मेवाड़ महाराणा राजसिंह (भाग – 21)

1679-1680 ई. में मुगल बादशाह औरंगज़ेब व महाराणा राजसिंह के बीच छापामार संघर्ष चरम सीमा पर पहुंच गया। औरंगज़ेब द्वारा फौजी बदलाव किए गए व बेहतर काम करने वालों को इनाम भी दिए गए।

इन्हीं दिनों मेवाड़ में तैनात मीर बख्शी सर्वलन्द खां बीमार होकर मर गया, उसकी जगह रुहुल्ला खां को मीर बख्शी बनाया गया। औरंगजेब ने सलावत खां को तोपखाने का दारोगा नियुक्त कर मेवाड़ में तैनात किया। मेवाड़ में मांडल वगैरह कस्बों पर कब्ज़ा करने के एवज में औरंगज़ेब ने तहव्वुर खां को ‘बादशाह कुली’ का खिताब दिया।

हसन अली खां का लापता होना :- जनवरी, 1680 ई. में औरंगज़ेब का सिपहसालार हसन अली खां अपनी 7 हज़ार की फौज के साथ मेवाड़ के पश्चिमोत्तर पहाड़ों में खो गया, जिसकी कई दिनों तक कोई ख़बर नहीं मिली।

इस घटना से मुगल सिपाही भयभीत हो गए, राजपूतों से भय के कारण कोई हसन अली को ढूंढने नहीं जा रहा था। फिर औरंगज़ेब ने तुराकी मीर शिहाबुद्दीन को कुछ सैनिकों के साथ उसका पता लगाने भेजा। मीर शिहाबुद्दीन 2 दिन बाद हसन अली खां का पता लगाकर लौट आया, तो औरंगज़ेब ने शिहाबुद्दीन को इस काम के लिए ईनाम दिया और पदवृद्धि की।

औरंगज़ेब

औरंगज़ेब के आदेश से मेवाड़ में मंदिरों का विध्वंस :- 2 फरवरी, 1680 ई. को हसन अली खां ने महाराणा राजसिंह के डेरे पर हमला किया। इस हमले में हसन अली ने महाराणा की रसद और तंबू का सामान लूट लिया।

5 फरवरी, 1680 ई. को औरंगज़ेब उदयपुर की उदयसागर झील की पाल पर पहुंचा। यह झील महाराणा उदयसिंह ने बनवाई थी। इस झील के किनारे महाराणा उदयसिंह द्वारा निर्मित तीन मन्दिर औरंगज़ेब ने गिरवा दिए।

मुन्तखबुल्लुबाब में खफी खां लिखता है कि “बादशाह आलमगीर (औरंगज़ेब) उदयसागर तालाब पर थे। राजपूत लोगों ने कई शाही थानों पर हमले किए। एक बार तो दो-ढाई हजार सवारों को धोखे से पहाड़ों में ले गए, जहां खूब लड़ाई हुई और शाही मुलाज़िम मारे गए, बहुतों का तो पता तक नहीं चला। इस बात से बादशाह ने तत्काल राजपूतों से लड़ाई का इरादा किया”

10 फरवरी, 1680 ई. को हसन अली खां महाराणा के लूटे हुए सामान को 20 ऊंटों पर लादकर औरंगज़ेब के सामने हाज़िर हुआ। हसन अली खां ने बादशाह से कहा कि “मैंने उदयपुर में 122 मंदिर गिरा दिए हैं” (मासिरे आलमगिरी में 122, यदुनाथ सरकार ने 173, मुंशी देवीप्रसाद व डॉक्टर ओझा ने 172 मंदिर गिराए जाने की बात लिखी है)

महाराणा राजसिंह

खुश होकर औरंगज़ेब ने हसन अली को “बहादुर आलमगीर शाही” का खिताब दिया। 22 फरवरी, 1680 ई. को औरंगज़ेब उदयपुर व देबारी में तबाही मचाते हुए चित्तौड़ पहुंचा। औरंगज़ेब ने चित्तौड़ में 63 मन्दिर गिराए।5 मार्च, 1680 ई. को औरंगज़ेब ने अबूतुराब को भेजकर आमेर में 66 मन्दिर गिरवा दिए।

महाराणा राजसिंह की जवाबी कार्रवाई :- औरंगज़ेब ने निरंतर ना सिर्फ दुश्मन रियासतों में, बल्कि मित्र रियासतों में भी मंदिर तुड़वाना जारी रखा। इस एक वर्ष में मेवाड़ के सैंकड़ों छोटे-बड़े मंदिर ध्वस्त कर दिए गए।

जवाबी कार्रवाई में महाराणा राजसिंह ने आँख के बदले आँख की रणनीति अपनाते हुए अपने बेटे कुँवर भीमसिंह को 4 हज़ार की फौज देकर गुजरात की तरफ भेजकर 1 बड़ी मस्जिद व 300 अन्य मस्जिदें तुड़वा दीं। कुँवर भीमसिंह ने गुजरात के बड़नगर को लूटकर 40 हज़ार व अहमदनगर को लूटकर 2 लाख रुपए वसूल किए। साथ ही कुँवर ने ईडर के शाही मुलाजिमों को भी लूट लिया।

महाराणा राजसिंह ने कुँवर जयसिंह को चित्तौड़ की तरफ भेजकर बहुत सी मस्जिदें तुड़वा दीं। इसी तरह महाराणा ने मंत्री दयालदास को मालवा की तरफ भेजकर कई मस्जिदें तुड़वाईं। दयालदास मालवे के कई शाही इलाकों में भारी लूटमार कर ऊँटों पर सोना लादकर महाराणा के सामने हाजिर हुए।

फ़ारसी तवारीख मिराते अहमदी में लिखा है कि “जिस साल बादशाही ज़बरदस्त फौज राजपूताना के सरदारों और खासकर राणा को धमकाने और पीछा करने पर मुकर्रर थी, राजपूत लोग घरों को छोड़कर पारे की तरह उछलते और एक जगह नहीं ठहर सकते थे। हज़रत बादशाह थोड़े दिनों के लिए चित्तौड़ में ठहरे थे, उस वक्त राणा का छोटा बेटा भीमसिंह बादशाही फ़ौज से डरकर एक टुकड़ी के साथ पहाड़ों से निकलकर गुजरात के इलाके की तरफ भागा और वहां जाकर कमअक्ली से बड़नगर वग़ैरह कस्बे और गांवों को लूटने के बाद फिर से मेवाड़ के पहाड़ों में चला गया।”

मिराते अहमदी में जो कुछ भी लिखा है उससे साफ जाहिर है कि इन तवारीखों में औरंगज़ेब की नाकामयाबी छुपाई गई। क्योंकि एक तो यहां लिखा है कि भीमसिंह डरकर भागे और फिर भागे भी तो पहाड़ी इलाका छोड़कर गुजरात के समतल मैदान में। भागे तो भागे पर वहां जाकर बादशाही थाने लूट लिए। मिराते अहमदी की खुशामद यहीं खत्म नहीं होती। इसमें लिखा है कि भागकर फिर उन्हीं पहाड़ियों में लौट आए, जहां से पहले भागे थे।

बहरहाल, मार्च, 1680 ई. में औरंगज़ेब ने अपने बेटे शहज़ादे अकबर को 40 हज़ार की कीमत का सर्पेच देकर शाही फौज के साथ मेवाड़ महाराणाओं की आस्था के प्रतीक एकलिंग जी के भव्य मंदिर को ध्वस्त करने भेजा। शहज़ादा अकबर, तहव्वुर खां आदि उदयपुर पहुंचे और वहां से कैलाशपुरी के लिए निकले।

एकलिंग जी मंदिर पर आक्रमण की ख़बर भला एकलिंग दीवान महाराणा राजसिंह कैसे सहन कर सकते थे। महाराणा ने फौरन कर्केट/कारगेट के प्रतापसिंह झाला व भदेसर के बल्ला राजपूतों को अकबर की फौज को एकलिंग जी के मंदिर तक पहुंचने से पहले ही रोकने का आदेश दिया।

एकलिंग जी मंदिर

आम्बेरी गांव और चीरवा के घाटे के पास राजपूतों ने मुगल फौज पर अचानक आक्रमण किया, जिससे मुगल फौज के पांव उखड़ गए। प्रतापसिंह झाला ने मुगलों के 2 हाथी पकड़े और बल्ला राजपूतों ने 2 हाथी, घोड़े व ऊंट पकड़ कर महाराणा राजसिंह को नज़र किए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

3 Comments

  1. Anindya Ray
    September 1, 2021 / 2:46 pm

    Please post these stories of our pride in English also as I am not adept in Hindi. I feel when I can not go through of it.

  2. Amit Kumar
    September 1, 2021 / 4:41 pm

    हम अपने भव्य इतिहास से बे खबर रहै।

  3. शीश भाटी
    September 25, 2021 / 5:36 pm

    राजपूतों के असली इतिहास को छुपाया गया था राजपूतों की विरगाथा ऐसी थी की इनको दर्शाया नही गया महाराणा प्रताप के नाम से अकबर सपने मैं डरता था तो सोचो राणा जी से लडने की हिम्मत कैसे कर सकता था

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