मेवाड़ महाराणा स्वरूपसिंह (भाग – 4)

महाराणा स्वरूपसिंह व सरदारों के बीच कौलनामा :- 1845 ई. में महाराणा स्वरूपसिंह व मेवाड़ के सरदारों के बीच एक कौलनामा तैयार किया गया। इसके अनुसार पिछले कौलनामे की शर्तें तो थीं हीं, कुछ बदलाव के साथ बने इस नए कौलनामे पर महाराणा स्वरूपसिंह ने हस्ताक्षर किए।

फिर निम्नलिखित सरदारों ने हस्ताक्षर किए :- देवगढ़ के रावत नाहरसिंह चुंडावत, आमेट के रावत पृथ्वीसिंह चुंडावत, आसींद के रावत दूलहसिंह चुंडावत, भींडर के महाराज हमीरसिंह शक्तावत।

8 नवम्बर, 1845 ई. – महाराणा व सामंतों द्वारा एकलिंग जी के समक्ष मद्यपान के त्याग की शपथ :- महाराणा स्वरूपसिंह सभी सामंतों सहित एकलिंगजी के मंदिर में पधारे। महाराणा ने मंदिर में अपने सामंतों से कहा कि “हमारे कुल में शुरू से ही मद्यपान वर्जित रहा है।

मशहूर है कि राणा राहप को उनकी बीमारी के वक़्त औषधि के रूप में शराब दी गई थी, जिसका पता चलने पर उन्होंने गरम सीसा निगल कर अपने प्राण त्याग दिए थे, तब से इस वंश का नाम सिसोदिया पड़ा।

एकलिंगजी मन्दिर (कैलाशपुरी – उदयपुर)

हमारे महान पुरखों ने जिस शराब को छूना भी पाप समझा, उस शराब की शुरुआत पिछली 4-5 पीढ़ियों से मेवाड़ में हो गई, जिसके भारी दुष्परिणाम हुए और मेवाड़ की हर तरफा बर्बादी हुई। आज हम आप सबसे एकलिंगनाथ जी के समक्ष शराब के त्याग की शपथ सुनना चाहते हैं।”

महाराणा के वचन सुनकर सभी सामंतों समेत महाराणा ने शराब का हमेशा के लिए त्याग किया। महाराणा ने एकलिंगेश्वर की पुरी में एक पाषाण लेख खुदवाकर सिसोदिया क्षत्रियों की शराब पीने की मनाही कर दी। फिर महाराणा नाथद्वारा व कांकरोली की यात्रा करते हुए उदयपुर पधारे।

महाराणा स्वरूपसिंह द्वारा कर्ज़ का निपटारा :- मेवाड़ पर अब भी कई लाख रुपयों का कर्ज़ था, जिसमें सर्वाधिक सेठ जोरावरमल बापना का था। महाराणा स्वरूपसिंह ने सेठ जोरावरमल के कर्ज़ का निपटारा करना चाहा।

28 मार्च, 1846 ई. को महाराणा मेहमान के तौर पर जोरावरमल के यहां पधारे। सेठ ने घोड़ा, हाथी, ज़ेवर, पोशाक व 10 हज़ार रुपए महाराणा को नज़र किए। इसके बाद कर्ज़ की बातचीत शुरू हुई।

महाराणा ने जिस रूप में कर्ज़ देना चाहा, वैसे ही जोरावरमल ने स्वीकार किया, जिससे प्रसन्न होकर महाराणा ने उनको पुरानी जागीर के अलावा कुंडाल गांव, उनके पुत्र चांदणमल को पालकी व उनके पोतों (गंभीरमल व इंदरमल) को मोतियों की कंठी, सिरोपाव आदि दिए।

इस घटना से प्रभावित होकर दूसरे लेनदारों ने भी महाराणा की इच्छानुसार अपने-अपने रुपयों का फ़ैसला कर लिया, जिससे मेवाड़ के सिर से कर्ज़ का बोझ उतर गया और महता शेरसिंह व सेठ जोरावरमल के नेक कार्यों के कारण उनका बड़ा नाम हुआ।

महाराणा स्वरूपसिंह

जैसलमेर के महारावल का देहांत :- 1846 ई. में ख़बर आई कि जैसलमेर के महारावल गजसिंह भाटी का देहांत हो गया। आप महाराणा भीमसिंह के दामाद थे। उदयपुर में मातमी दरबार किया गया।

महाराणा स्वरूपसिंह की हत्या का षड्यंत्र :- 30 जनवरी, 1847 ई. को नीमच की छावनी से पोलिटिकल एजेंट रॉबिन्सन उदयपुर आया और 10 दिनों तक यहीं ठहरा। इन्हीं दिनों एक बड़ा फ़साद हुआ।

बागोर के महाराज शेरसिंह के बेटे शार्दूलसिंह (महाराणा स्वरूपसिंह के सगे भतीजे) की हरकतें देखकर उनके पिता शेरसिंह ने अपने भाई महाराणा स्वरूपसिंह से कहा कि “मेरा बेटा आजकल बदचलन होता जा रहा है और मेरे काबू से बाहर है, सुनने में आ रहा है कि वह कुछ लोगों के साथ मिलकर आपको मारने की साजिश कर रहा है।”

महाराणा स्वरूपसिंह ने शार्दूलसिंह को अपने पास बुलाकर धमकाया, जिसके बाद शार्दूलसिंह कांपने लगा। फिर महाराणा ने उसको तसल्ली देकर उसके साथियों के नाम बताने को कहा। शार्दूलसिंह ने महता रामसिंह, गंगाराम पाणेरी वगैरह कई लोगों के नाम बताए।

महता रामसिंह भागकर पोलिटिकल एजेंट के पास चला गया। शार्दूलसिंह, गंगाराम पाणेरी वगैरह लोग कैद किए गए। गंगाराम मादड़ी का रहने वाला ब्राह्मण था। महाराणा ने उससे सभी कारखानों की जिम्मेदारी छीनकर तेजराम व उदयराम को सौंप दी।

16 जून, 1847 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह ने उदयपुर राजमहलों के बड़ी पोल दरवाज़े पर एक पाषाण लेख खुदवाया, जिसमें लिखा था कि शार्दूलसिंह और महता रामसिंह की औलादों को हमेशा के लिए रियासती कामों से ख़ारिज किया जावे।

3 जुलाई को महाराणा ने महता रामसिंह की समस्त जायदाद ज़ब्त करके उसकी पत्नी, बच्चों व कुटुम्ब के लोगों को मेवाड़ से बाहर निकाल दिया।

उदयपुर सिटी पैलेस

5 जुलाई को महाराणा ने आसींद के रावत दूलहसिंह चुंडावत को उदयपुर के राजमहल में बुलवाया, लेकिन रावत दूलहसिंह वहां नहीं आए, क्योंकि वे जान गए थे कि महाराणा उन्हें मरवाने वाले हैं। दरअसल इन रावत पर भी यह आरोप था कि ये शार्दूलसिंह के मददगार थे, हालांकि ये बात साबित नहीं थी।

फिर महाराणा ने कायस्थ हरनाथ, ढींकड्या उदयराम, कायस्थ धीरजलाल व ज्योतिषी विजयराम को रावत दूलहसिंह के पास भेजकर साफ़-साफ़ कहलवाया कि तुम (रावत दूलहसिंह) शार्दूलसिंह के साथ मिले हुए थे। फिर 25 जुलाई को महाराणा ने रावत दूलहसिंह को उनके कुटुम्ब सहित बेदखल कर दिया, जिसके बाद उक्त रावत अपने ठिकाने आसींद में चले गए।

उधर महता रामसिंह पोलिटिकल एजेंट के वहां से रवाना हुआ और शाहपुरा में ठहरा, फिर कुछ दिन ब्यावर में ठहरा। महता रामसिंह को मेवाड़ में बुलाने की कोशिश की गई, पर उन्हीं दिनों ब्यावर में उसकी मृत्यु हो गई। कुछ वर्ष बाद बागोर के शार्दूलसिंह की भी उदयपुर के क़ैदखाने में मृत्यु हो गई।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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