महाराणा जगतसिंह का फूलिया परगने पर अधिकार :- 1737 ई. में शाहपुरा के महाराज उम्मेदसिंह से महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने कर वसूल किया था, जिससे नाखुश होकर वे जोधपुर महाराजा अभयसिंह राठौड़ के पास चले गए। महाराजा अभयसिंह उम्मेदसिंह को साथ लेकर मुगल बादशाह मुहम्मदशाह के पास पहुंचे, जहां उम्मेदसिंह को ‘राजा’ का खिताब, खिलअत वगैरह दिए गए।
महाराज उम्मेदसिंह ने मेवाड़ के फूलिया परगने पर अपना अधिकार बताते हुए बादशाह मुहम्मदशाह से यह परगना दिलाने की मांग की। ये बात महाराणा जगतसिंह को पता चली, तो महाराणा ने अपने वकील को मुहम्मदशाह के पास भेजकर फूलिया परगने को अपने नाम लिखवा दिया।
1739 ई. – नादिरशाह का हमला :- हिंदुस्तान को लूटने वाले सबसे बड़े आक्रमणकारियों में से एक नादिरशाह का नाम आता है। नादिरशाह ने अकेले दिल्ली में ही 30 हज़ार लोगों को मौत के घाट उतार दिया और मुगल बादशाह के खज़ाने से उस ज़माने के 80 करोड़ रुपए लूटे।
इस लूट के बाद मुगल सल्तनत की बची-खुची शक्ति भी ध्वस्त हो गई और इसके बाद इस सल्तनत को फिर कभी सम्भलने का मौका नहीं मिला। नादिरशाह ने हिंदुस्तान से अपार धन-संपदा, सोना-चांदी और अन्य कीमती सामान लूटा, इसके अलावा वो हिंदुस्तान के बेहतरीन कारीगरों, शिल्पकारों व कलाकारों को भी अपने साथ ले गया।
राजपूताने की आपसी लड़ाइयां :- अप्रैल, 1740 ई. में जोधपुर के महाराजा अभयसिंह ने बीकानेर पर चढ़ाई की। कुछ दिनों बाद जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह ने अन्य राजपूत राजाओं की मदद लेकर जोधपुर पर चढ़ाई की।
महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने भी सवाई जयसिंह की मदद ख़ातिर सलूम्बर के रावत केसरीसिंह चुण्डावत को भेजा। नतीजतन जोधपुर के महाराजा से जुर्माना वसूल करके सवाई जयसिंह ने घेरा उठा लिया।
इन्हीं दिनों महाराणा जगतसिंह पुष्कर यात्रा के बहाने से इधर आए और महाराजा सवाई जयसिंह के साथ वाले अन्य राजाओं से मुलाकात करके पुनः उदयपुर लौट आए। महाराजा सवाई जयसिंह की इस कार्रवाई से नाखुश होकर जोधपुर महाराजा अभयसिंह व उनके छोटे भाई बख्तसिंह ने जयपुर पर चढ़ाई कर दी।
अजमेर जिले के गगवाणा गांव में दोनों फौजों का सामना हुआ, जिसमें बख्तसिंह को भागना पड़ा। अपने भाई का भागना महाराजा अभयसिंह को बुरा लगा, जिससे उनके आदेश से जोधपुर की फौज में शामिल शाहपुरा के महाराज उम्मेदसिंह ने बख्तसिंह का माल, हथिनी वगैरह बहुत कुछ लूट लिया।
1740 ई. – सलूम्बर रावत का देहांत व राजपूताने को एक करने की असफल कोशिश :- सलूम्बर के रावत केसरीसिंह चुण्डावत बहुत बीमार हुए। जब सलूम्बर रावत केसरीसिंह बीमार हुए, तब उनसे मिलने देवगढ़ के रावत जसवंत सिंह चुण्डावत भी आए।
सलूम्बर रावत ने अपने बेटों और देवगढ़ रावत जसवंत सिंह जी से कहा कि तुम सब भाई-भाई आपस में स्नेह रखना और लड़ाई-झगड़ों में मत उलझना। रावत जसवंत सिंह ने दिलासा दिया और जैसे ही कक्ष से बाहर निकले।
तभी रावत जसवंत सिंह की तरफ के एक राजपूत ने उनसे कहा कि “रावत केसरीसिंह बड़ा डरपोक है, देवगढ़ वालों की बहादुरी और बढ़ते प्रभाव से अपने बेटों को बचाना चाहता है”। ये बात रावत केसरीसिंह ने सुन ली और सबको भीतर बुलाया।
रावत केसरीसिंह ने क्रोधित होकर कहा कि “मैंने यह बात मामूली तौर पर कही थी, पर अब तुमको इष्ट की कसम है कि मेरे बेटों से अच्छी दुश्मनी रखना और मेरे बेटे भी उसका बदला ब्याज समेत अदा करेंगे”। रावत जसवंत सिंह ने अपने आदमी की मूर्खता पर बहुत माफी मांगी।
सलूम्बर रावत का क्रोध शांत न हुआ और उसी समय रावत केसरीसिंह ने अपने प्राण त्याग दिए। सलूम्बर रावत केसरीसिंह के प्राण क्रोध से नहीं, बल्कि राजपूतों की आपसी लड़ाइयों की चिंता में गए थे।
क्योंकि मेवाड़ का हाल इस समय ये था कि देवगढ़ व बेगूं, सलूम्बर व बेगूं, आमेट व देवगढ़ में लड़ाई थी, चुण्डावतों के चारों ठिकानों और भींडर के शक्तावतों में लड़ाई थी, मेवाड़ के चौहान व चुण्डावतों में, झाला व चुण्डावतों में लड़ाई थी, कायस्थ व महाजनों में भी आपस में नाइत्तिफाकी हो गई।
1741 ई. – मराठों से लड़ाई :- मराठों ने वागड़ से होते हुए मेवाड़ में प्रवेश किया और लूटमार मचाई। मेवाड़ की प्रजा ने महाराणा से मदद की गुहार लगाई, तो महाराणा जगतसिंह ने कानोड़ के रावत पृथ्वीसिंह सारंगदेवोत को फौज समेत लड़ने भेजा।
रावत पृथ्वीसिंह सारंगदेवोत विजयी रहे और मेवाड़ की सीमा से मराठों को बाहर निकाल दिया गया। इस समय तो यह संकट टल गया, परन्तु मराठे इतनी आसानी से हार मानने वाले नहीं थे। वे दोबारा मौके की तलाश करने लगे।
राजपूताने को एक करने की पुनः नाकाम कोशिश :- 1742 ई. में राजपूताने में आपसी लड़ाइयों और मराठों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित नए सलूम्बर रावत कुबेरसिंह चुण्डावत ने महाराणा जगतसिंह द्वितीय को ख़त लिखकर फ़िर से राजपूताने को एक करने का विचार रखा।
महाराणा जगतसिंह ने सभी राजाओं को एक करने हेतु पत्र भी लिखे, परन्तु आपसी कलह के कारण कुछ बात नहीं बन पाई। इसी एकता की कमी को मराठों ने मौका समझा। लेकिन इस समयकाल में सलूम्बर के रावत ने जिस प्रकार समझदारी से राजपूताने को एक करने के प्रयास किए, असफल ही सही, परन्तु उनके इस कार्य की प्रशंसा होनी चाहिए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)