि मिलीजुली सेना ने कुँवर सिंह की सेना पर आक्रमण कर दिया। कुँवर सिंह पीछे हट गए, लेकिन गाजीपुर के जंगलों में छापामार लड़ाई लड़ते रहे।

टोंस नदी के किनारे कुँवर सिंह और अग्रेजों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेज अफसर बेलबिन और हैमिल्टन मारे गए। इसके बाद कुँवर सिंह ने जनरल डगलस की सेना को परास्त किया और फिर गाजीपुर होते हुए जगदीशपुर की तरफ चले।

कुँवर सिंह को सूचना मिली कि जनरल डगलस और जनरल बैली उनका पीछा करते हुए गंगा के निकट आ गए हैं। कुँवर सिंह ने कूटनीतिक से काम लिया।

बाबू कुँवर सिंह की प्रतिमा

उन्होंने यह अफवाह फैला दी कि गंगा के घाट पर पानी कम होने से कुँवर सिंह और उनकी सेना नाव की बजाय हाथियों से नदी पार करेंगे।

फिर उन्होंने कुछ साथियों को हाथियों के साथ पश्चिम दिशा में भेज दिया। अंग्रेजी फ़ौज को लगा कि कुँवर सिंह हाथियों के साथ ही गए हैं, तो उन्होंने हाथियों का पीछा किया। कुँवर सिंह की सेना नावों से नदी पार करने लगी।

इस बात की सूचना जनरल डगलस को मिली, तो वह फ़ौरन शिवपुर घाट पहुंचा। इस समय तक कुँवर सिंह की सेना ने तो नदी पार कर ली थी, परन्तु सबसे अंत में वे स्वयं नाव में बीच नदी में थे, कि डगलस ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं।

कुँवर सिंह ने अपनी ढाल से गोलियां रोकने की कोशिश की, लेकिन एक गोली उनकी कलाई पर जा लगी। 80 वर्षीय कुँवर सिंह ने बड़ी हिम्मत से अपनी ही तलवार से अपने हाथ की कलाई काट दी, ताकि हाथ सड़ न जाए।

अनेक समस्याओं के बावजूद 22 अप्रैल, 1858 ई. को कुँवर सिंह जगदीशपुर पहुंचने में सफल हो गए। जनरल ली ग्रांड फ़ौज सहित आरा से रवाना हुआ और 23 अप्रैल को जगदीशपुर नगर को घेर लिया।

कलाई काटते हुए बाबू कुँवर सिंह

इस घेराबंदी में अंग्रेजों के साथ सिक्ख सैनिक भी थे। बाबू कुँवर सिंह ने कूटनीति से काम लेते हुए जंगलों में प्रवेश किया। ली ग्रांड को सूचना मिली, तो वह भी जंगलों में आगे बढ़ा।

बाबू कुँवर सिंह ने छापामार युद्ध प्रणाली अपनाई और पहाड़ों में नाकेबंदी करते हुए अंग्रेजी सेना को चारों ओर से घेर लिया।

फिर कुँवर सिंह ने अंग्रेजों पर आक्रमण किया, जिसमें ली ग्रांड मारा गया और कुँवर सिंह विजयी होकर जगदीशपुर लौटे। नगरवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया। लगातार युद्धों से कुँवर सिंह के घाव विषाक्त हो चुके थे।

अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाकर 26 अप्रैल, 1858 ई. को महान स्वतंत्रता सेनानी बाबू कुँवर सिंह परमार ने देवलोकगमन किया।

अंग्रेज लेखक जॉर्ज ट्रिबिलियन लिखता है कि “यदि कुँवर सिंह की उम्र 40 वर्ष कम होती, तो हमें आरा की रक्षा करने में कहीं अधिक कठिनाई होती। हमें अपने आप

को बहुत सौभाग्यशाली समझना चाहिए कि वृद्धावस्था ने उसकी सैनिक शक्तियों और साधनों की दृढ़ता को बहुत कम कर दिया था।”

कुँवर सिंह का परिवार :- कुँवर सिंह का विवाह गया जिले के एक ज़मीदार राजा फतह नारायण सिंह की पुत्री से हुआ।

राजा कुँवर सिंह के पुत्र कुँवर दलभंजन सिंह 7 नवम्बर, 1857 ई. को कानपुर की लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए। कुँवर सिंह की पुत्री प्रतिभा कुमारी का विवाह शंकरपुर के राणा बेणीमाधव सिंह के पुत्र राजा बक्श सिंह से हुआ।

राजा कुँवर सिंह के पौत्र व कुँवर दलभंजन सिंह के पुत्र भंवर वीरभंजन सिंह 8 अक्टूबर, 1857 ई. को बांदा की लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

2 Comments

  1. UMASHANKAR SINGH
    February 13, 2022 / 5:41 pm

    Nice Post

  2. Arif H Ansari
    February 17, 2022 / 2:07 pm

    Nice, informative and interesting post.

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