महाराणा अरिसिंह का जन्म परिचय व व्यक्तित्व :- महाराणा अरिसिंह के पिता महाराणा जगतसिंह द्वितीय थे। महाराणा अरिसिंह का कद मध्यम व रंग गेहुंआ था। मेवाड़ की गद्दी पर बैठने वाले सभी शासकों में महाराणा अरिसिंह सबसे अधिक क्रूर व अयोग्य शासक थे।
मेवाड़ के महान सिसोदिया वंश में अरिसिंह का शासक बनना एक दुर्भाग्य था। ये महाराणा स्वभाव से हठी, क्रोधी, क्रूर, स्वार्थी व अभिमानी थे। चाटुकारों पर अधिक विश्वास व मेवाड़ के हितैषी सामंतों की बात को नज़रअंदाज़ किया करते थे।
महाराणा अरिसिंह बहादुर थे व शेरों के शिकार के शौकीन थे। ये महाराणा स्वयं कवि थे व कवियों के आश्रयदाता थे। ये पहले महाराणा हुए, जिन्होंने अपने ही सामंतों का कत्ल करवाया।
जैसा कि मेवाड़ का इतिहास रहा है कि जब कभी यहां कोई अयोग्य शासक गद्दी पर बैठता था, तो मेवाड़ के शक्तिशाली सामंत उसका बहिष्कार करते हुए उसको गद्दी से हटाने की हरसंभव कोशिश करते थे।
मेवाड़ के सामंत पहले भी महाराणा उदयसिंह प्रथम (महाराणा कुम्भा के पुत्र), दासीपुत्र बनवीर, जगमाल को मेवाड़ की गद्दी से हटा चुके थे। इसी तरह मेवाड़ के कई सामन्तों ने यह ठान लिया था कि अरिसिंह को गद्दी से हटाना ही है। इसका वर्णन आगे के भागों में विस्तार से लिखा जाएगा।
महाराणा अरिसिंह का राजतिलक :- महाराणा राजसिंह द्वितीय के देहांत के समय उनकी कोई संतान नहीं थी, जिस वजह से सभी सर्दार सलाह करके अंतःपुर की ड्योढ़ी तक पहुंचे और बाईजीराज (स्वर्गीय महाराणा की माता) से पूछवाया कि “महाराणा की झाली रानी के कोई गर्भ है या नहीं। यदि रानी सा को गर्भ हो तो राजकाज का कार्य उनके बड़े होने तक हम संभाल लेंगे।”
झाली रानी के उस समय गर्भ था, बाईजीराज ने अरिसिंह के भय से मना कर दिया, क्योंकि उस समय जनश्रुति थी कि महाराणा राजसिंह द्वितीय की हत्या भी अरिसिंह ने ही करवाई है। फिर सभी सर्दारों ने एकमत होकर 3 अप्रैल, 1761 ई. को अरिसिंह का राजतिलक कर दिया।
गद्दी पर बैठने के बाद महाराणा अरिसिंह जनाने में गए और बाईजीराज से कहा कि “मुझको राज्य का कोई लोभ नहीं है, अगर झाली जी को गर्भ हो, तो आप निसंकोच बता सकते हैं। अगर पुत्र हुआ तो उसे मैं ख़ुद राज्य का मालिक बनाऊंगा और पुत्री हुई, तो मैं उसका विवाह कराऊंगा।”
बाईजीराज महाराणा अरिसिंह की मंशा समझ गई, इसलिए उन्होंने कह दिया कि झाली रानी को गर्भ नहीं है। यदि उस समय महाराणा अरिसिंह को सत्य का पता चलता, तो निश्चित ही वे झाली रानी को मार डालते।
हरी पूजन :- महाराणा अरिसिंह हरी पूजने के लिए गए। मेवाड़ में यह रिवाज था कि नए महाराणा जब गद्दी पर बैठते थे, तो पहले वाले महाराणा के देहांत के शोक को समाप्त किया जाता था, ताकि प्रजा फिर से खुशहाल रहे। इसलिए बड़ी धूमधाम से किसी हरियाली वाली जगह पर सब्जी की पूजा की जाती थी।
सर्दारों का अपमान करना :- हरी पूजन के बाद महाराणा अरिसिंह एकलिंग जी के दर्शन को गए। महाराणा लौटते समय घोड़ा दौड़ाते हुए चीरवा के तंग घाटे तक पहुंचे, जहां बहुत से सर्दार और सवार चल रहे थे। भाड़भीड़ बहुत ज्यादा थी।
महाराणा अरिसिंह ने छड़ीदारों और जलेबदारों को आदेश दिया कि सबको हटाकर रास्ता साफ़ करो। छड़ीदारों ने सामंतों से कहा कि रास्ता छोड़ो। इस बात से सामन्तों को बड़ा क्रोध आया, लेकिन उस समय बेबस थे। फिर छड़ीदारों ने दो-चार सामन्तों के घोड़ों की पीठ पर छड़ियां मारी।
सामंतों से यह अपमान सहन न हुआ। उस समय तो सब चुप रहे, लेकिन आम्बेरी की बावड़ी के पास पहुंचकर उन सबने महाराणा का साथ छोड़ दिया और वहीं रुक गए। सबने सलाह की, कि अभी से महाराणा अरिसिंह का ऐसा बर्ताव है तो बाद में न जाने क्या करेंगे।
महाराणा अरिसिंह की इस अनुचित कार्रवाई ने मेवाड़ के सामन्तों को यह सोचने पर विवश कर दिया कि अब अरिसिंह को गद्दी से कैसे हटाया जावे। कुछ समय बाद स्वर्गीय महाराणा राजसिंह द्वितीय की झाली रानी के गर्भ की बात धीरे-धीरे प्रकाश में आने लगी।
बेदला के राव रामचंद्र चौहान ने गोगुन्दा के राज जसवंतसिंह झाला से कहा कि “मेरी पुत्री तो महाराणा राजसिंह के साथ सती हो गई है, अब तुम्हारी बहिन के गर्भ होना सुना जाता है। यदि हिम्मत हो तो अब भी सब कुछ हो सकता है।”
कुछ समय बाद स्वर्गीय महाराणा की झाली रानी से पुत्र उत्पन्न हुआ, जिनका नाम रतनसिंह रखा गया। अंतःपुर की रानियों व बाईजीराज ने बालक रतनसिंह को उनके मामा जसवंतसिंह को सौंपते हुए कहा कि “ये मेवाड़ की गद्दी का असली हक़दार है, अब इसकी जिम्मेदारी तुम्हारे कंधों पर है।”
जसवंतसिंह झाला बालक रतनसिंह को साथ लेकर अपने ठिकाने गोगुंदा की तरफ रवाना हुए। उन्होंने रतनसिंह की परवरिश गुप्त रूप से तरावली के किले में की।
ये घटना लगभग वैसी ही थी जैसी महाराणा उदयसिंह के समय हुई थी कि महाराणा उदयसिंह की परवरिश भी इसी तरह गुप्त रूप से कुम्भलगढ़ में की गई थी। बहरहाल, इस तरह की बातें ज्यादा दिनों तक नहीं छिपती।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)