फरवरी, 1636 ई. में शाहजहां ने आदिल खां के विरुद्ध एक सेना भेजी। इस सेना में महाराणा जगतसिंह की तरफ से भेजे गए सैनिक भी शामिल थे, जिनका नेतृत्व भोपत सिसोदिया ने किया। भोपत सिसोदिया महाराणा प्रताप के तीसरे पुत्र सहसमल के पुत्र थे।
सितंबर, 1636 ई. में महाराणा जगतसिंह ने देलवाड़ा के मानसिंह झाला के पुत्र कल्याण झाला को शाहजहां के पास भेजा। जिन अभियानों में महाराणा के सिपाहियों ने भाग लिया था, उन अभियानों में विजय की बधाई देने के लिए कल्याण झाला को भेजा गया।
ये औपचारिकताएँ मात्र थीं, ताकि शाहजहां का क्रोध समय-समय पर शांत किया जा सके। 14 अक्टूबर, 1636 ई. को शाहजहां ने कल्याण झाला को विदाई दी। विदाई के समय महाराणा जगतसिंह के लिए जड़ाऊ सरपेच व जड़ाऊ तलवार भेजी गई।
1 दिसम्बर, 1636 ई. को शाहजहां अजमेर पहुंचा। महाराणा जगतसिंह ने 7 वर्षीय कुँवर राजसिंह को अजमेर भेजकर शाहजहां को 9 घोड़े भेंट किए। शाहजहाँ ने कुंवर राजसिंह को खिलअत, जड़ाऊ सरपेच व मोतियों की एक माला भेंट की।
4-5 दिन बाद विदाई के समय शाहजहां ने कुँवर राजसिंह को खिलअत, जड़ाऊ खपवा, मीनाकारी के काम वाली एक तलवार, हाथी, घोड़ा आदि भेंट किए। कुँवर राजसिंह के साथ गए सरदारों में से राव बल्लू चौहान, रावत मानसिंह चुंडावत आदि को खिलअत व घोड़े भेंट किए गए। शाहजहां ने महाराणा जगतसिंह के लिए भी एक हाथी भिजवाया।
इन्हीं दिनों शाहजहां ने जुनेर का किला जीतने के लिए एक फ़ौज भेजी। महाराणा जगतसिंह पर भी दबाव बनाया गया, तो उन्होंने एक हज़ार घुड़सवार और एक हज़ार पैदल सिपाही इस अभियान में शामिल होने के लिए रवाना कर दिए।
3 दिसम्बर, 1637 ई. को महाराणा जगतसिंह ने देलवाड़ा के मानसिंह झाला के पुत्र कल्याण झाला को भेजकर शाहजहां को कुछ उपहार भेंट किए। 30 जनवरी, 1638 ई. को शाहजहां ने कल्याण झाला को एक हाथी देकर विदा किया। साथ ही महाराणा जगतसिंह के लिए भी एक खिलअत व हाथी भिजवाया गया।
21 जून, 1640 ई. को महाराणा जगतसिंह ने अपने भांजे रामसिंह राठौड़ को शाहजहां के दरबार में भेजा। शाहजहां ने रामसिंह राठौड़ को खिलअत भेंट की व 1 हजार जात और 600 सवारों का मनसब दिया। रामसिंह राठौड़ वही थे, जिन्होंने देवलिया के विरुद्ध महाराणा जगतसिंह के आदेश से अनैतिक कार्रवाई करके शाहजहाँ को नाराज किया था।
1641 ई. में महाराणा जगतसिंह की माता जाम्बुवती बाई जी ने अपने 12 वर्षीय पौत्र कुँवर राजसिंह के साथ द्वारिकापुरी की यात्रा हेतु प्रस्थान किया। महाराणा जगतसिंह ने साथ में एक फ़ौज भी भेजी। द्वारिकापुरी में राजमाता ने स्वर्ण का तुलादान किया व लाखों रुपए का दान दिया।
फिर उदयपुर आने के बाद पुनः राजमाता ने गंगास्नान हेतु कुँवर राजसिंह व फौजी दस्ते के साथ प्रस्थान किया। सोरम जी में पहुंचकर राजमाता व कुँवर राजसिंह दोनों ने स्वर्ण के तुलादान किए। इसके अतिरिक्त अलग से लाखों रुपए गरीबों में दान किए।
इन दोनों ही यात्राओं के दौरान मार्ग में कई जगह बादशाही मुलाजिमों ने रोक-टोक की, ऊपर से कुँवर राजसिंह तेज तर्रार मिजाज़ के थे। कुँवर ने मार्ग में कई जगह इन मुलाजिमों से झगड़े किए। कुँवर राजसिंह की शिकायत बढ़ा चढ़ाकर शाहजहां से की गई।
महाराणा जगतसिंह ने देवलिया, डूंगरपुर, सिरोही और बांसवाड़ा पर आक्रमण करके शाहजहां को पहले ही क्रोधित कर रखा था, उसके बाद शाही सेवा में कम सैनिक भेजकर महाराणा ने शाहजहां को और नाराज कर दिया।कुँवर राजसिंह द्वारा मुगलों से किए गए झगड़े भी मुगल विरोधी कार्रवाइयों में शामिल हो चुके थे।
इसके अतिरिक्त मेवाड़-मुगल सन्धि की शर्त के अनुसार महाराणा को चित्तौड़गढ़ दुर्ग की मरम्मत करवाने का अधिकार नहीं था। महाराणा कर्णसिंह ने सन्धि की शर्त का उल्लंघन करते हुए मरम्मत कार्य शुरू करवाया था। महाराणा जगतसिंह ने इस मरम्मत कार्य को और तेजी से करवाना शुरू कर दिया।
आख़िरकार शाहजहां ने महाराणा जगतसिंह को अपने रुतबे का एहसास कराने के लिए अजमेर जाने का फैसला किया। 21 अक्टूबर, 1643 ई. को शाहजहां ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की ज़ियारत के बहाने भारी भरकम फ़ौज सहित अजमेर के लिए रवाना हुआ।
महाराणा जगतसिंह को ये बात मालूम हुई, तो उन्होंने शाहजहां को प्रसन्न करने के लिए अपने ज्येष्ठ पुत्र कुँवर राजसिंह को पहले ही अजमेर के लिए रवाना कर दिया। 10 नवम्बर, 1643 ई. को जब शाहजहां कृष्णगढ़ के पास पहुंचा, तो कुँवर राजसिंह ने वहां शाहजहां को एक हाथी भेंट किया।
शाहजहां ने कुँवर राजसिंह को जड़ाऊ सरपेच, खिलअत, जड़ाऊ जमधर और सोने की जीन वाला घोड़ा भेंट किया। 19 नवम्बर, 1643 ई. को विदाई के वक्त शाहजहां ने कुँवर राजसिंह को खिलअत, तलवार, ढाल, सोने से सुसज्जित हाथी, घोड़े व जड़ाऊ जेवर भेंट किए।
कुँवर राजसिंह के साथ आए 2 बड़े पद वाले राजपूतों को घोड़े व खिलअत तथा 8 अन्य राजपूतों को खिलअत भेंट की गई। शाहजहां ने महाराणा जगतसिंह के लिए एक मोतियों की माला, ढाल, तलवार व सोने से सुसज्जित 2 घोड़े भेंट करने हेतु भिजवाए। इन दो घोड़ों में से एक घोड़ा अरबी व दूसरा इराकी था।
इस प्रकार महाराणा जगतसिंह एक तरफ मुगल विरोधी कार्रवाइयां भी कर रहे थे और दूसरी तरफ शाहजहां को समय-समय पर उपहार आदि भेजकर उसका गुस्सा शांत भी कर रहे थे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)