महाराजा अजीतसिंह द्वारा महाराणा अमरसिंह से बिगड़े सम्बन्ध सुधारने का प्रयास :- औरंगज़ेब ने महाराणा अमरसिंह द्वितीय को सिरोही और आबूगढ़ की जागीरें दे दीं, जिसके बाद मारवाड़ के महाराजा अजीतसिंह राठौड़ ने सिरोही के देवड़ा राजपूतों का पक्ष लिया। इस बात से महाराणा अमरसिंह नाराज़ हो गए।
इन्हीं दिनों महाराजा अजीतसिंह और औरंगज़ेब के सिपाहियों के बीच छोटी-बड़ी लड़ाइयां हुईं, इसके अलावा राठौड़ वीर दुर्गादास की जागीर पर भी धोखे से हमला कर दिया गया। ये देखकर महाराजा अजीतसिंह को लगा कि अब औरंगज़ेब हमको जरूर मारने की फ़िराक़ में है।
महाराणा अमरसिंह द्वितीय से मेल करने का विचार करके 25 मार्च, 1706 ई. को महाराजा अजीतसिंह राठौड़ ने समीनाखेड़ा के गोसाईं हरनाथ गिरी के चेले नीलकंठ गिरी को पत्र लिखकर महाराणा से मेल कराने की बात कही, क्योंकि महाराणा गोसाईं हरनाथ गिरी का बड़ा सम्मान करते थे और उनको 15 हज़ार आमदनी की जागीर भी दी थी।
24 अप्रैल, 1706 ई. को महाराजा अजीतसिंह राठौड़ के एक सेवक विट्ठलदास भंडारी ने दोबारा नीलकंठ गिरी को पत्र लिखकर महाराणा अमरसिंह से मेल कराने की बात कही।
सूरतसिंह सारंगदेवोत की मेवाड़ वापसी :- महाराणा अमरसिंह की कुँवरपदे काल में जब अपने पिता से लड़ाई हुई थी, तब सूरतसिंह सारंगदेवोत ने कुँवर का पक्ष लिया था, जिससे महाराणा जयसिंह इन पर क्रोधित हुए और सूरतसिंह मेवाड़ छोड़कर रामपुरा चले गए थे। सूरतसिंह के बड़े भाई महासिंह के अर्ज़ करने पर महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने सूरतसिंह को वापिस मेवाड़ बुलाया और ‘रावत’ की पदवी दी।
औरंगज़ेब की मृत्यु :- 3 मार्च, 1707 ई. को अहमदनगर में औरंगज़ेब की मृत्यु हो गई। इस बादशाह का शासनकाल बहुत लंबा रहा। मेवाड़ के महाराणा राजसिंह, महाराणा जयसिंह, महाराणा अमरसिंह द्वितीय तीनों ही औरंगज़ेब के समकालीन थे।
औरंगज़ेब के मरते ही मुगल साम्राज्य की कमर टूट गई, जिसका सबसे बड़ा कारण औरंगज़ेब की हिंदू विरोधी नीतियां थीं। खेती और व्यापार में भारी क्षति होने लगी और मुगल सल्तनत के बहुत से सैनिक वेतन न मिलने के कारण चले गए।
शहज़ादे आज़म व शहज़ादे मुअज्ज़म में उत्तराधिकार संघर्ष हुआ, जिसमें आज़म मारा गया और मुअज्ज़म ‘शाहआलम बहादुरशाह’ के नाम से आगरा के तख्त पर बैठा। इस संघर्ष में महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने मुअज्ज़म की तरफदारी की थी।
बहादुरशाह द्वारा जयपुर व जोधपुर को खालिसे में शुमार करना :- औरंगज़ेब की मृत्यु का समाचार सुनकर मारवाड़ के महाराजा अजीतसिंह राठौड़ ने चढ़ाई कर मेहरानगढ़ दुर्ग पर विजय प्राप्त कर ली, लेकिन मुगल बादशाह बहादुरशाह ने मेहराब खां को फौज समेत भेजकर फिर से किले पर अपना कब्ज़ा कर लिया।
उत्तराधिकार संघर्ष में जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह कच्छवाहा ने आज़म का साथ दिया था और सवाई जयसिंह के छोटे भाई विजयसिंह ने बहादुरशाह का साथ दिया था, जिसके चलते बहादुरशाह ने बदला लेने की खातिर जयपुर को खालिसे में शुमार किया और विजयसिंह को जयपुर का महाराजा घोषित किया।
मार्च, 1708 ई. में बादशाह बहादुरशाह ने दक्षिण में कामबख्श के ख़िलाफ़ चढ़ाई कर दी। इस चढ़ाई में सवाई जयसिंह व महाराजा अजीतसिंह भी बादशाह के साथ थे, ताकि बादशाह खुश होकर उनकी रियासतें लौटा देवे।
लेकिन नर्मदा तक पहुंचने के बाद जब दोनों राजाओं को ये यकीन हो गया कि उनकी रियासतें इस तरह मिलने वाली नहीं हैं, तो दोनों महाराजा, वीर दुर्गादास सहित बग़ैर बादशाह से इजाज़त लिए सेना सहित लौट आए।
रास्ते में महाराजा सवाई जयसिंह ने एक पत्र महाराणा अमरसिंह द्वितीय को लिखा। इस पत्र में उन्होंने लिखा है कि हम दोनों बहादुरशाह के लश्कर से अलग होकर आपकी हुज़ूरी में आ रहे हैं।
8 मई, 1708 ई. को जोधपुर के मुकुंददास राठौड़ और जयपुर के चारण देवीदान गाडण ने महाराणा अमरसिंह के मंत्री बिहारीदास पंचोली को पत्र लिखे, जिनमें लिखा था कि जोधपुर और जयपुर के महाराजा बड़ी सादड़ी पहुंच गए हैं।
चारण देवीदान गाडण ने एक और पत्र बिहारीदास पंचोली को लिखा, जिसमें लिखा था कि महाराणा अमरसिंह जी का संदेश पाकर महाराजा सवाई जयसिंह को बड़ी खुशी हुई और महाराणा द्वारा भेजे गए उपहार भी प्राप्त हुए।
11 मई, 1708 ई. को महाराणा अमरसिंह उदयपुर राजमहलों से रवाना हुए और उदयसागर झील की पाल पर पहुंचे और वहीं नज़दीक स्थित महलों में रात रुके। अगले दिन महाराणा अमरसिंह उदयसागर से रवाना हुए और गाडवा गांव में पहुंचे।
महाराजा अजीतसिंह व महाराजा सवाई जयसिंह के साथ वीर दुर्गादास राठौड़ व ठाकुर मुकुंददास चांपावत भी थे। महाराणा पहले महाराजा अजीतसिंह से मिले। फिर सवाई जयसिंह से मिले और उनके बाद क्रमशः वीर दुर्गादास व ठाकुर मुकुंददास से मिले।
दोनों राजाओं ने चंवर और छांहगी नहीं रखा था, तो महाराणा ने अपनी तरफ से दिया। फिर महाराणा सभी को साथ लेकर उदयसागर पहुंचे। झील किनारे भोजन किया और फिर वहां से रवाना हुए। महाराणा अमरसिंह इस समय ‘मनमान प्यारा’ नामक सफ़ेद घोड़े पर बिराजे।
महाराणा के साथ दाहिनी तरफ महाराजा अजीतसिंह और बाई तरफ महाराजा सवाई जयसिंह अपने-अपने घोड़ों पर बैठकर चले और कुछ पीछे वीर दुर्गादास अपने प्रसिद्ध घोड़े पर सवार होकर चले।
इस तरह देबारी के रास्ते से होते हुए उदयपुर के राजमहलों में दाख़िल हुए, दोनों महाराजा शिवप्रसन्न अमर विलास महल में रात रुके, इस महल का नाम बाद में बाड़ी महल पड़ गया। महाराणा अमरसिंह ने सूरज चौपाड़ में विश्राम किया।
अगले दिन सुबह से ही विधिवत रूप से महाराजा अजीतसिंह को कृष्णविलास में व सवाई जयसिंह को सर्वऋतु विलास में ठहराया। कुछ समय बाद दोनों महाराजा महाराणा अमरसिंह के काका महाराज गजसिंह की हवेली में गए। महाराज गजसिंह की पुत्री का विवाह 1696 ई. में महाराजा अजीतसिंह से हुआ था, इसलिए सम्बन्धी होने के नाते मिलने गए।
शाम के वक्त महलों के नीचे नाहरों के दरीखाने में दरबार हुआ। महाराणा बड़ी पोल तक पेशवाई करके दोनों महाराजाओं को दरबार में ले आए। महाराणा के दाई तरफ महाराजा अजीतसिंह व बाई तरफ महाराजा सवाई जयसिंह बैठे। वीर दुर्गादास महाराजा अजीतसिंह की गद्दी के सामने वाली गद्दी के कोने पर बैठे।
फिर दरबार में जरूरी बातचीत व रोजमर्रा की आवश्यक कार्रवाइयां हुईं। दरबार के बाद दोनों महाराजाओं के लिए बढ़िया भोजन तैयार करवाया गया, लेकिन तभी महाराणा अमरसिंह के काका बहादुरसिंह का देहांत हो गया। बनाया गया भोजन घोड़ों को खिला दिया गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)