जनवरी, 1743 ई. – महाराणा जगतसिंह द्वितीय व कुँवर प्रतापसिंह में मनमुटाव :- इन्हीं दिनों मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह द्वितीय व उनके ज्येष्ठ पुत्र कुँवर प्रतापसिंह के सम्बंध बिगड़ गए। (कृपया उक्त प्रतापसिंह को महाराणा प्रताप न समझें)
हुआ ये कि बूंदी के कुँवर दीपसिंह को कोई जागीर दिलवाने के लिए बूंदी के पुरोहित दयाराम मेवाड़ आए। पुरोहित दयाराम महाराणा जगतसिंह के पास गए और जागीर दिलवाने की बात कही, तो महाराणा ने मंज़ूर न किया।
फिर दयाराम सलूम्बर रावत के पास गए और महाराणा से जागीर के सम्बंध में बात करने को कहा लेकिन फिर भी बात नहीं बन पाई। फिर दयाराम दौलतराम व्यास के पास गए। दौलतराम व्यास ने दयाराम की बात सुनकर महाराणा जगतसिंह से बात की।
लेकिन महाराणा जगतसिंह ने जागीर देना मंज़ूर न किया। फिर दयाराम कुँवर प्रतापसिंह के पास गए, तो कुँवर प्रतापसिंह ने 25 हज़ार रुपए सालाना आमदनी वाला लाखोला का पट्टा कुँवर दीपसिंह के नाम कर दिया।
इस वजह से महाराणा जगतसिंह बड़े क्रोधित हुए और उन्होंने कुँवर प्रतापसिंह को क़ैद करने का विचार किया। मेवाड़ के सामंतों के आपसी संघर्ष की वजह से आधे सामंत महाराणा जगतसिंह द्वितीय के पक्ष में थे और आधे सामंत कुँवर प्रतापसिंह के पक्ष में चले गए।
कुँवर प्रतापसिंह की उम्र केवल 18 वर्ष थी, लेकिन बदन के इतने मजबूत थे कि उस समय खीच मंदिर के बाहर एक बड़ा पत्थर पड़ा रहता था, जिसे कुँवर अपने एक हाथ से सौ-सौ बार घुमाते थे। इस पत्थर को बड़े से बड़े पहलवान अपने दोनों हाथों से एक बार तक घुमा नहीं पाते थे।
कुँवर प्रतापसिंह को बंदी बनाना :- कुँवर प्रतापसिंह के बढ़ते प्रभाव से चिंतित महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने उनको बन्दी बनाना चाहा, लेकिन ये काम आसान न था, क्योंकि बहुत से सामंत कुँवर के मददगार थे और कुँवर स्वयं भी बहुत ताकतवर थे। महाराणा ने विचार करके अपने छोटे भाई महाराज नाथसिंह (बागोर वालों के पूर्वज) को ये जिम्मा सौंपा।
महाराज नाथसिंह बड़े दर्जे के पहलवान थे, फिर भी उन्होंने कहा कि मैं एक बार कुँवर की ताकत आज़माना चाहूंगा। कुँवर प्रतापसिंह बन्दी वाली बात से अनजान थे। खीच मंदिर नामक महल में चाचा और भतीजे की कुश्ती का आयोजन किया गया।
कुश्ती का मुकाबला शुरू हुआ, जिसमें कुँवर प्रतापसिंह ने महाराज नाथसिंह को पीछे हटा दिया। फिर नाथसिंह ने खीच मंदिर के दरवाज़े की चौखट से अपने पैर सटाकर सहारा लिया और कुँवर को पीछे धकेल दिया। ऐसा करने से दरवाज़े की चौखट का मज़बूत पत्थर टूट गया।
इन दोनों बहादुरों की ऐसी भीषण कुश्ती देखकर महाराणा जगतसिंह ने कुश्ती रुकवा दी। महाराज नाथसिंह ने महाराणा से कहा कि “हुज़ूर, मैंने कुँवर प्रतापसिंह की ताकत का अंदाज़ा लगा लिया है, अब मैं उनको सामने से तो नहीं, लेकिन दगा करके बन्दी बना सकता हूं”।
29 जनवरी, 1743 ई. को महाराणा जगतसिंह, कुँवर प्रतापसिंह व अन्य सामंत कृष्णविलास में थे कि उसी समय महाराणा के इशारे से महाराज नाथसिंह ने कुँवर प्रतापसिंह के पीछे से अचानक पीठ पर गोडी लगाकर कुँवर के दोनों हाथ बाँध दिए।
महल के ही दूसरे हिस्से में मौजूद उम्मेदसिंह शक्तावत, जो कि कुँवर के मददगार थे, उन्होंने ये ख़बर सुनी तो फौरन म्यान से तलवार निकाली और कृष्णविलास की तरफ आये। महाराणा ने उम्मेदसिंह के काका से कहा कि “जाओ और अपने भतीजे को रोको।”
उम्मेदसिंह ने तलवार से अपने ही काका को मार दिया। तब महाराणा जगतसिंह ने दिमाग से काम लिया और उम्मेदसिंह के ही पिता सूरतसिंह शक्तावत को भेजा। उम्मेदसिंह ने अपने पिता को सामने देखकर तलवार नीचे डाल दी।
लेकिन तब तक सूरतसिंह ने तलवार के एक ही वार से अपने बेटे उम्मेदसिंह का कत्ल कर दिया। महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने उठकर सूरतसिंह को गले लगा लिया और महाराणा ने कहा कि “तुम बाप बेटे ने तो अच्छी तरह नमक का हक़ अदा किया है।”
लेकिन सूरतसिंह का रंज कम न हुआ क्योंकि उनके बेटे और छोटे भाई उनके सामने मरे पड़े थे। कुँवर प्रतापसिंह को बन्दी बना लिया गया और करणविलास महल, जिसको रसोड़ा कहते हैं, वहां नज़र कैद रखा गया।
सूरतसिंह अपने पोते अखैसिंह को लेकर अपने महल लौट गए। महाराणा ने उनको जागीर देनी चाही, पर सूरतसिंह ने कुबूल न की। बाद में जब कुँवर प्रतापसिंह गद्दी पर बैठे, तब उन्होंने अखैसिंह को रावत का खिताब देकर दूसरे दर्जे का सर्दार बनाया और दारू का पट्टा जागीर में दे दिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
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