मेवाड़ महाराणा राजसिंह (भाग – 3)

1654 ई. – मुगल बादशाह शाहजहाँ की मेवाड़ के विरुद्ध चढ़ाई :- शाहजहाँ द्वारा मेवाड़ पर चढ़ाई के प्रमुख कारण कुछ इस तरह हैं :- संधि की शर्त के अनुसार महाराणा राजसिंह द्वारा एक हज़ार घुड़सवार मुगल सेवा में भेजने थे, लेकिन महाराणा ने कम सैनिक भेजे।

उन दिनों मेवाड़ में टीका दौड़ की एक रस्म हुआ करती थी, जिसके तहत महाराणा द्वारा पड़ौसी शत्रु मुल्कों को लूटा जाता व जबरन कर वसूला जाता। यदि पड़ौसी राज्य शत्रु ना होते, तब महाराणा द्वारा मेवाड़ के ही भीलों व मेरों के इलाकों में नाटकीय अंदाज़ में लूट की रस्म की जाती।

मेवाड़ के पड़ौसी राज्य, जो शाहजहाँ के हुक्म मानते थे पर महाराणा के हुक्म नहीं मानते थे, महाराणा ने उन पर टीका दौड़ की रस्म आज़माने का विचार किया। हालांकि ये कदम महाराणा ने इस समय नहीं उठाया, फिर भी टीका दौड़ वाली बात शाहजहाँ तक पहुंच गई।

जब महाराणा राजसिंह द्वारा मुगलों का विरोध किया जा रहा था तब ये बात फैलती हुई गरीबदास तक पहुंची। गरीबदास महाराणा राजसिंह के काका थे, जो कि किसी कारणवश बादशाही सेवा में चले गए थे।

दिसंबर, 1653 ई. में गरीबदास को ख़बर मिली, तो वे बिना शाहजहाँ को बताए ही मुगल सेवा छोड़कर मेवाड़ महाराणा का साथ देने चले आए। इस बात से बादशाह को और क्रोध आया और उसने गरीबदास का मनसब व जागीर जब्त कर ली।

महाराणा राजसिंह

सबसे महत्वपूर्ण कारण :- मेवाड़-मुगल संधि की शर्त के अनुसार मेवाड़ के महाराणा चित्तौड़गढ़ दुर्ग की मरम्मत नहीं करवा सकते थे, पर महाराणा जगतसिंह ने ये कार्य शुरू करवा दिया था। महाराणा राजसिंह ने गद्दी पर बैठते ही चित्तौड़गढ़ दुर्ग की मरम्मत का कार्य बड़ी तेजी से फिर शुरू करवाया।

4 अक्टूबर, 1654 ई. को शाहजहाँ महाराणा को काबू में करने के लिए दिल्ली से अजमेर की ओर रवाना हुआ। मार्ग से ही उसने अब्दालबेग को चित्तौड़ की मरम्मत देखने के लिए भेजा।

शाहजहांनामा में विस्तार से लिखा है कि “जहांगीर बादशाह के ज़माने में चित्तौड़ के किले की मरम्मत नहीं करने का हुक्म जारी हो चुका था, मगर राणा जगतसिंह ने उस हुक्म की बर्ख़िलाफी करके उस किले की मरम्मत कर ली है। ये सुनकर बादशाह शाहजहां ने अब्दाल बेग को हकीकत पता लगाने के लिए भेजा।”

शाहजहांनामा में आगे लिखा है कि “अब्दाल बेग ने वापस आकर अर्ज़ की कि चित्तौड़ के किले में पश्चिम की तरफ सात दरवाज़े एक के ऊपर एक हैं, उनमें से कुछ दरवाज़े पुराने गिरे पड़े थे, जिनको ठीक करवाया गया और बहुत से दरवाज़े नए भी बनाए गए हैं और बहुत सी जगह जहां से पहाड़ के ऊपर चढ़ना मुश्किल न था, वहां दीवारें बना दी हैं।”

शाहजहाँ ने अपने वज़ीर सादुल्ला खां को 30,000 जंगी सवार देकर चित्तौड़ के किले की मरम्मत खराब करने के लिए भेजा। सादुल्ला खां मुगल सल्तनत में बड़े दर्जे के पद पर था। उसका मनसब 7 हज़ार जात व 7 हज़ार सवार का था। इस बादशाही फौज में 1500 बंदूकची भी शामिल थे।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

महाराणा राजसिंह ने इस समय बादशाही फौज से लड़ना बेहतर नहीं समझा और जो कुछ राजपूत सैनिक चित्तौड़ में तैनात थे, उनको वहां से हटने का आदेश दिया। 27 अक्टूबर, 1654 ई. को शाहजहां अजमेर के आनासागर तालाब के निकट दौलतखाने में गया और शाम को दरगाह में ज़ियारत करने गया। इसी दिन सादुल्ला खां फ़ौज समेत चित्तौड़गढ़ दुर्ग के निकट पहुंचा।

महाराणा ने चित्तौड़ में तैनात मेवाड़ी फौज को वहां से हटा दिया और शाहजहाँ के बेटे दाराशिकोह के पास अपना दूत भेजकर मामला रफा-दफा करने का प्रस्ताव रखा।

महाराणा राजसिंह को ख़बर मिली कि सादुल्ला खां ने चित्तौड़ में तोड़-फोड़ शुरु कर दी है, तो महाराणा ने मधुसूदन भट्ट व रायसिंह झाला को भेजकर सुलह के ज़रिए तोड़-फोड़ रुकवाने भेजा, पर बात नहीं बन पाई।

सादुल्ला खां ने महाराणा राजसिंह के बहुत से कुसूर बताए और सबसे बड़ा कुसूर ये बताया कि गरीबदास बिना बताए बादशाही सेवा छोड़कर क्यों चला गया। मधुसूदन ने जवाब में कहा कि “ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, इससे पहले भी महाराज शक्तिसिंह और रावत मेघसिंह ने उदयपुर की सेवा में हाजिर होने के लिए बिना बताए बादशाही सेवा छोड़ी थी।”

ये सुनकर सादुल्ला खां और क्रोधित होकर बोला कि “उदयपुर को दिल्ली के दूसरे दर्जे का समझने लगे हो क्या ?” सादुल्ला खां ने चित्तौड़ में इन दोनों से पूछा कि “तुम्हारे पास कितनी फौज है”, तो मधुसूदन ने जवाब दिया कि हमारे पास 26 हज़ार की फ़ौज है। इस पर सादुल्ला खां ने कहा कि बादशाह के पास इस वक़्त अजमेर में 1 लाख सवार हैं। मधुसूदन ने जवाब दिया कि “मेवाड़ के 26 हज़ार ही काफ़ी हैं।”

शाहजहाँ ने महाराणा को समझाने के लिए मुंशी चन्द्रभान ब्राह्मण को भेजा। मुंशी चंद्रभान पटियाले का रहने वाला ब्राह्मण था। वह फ़ारसी का बड़ा विद्वान था व शहज़ादे दाराशिकोह का मुंशी था। उसने फ़ारसी में बहुत सारी किताबें भी लिखी। उसके लिखे हुए पत्रों का संग्रह ‘इंशाए ब्राम्हण’ नाम से प्रसिद्ध है।

शाहजहां

4 नवम्बर, 1654 ई. को मुंशी चन्द्रभान ब्राह्मण उदयपुर पहुंचा। महाराणा राजसिंह ने कायदे से उसकी खातिरदारी की। चन्द्रभान ने महाराणा को समझाया कि आप दक्षिण में अपने एक हजार सवार भेज देवें और अपने कुँवर को दरबार में भेजें।

मुंशी चंद्रभान ने मेवाड़ में जो कुछ भी देखा व महाराणा राजसिंह को कहा वो सब एक के बाद एक 4 अलग-अलग पत्रों में लिखकर शाहजहां के पास भेजा। इन चार में से पहले पत्र को हूबहू अगले भाग में पोस्ट किया जाएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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