1568 ई. – “चित्तौड़ के भीषण नरसंहार के बाद”
महाराणा उदयसिंह राजपरिवार समेत उदयपुर पहुंचे और नौचोकिया महलों का अधूरा पड़ा काम पूरा करवाया। महाराणा उदयसिंह ने 1562 ई. में बाजबहादुर को शरण दी थी, जिसकी मांग को लेकर बादशाही फौजें अक्सर उदयपुर पर हमला करती थी।
“जनसमर्थन”
महाराणा उदयसिंह ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में एक अत्यंत दूरदर्शी व महत्वपूर्ण कार्य किया था। उन्होंने प्रजा का पूर्ण रूप से समर्थन प्राप्त किया, क्योंकि प्रजा के सहयोग के बिना गुरिल्ला युद्ध सम्भव नहीं था। महाराणा उदयसिंह ने प्रजा को भी प्रशिक्षण देकर मुगलों के विरुद्ध मोर्चों पर खड़ा किया।
1569 ई. – “अकबर की कालिंजर विजय” :- इस वर्ष अकबर ने कालिंजर दुर्ग फतह किया। कालिंजर के शासक रामचन्द्र ने आत्मसमर्पण करते हुए दुर्ग की चाबियाँ अकबर के हवाले की।
“जहाँगीर का जन्म” :- इसी वर्ष अकबर व मरियम उज़ ज़मानी के पुत्र सलीम का जन्म हुआ, जो आगे चलकर जहांगीर के नाम से मशहूर हुआ।
“रावत खेंगार चुंडावत की तलवार बंधाई”
रावत साईंदास चुण्डावत व उनके एकमात्र पुत्र कुंवर अमरसिंह चुण्डावत चित्तौड़ के तीसरे साके में वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। महाराणा उदयसिंह ने रावत साईंदास चुण्डावत के छोटे भाई रावत खेंगार को भैंसरोडगढ़ दुर्ग में तलवार बंधाई वगैरह रस्में पूरी की।
1569 ई. – “रणथम्भौर दुर्ग पर अकबर का आक्रमण” (रणथम्भौर दुर्ग पर महाराणा उदयसिंह ने राव सुर्जन हाडा का अधिकार करवाया था, इसलिए महाराणा उदयसिंह के इतिहास में इस युद्ध का वर्णन किया गया है, परन्तु इसका विस्तृत वर्णन बूंदी के इतिहास में ही किया जाएगा) इस समय रणथम्भौर दुर्ग पर राव सुर्जन हाडा का अधिकार था।
राव सुर्जन हाडा मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह के सामन्त थे और महाराणा का साथ देते हुए हाजी खां व राव मालदेव से लड़ाईयां भी लड़ी थीं, लेकिन बूंदी के इतिहासकारों ने अपने हर एक ग्रन्थ में बूंदी को स्वतंत्र राज्य ही माना है। हालांकि मेवाड़ व फारसी इतिहासकारों ने राव सुर्जन हाडा को महाराणा उदयसिंह का सामन्त ही लिखा है।
अबुल फजल लिखता है “चित्तौड़ की बर्बादी के बाद शहंशाह ने रणथम्भौर जीतने का इरादा किया। रणथम्भौर पर राणा उदयसिंह के सिपहसालार सुर्जन हाडा का कब्जा था। शहंशाह ने चित्तौड़ में बागियों को हाथियों के पैरों तले रौंदकर एक मिसाल कायम की और उसके 2 साल बाद चित्तौड़ के बराबर मजबूती वाले किले रणथम्भौर की तरफ कूच किया”
ग्रन्थ वीरविनोद में कविराज श्यामलदास लिखते हैं “महाराणा उदयसिंह ने राव सुर्जन हाडा को बूंदी का मालिक बनाया और रणथम्भौर की किलेदारी सौंपी”
बादशाहनामा में मौलवी अब्दुल हमीद लाहौरी लिखता है “राणा उदयसिंह ने रणथम्भौर किले की निगहबानी राव सुर्जन को दी थी, जो कि उसका मौतवर नौकर था”
* जब अफगान बादशाह शेरशाह सूरी ने रणथम्भौर दुर्ग पर अधिकार किया था, तब शेरशाह सूरी के मरने के बाद महाराणा उदयसिंह ने रणथम्भौर दुर्ग से बचे-खुचे अफगानों को मार-भगाकर वहां अधिकार किया था। बाद में महाराणा उदयसिंह ने रणथम्भौर दुर्ग की किलेदारी राव सुर्जन हाडा को सौंप दी थी।
21 दिसम्बर, 1568 ई.
* अकबर फौज समेत दिल्ली से निकलकर मेवात पहुंचा और वहां पड़ाव डालकर शिकार वगैरह खेला। लालसोट पहुंचने पर अकबर की फौज में शामिल एक बेहद खास ‘मनसुख’ नाम का हाथी जख्म के चलते मर गया। इसके गम में एक हथिनी ने खाना-पीना छोड़ दिया और तीन दिन बाद वह भी मर गई।
10 फरवरी, 1569 ई. * अकबर रणथम्भौर पहुंचा
“अकबर का सैन्यबल” :- 50,000 सैनिक * 96 तोपें * 4000 हाथी * 900 बन्दूकें * 50 घूमने वाली बन्दूकें
“राव सुर्जन हाडा का सैन्यबल” * 12000 सैनिक * 100 हाथी * कुछ तोपें व बन्दूकें
* अबुल फजल लिखता है “सुर्जन हाडा ने लड़ाई की तैयारियां कर लीं। उसे इस पत्थर के टुकड़े (रणथम्भौर दुर्ग) पर बेहद गुरुर है। बाकि सब किले तो नंगे हैं, पर रणथम्भौर का किला बख्तरबन्द है”
* अकबर ‘रण’ नामक एक डूंगरी पर चढ़ा और वहां से किले को देखकर मोर्चाबन्दी का अन्दाजा लगाया। कुछ ही दिनों में अकबर ने रणथम्भौर दुर्ग को घेरकर मोर्चाबन्दी कर दी।
11 मार्च, 1569 ई. :- अकबर ने राजा टोडरमल व कासिम खां के नेतृत्व में एक साबात बनवाना शुरु किया।अकबर ने रणथम्भौर किले के नजदीक बनाई गई साबात पर 2000 बैलों के जोड़ों द्वारा तोपें चढवाईं और गोले दागकर किले की दीवार को भारी नुकसान पहुंचाया।
तोपें इतनी बड़ी थीं कि एक-एक तोप को ऊपर चढ़ाने के लिए 22 जोड़ी बैलों की जरुरत पड़ रही थी। तोपों से 60 मन के पत्थर के गोले व 30 मन के धातु के गोले दागे गए।तोप-बारुद के हमले व 1 महीने तक चली लड़ाई में राव सुर्जन हाडा की तरफ से 3000 योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए।
* अगले भाग में अकबर व बूंदी के राव सुर्जन हाड़ा के बीच हुई संधि, अकबर के नागौर दरबार, महाराणा उदयसिंह द्वारा गोगुन्दा को राजधानी घोषित किए जाने का वर्णन किया जाएगा
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)