महाराणा अमरसिंह द्वितीय का जीवन परिचय :- महाराणा अमरसिंह द्वितीय का जन्म 30 अक्टूबर, 1672 ई. को हुआ। इनके पिता महाराणा जयसिंह व दादाजी महाराणा राजसिंह थे।
व्यक्तित्व :- महाराणा अमरसिंह द्वितीय का कद मंझला, रंग गेहुंवां, आँखें बड़ी व चौड़ी पैशानी थी। मिजाज़ के तेज़, ज़िद्दी व गुस्से की हालत में क्रूर व्यवहार भी करते थे। मेवाड़ में शराब का सेवन करने वाले पहले महाराणा ये ही थे।
इन महाराणा में कुछ अवगुण थे, लेकिन बहुत से गुणों के चलते बाकी सब अवगुण रद्द हो जाते हैं। इन महाराणा के समय प्रजा पर कोई ज़ुल्म नहीं कर सकता था। महाराणा अमरसिंह के शासनकाल में प्रजा सुखी थी और खेती का काम ज्यादा अच्छे तरीके से हुआ।
महाराणा अमरसिंह जब मेवाड़ की गद्दी पर बिराजे, तब मेवाड़ की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी, लेकिन फिर भी इन महाराणा ने समय-समय पर मुगल सल्तनत का विरोध जारी रखा। महाराणा अमरसिंह अपने जीवन में बड़े इरादे रखते थे। कूटनीति के मामले में ये महाराणा राजसिंह से कम बिल्कुल नहीं थे।
युद्धों व लड़ाई-झगड़ों आदि में महाराणा अमरसिंह द्वितीय बेहद बहादुर थे। महाराणा अमरसिंह के शासनकाल में राजपूताने में वो हुआ, जिसका इंतज़ार राजपूत लोग सदियों से कर रहे थे। इन महाराणा के समय में मेवाड़, मारवाड़ व आमेर में एकता का सूत्रपात हो गया।
महाराणा अमरसिंह प्रबन्धकुशल थे। उन्होंने मेवाड़ में जागीरों का बढ़िया प्रबंध किया। इन्होंने ही मेवाड़ में 16 उमराव व 32 राव के ठिकाने नियत किए। महाराणा ने मेवाड़ की आंतरिक स्थिति को सुधारने के भी बहुत प्रयास किए।
महाराणा अमरसिंह ने परगनों का प्रबंध, दरबार का तरीका, सरदारों की बैठक, सीख के नियम व अन्य उपयोगी नियम बनाकर मेवाड़ में राज्य प्रबंध को ठीक कर दिया। जब तक इन महाराणा के बनाये हुए ये नियम मेवाड़ में लागू रहे, तब तक यहां शांति रहे।
राज्य प्रबंध से सम्बंधित इन नियमों के कारण महाराणा अमरसिंह को एक अच्छा प्रबंधकर्ता कहा जाता है। महाराणा अमरसिंह विद्वानों का सम्मान करते थे। महाराणा अमरसिंह द्वितीय गुहिल वंश के 60वें व सिसोदिया वंश के 18वें शासक थे।
1676 ई. में राजसमन्द झील की प्रतिष्ठा के अवसर पर जब महाराणा राजसिंह ने स्वर्ण का तुलादान किया, तब उन्होंने अपने पौत्र भंवर अमरसिंह को भी साथ में बिठाया। (दादाजी की जीवित अवस्था में पौत्र के नाम के आगे ‘भंवर’ व पुत्र के नाम के आगे ‘कुंवर’ लगता है)
महाराणा जयसिंह के समय कुँवर अमरसिंह ने बग़ावत कर दी थी। कुँवर अमरसिंह 20 हज़ार व महाराणा जयसिंह 50 हज़ार की फ़ौज लेकर आमने-सामने आने ही वाले थे कि सामन्तों ने दोनों पक्षों में सुलह करवाकर अनर्थ होने से रोक लिया।
सुलह के बाद कुँवर अमरसिंह को राजनगर का क्षेत्र दे दिया गया, जहां महाराणा कोई दखलंदाजी न करें, ऐसा तय हुआ। (एक ही रियासत में एक ही नाम के अन्य राजा भी हुए हों, तो उनके नाम के पीछे द्वितीय, तृतीय लगा दिया जाता है, ताकि पहचान करने में आसानी हो)
महाराणा अमरसिंह द्वितीय का राज्याभिषेक :- 23 सितंबर, 1698 ई. को महाराणा जयसिंह का देहांत हो गया। महाराणा जयसिंह के देहांत की ख़बर सुनकर कुँवर अमरसिंह राजनगर (वर्तमान में राजसमंद) से उदयपुर के लिए रवाना हुए।
देबारी के घाटे तक पहुंचे, जहां प्रधान दामोदरदास पंचोली व मेवाड़ के सामंत आदि पेशवाई के लिए हाजिर हुए। उस वक्त महाराणा अमरसिंह की खवासी में हाथी पर कायस्थ छीतर बैठा था। सभी सामंत अलग-अलग सवारियों में आगे पीछे चल रहे थे कि तभी उनकी नज़र कायस्थ छीतर पर पड़ी।
मेवाड़ रियासत का दस्तूर था कि जब महाराणा हाथी पर सवार हों, तो खवासी में मुसाहिब बैठता था। इस समय मुसाहिब व प्रधान दयालदास कायस्थ थे। सामन्तों ने जब इस परिवर्तन को देखा, तो नाराज़ होकर सफ़र के बीच में ही ठहरते गए और देखते ही देखते कुछ सामंत ही महाराणा के साथ रह गए और बाकी सब पीछे छूट गए।
तब महाराणा अमरसिंह ने छीतर कायस्थ से पूछा कि “ये क्या हो रहा है ?” तब छीतर कायस्थ ने कहा कि “ये सब मेरे खवासी में बैठने के कारण हुआ है।” ये सुनकर महाराणा अमरसिंह ने छीतर कायस्थ को घोड़े पर बिठाया और दामोदरदास को खवासी में बिठा लिया।
महाराणा अमरसिंह ने दामोदरदास से कहा कि “मुझको इस दस्तूर का ध्यान नहीं था, इसलिए तुम्हारा हक गलती से छीतर को दे दिया।” दामोदरदास ने अपना सिर झुकाकर कृतज्ञता प्रकट की। इसके बाद सभी सामंत फिर से महाराणा के साथ हो लिए।
28 सितंबर, 1698 ई. को महाराणा अमरसिंह मेवाड़ की राजगद्दी पर बिराजे और सभी सामन्तों ने नज़रें दीं। महाराणा अमरसिंह द्वारा अपने कुँवरपदे काल में पिता महाराणा जयसिंह से बग़ावत की गई थी, उस दौरान बहुत से सामंत अमरसिंह जी से नाराज़ हो गए थे।
महाराणा अमरसिंह ने गद्दीनशीनी के बाद नाराज़ सामन्तों को भी तसल्ली देकर मना लिया। मेवाड़ में दस्तूर था कि गद्दीनशीनी के बाद में सही मुहूर्त पर राज्याभिषेक का उत्सव रखा जाता था। इन महाराणा के राज्याभिषेक का उत्सव लगभग सवा वर्ष बाद 15 जनवरी, 1700 ई. को रखा गया।
महाराणा अमरसिंह ने उदयपुर के कैलाशपुरी में स्थित एकलिंग नाथ जी के मंदिर में दर्शन किए और वहीं से महाराणा को तलवार प्रदान की गई। ये भी दस्तूर था कि मेवाड़ के महाराणा गद्दीनशीनी के बाद एकलिंगनाथ जी के मंदिर में जाते थे और उनको तलवार वहीं से प्रदान की जाती।
महाराणा अमरसिंह के राज्याभिषेक के समय पल्लीवाल जातीय हरराम व्यास के पुत्र वैकुंठ ने अमरसिंहाभिषेक नामक काव्य की रचना की, जिसमें 179 श्लोक हैं।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)