मेवाड़ महाराणा हम्मीरसिंह द्वितीय (भाग -1)

महाराणा हम्मीरसिंह द्वितीय का जीवन परिचय :- महाराणा हम्मीरसिंह का जन्म 13 जून, 1761 ई. को हुआ। इनके पिता महाराणा अरिसिंह द्वितीय थे।

व्यक्तित्व :- महाराणा हम्मीरसिंह द्वितीय का रंग गेहुंआ, कद मंझला, आंखें बड़ी और पेशानी चौड़ी थी। चेहरा हँसीला और खूबसूरत था। ये महाराणा बहादुर थे। गुस्से वाले भी थे, पर मन के साफ थे।

महाराणा हम्मीरसिंह की आयु कम होने के कारण ये राजकाज के कार्यों में कमज़ोर थे। मराठों के बढ़ते वर्चस्व, सामंतों में आपसी तकरार, राजमाता के बढ़ते प्रभाव को महाराणा नियंत्रित नहीं कर सके।

महाराणा हम्मीरसिंह का राज्याभिषेक 11 मार्च, 1773 ई. को हुआ। महाराणा हम्मीर की आयु कम होने के कारण प्रधान सनाढ्य ब्राह्मण ठाकुर अमरचंद बड़वा, बछावत महता अगरचंद, भटनागर कायस्थ जसवंतराय, बौल्या एकलिंगदास आदि मंत्रियों ने विचार विमर्श किया।

उदयपुर राजमहल

इन मंत्रियों ने करजाली के महाराज बाघसिंह और शिवरती के महाराज अर्जुनसिंह से कहा कि आप दोनों महाराणा के बुज़ुर्ग हैं, इसलिए राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले लेवें और महाराणा को उनके बड़े होने तक संरक्षण प्रदान करें।

दोनों ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया और कहा कि “महाराणा बालक जरूर हैं, पर वे हमारे मालिक हैं और हम इनके नौकर हैं। जहां तक हमसे हो सकेगा, अपनी तरफ से खैरख्वाही में कोई कमी न रखेंगे।”

राजमाता का प्रभाव :- महाराणा हम्मीरसिंह मात्र 12 वर्ष के थे, इस खातिर राजमाता ने राज्य की बागडोर अपने हाथों में लेनी चाही। राजमाता ने इस खातिर शक्तावत सरदारों को अपनी तरफ मिलाना शुरू किया। धीरे धीरे राजमाता का प्रभाव इतना अधिक बढ़ गया कि उनकी दासियाँ भी किसी को अपने सामने कुछ न समझती थीं।

प्रधान अमरचंद बड़वा की हत्या :- एक दिन राजमाता की एक दासी रामप्यारी, जो कि बहुत वाचाल और घमंडी थी, वो प्रधान अमरचंद के रास्ते में आई और उनको बहुत बुरा भला कहा। तो अमरचंद जी ने क्रोधित होकर उसे वेश्या कह दिया।

ये बात रामप्यारी ने बहुत बढ़ा चढ़ाकर राजमाता से कही। राजमाता ने क्रोधित होकर प्रधान अमरचंद के खिलाफ कार्यवाही करने हेतु सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत को बुलावा भिजवाया।

राजमाता ने अपने कुछ सैनिक ठाकुर अमरचंद के घर भेजने के लिए रवाना कर दिए और आदेश हुआ कि अमरचंद को बंदी बनाकर यहां लाया जावे। अमरचंद जी को पहले ही इस बात की भनक लग गई और उन्होंने अपने घर जाकर समस्त सामान, ज़ेवर वगैरह छकड़ों में भरकर जनाना ड्योढ़ी पर भिजवा दिया।

वहां जाकर अमरचंद जी ने राजमाता से कहा कि “ये मेरे जीवन की समस्त पूंजी है। मेरा कर्तव्य आप और आपके पुत्रों का हितचिंतन करना ही है, चाहे इसमें कितनी ही बाधाएं क्यों न आए। आपको तो मुझसे विरोध की बजाय मेरी सहायता करनी चाहिए थी।”

ठाकुर अमरचंद बडवा

इस घटना से सभी की नज़रों में ठाकुर अमरचन्द का सम्मान बढ़ गया, जिसका लिहाज रखते हुए राजमाता ने सारा सामान ठाकुर अमरचंद को वापिस सुपुर्द कर दिया, लेकिन ठाकुर अमरचंद ने एक जोड़ी कपड़े के सिवा उसमें से कुछ न लिया।

राजमाता पर राज्य को अपने हाथ में लेने की लालसा इतनी बढ़ चुकी थी की उन्होंने कुछ दिनों बाद विष दिलवाकर प्रधान अमरचंद बड़वा की हत्या करवा दी।

अमरचंद जी, भामाशाह जी के बाद मेवाड़ के सबसे योग्य प्रधान थे, जिन्होंने 4 महाराणाओं की सेवा की और मुश्किल समय में राज्य को बचाने का हरसंभव प्रयास किया।

इनके अंतिम संस्कार के लिए इनके घर से फूटी कौड़ी न मिली, जिस वजह से इनका दाह संस्कार मेवाड़ राज्य की तरफ से करवाया गया। एक निस्वार्थ देशभक्त, नीतिकुशल, सन्धि वार्ताओं के धनी, चतुर प्रधानमंत्री षड्यंत्र की भेंट चढ़ गए।

मेवाड़ व सिंधियों की मिली जुली फौज द्वारा मराठों की पराजय :- प्रधान अमरचंद के देहांत के बाद मेवाड़ की स्थिति और अधिक बिगड़ गई। राजकोष में धन न रहा। सिंधी सिपाहियों ने वेतन न मिलने के कारण धरना दे दिया और 40 दिन तक धरने पर बैठे रहे।

सिंधी सिपाहियों ने जब धमकियां देना शुरू किया, तो शिवरती के महाराज अर्जुनसिंह, करजाली के महाराज बाघसिंह, चतरसिंह चौहान, महाराज गुमानसिंह अपने-अपने शस्त्र बांधकर वहां आ पहुंचे।

राजमाता ने महता लक्ष्मीचंद के ज़रिए कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह चुंडावत को भी बुलावा भिजवाया और उनको सिंधियों के पास भेजकर समझाने को कहा। रावत ने सिंधियों से कहा कि आप लोगों को वेतन मिल जाएगा।

महाराणा हम्मीरसिंह द्वितीय

सिंधियों ने कहा कि हमें राज्य की तरफ से कोई एक प्रतिष्ठित व्यक्ति ‘ओल’ में दे दो। (ओल अर्थात जब तक वेतन न मिले, तब तक वह प्रतिष्ठित व्यक्ति उनके पास ही रहे)

तब 6 वर्षीय कुंवर भीमसिंह (महाराणा अरिसिंह द्वितीय के दूसरे पुत्र व महाराणा हम्मीरसिंह द्वितीय के छोटे भाई) ने साहस से कहा कि “मैं ओल में जाने को तैयार हूं।”

राजमाता को अपने बेटे के साहस भरे वचन सुनकर बड़ा गर्व हुआ और भीमसिंह को प्यार करके सिंधियों के हवाले कर दिया। कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह 10 हजार सिंधियों के साथ चित्तौड़गढ़ की तरफ रवाना हुए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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