मेवाड़ महाराणा कर्णसिंह (भाग – 5)

जब ख़ुर्रम ने परवेज़ से हुई लड़ाई में शिकस्त खाई, तो वह भागकर दक्षिण की तरफ गया और वहां से लौटकर पुनः मेवाड़ आ गया। कुछ महीने तक ख़ुर्रम उदयपुर में ही रहा। ख़ुर्रम को मेवाड़ में शरण देने के मामले में महाराणा कर्णसिंह ने मुगल बादशाह जहांगीर की भी कोई परवाह नहीं की। वीरविनोद ग्रंथ के अनुसार ख़ुर्रम 1624 ई. से 1626 ई. के बीच कुछ माह उदयपुर में रहा।

1626 ई. में ख़ुर्रम ने अपने 2 शहज़ादों दाराशिकोह और औरंगज़ेब को जहांगीर के दरबार में भेजा। इसी वर्ष जहांगीर महाबत खां से नाराज़ हो गया और जान बचाकर भाग निकला। महाबत खां भी जानता था कि जहांगीर के कहर से वो केवल मेवाड़ में ही बच सकता है।

महाबत खां बगावत करके मेवाड़ आ गया और उदयपुर व देवलिया के पहाड़ी इलाकों में रहा। उसने देवलिया के रावत जसवंतसिंह को एक कीमती जवाहरातों से जड़ित अंगूठी भेंट की, क्योंकि महाबत खां को शरण देने में रावत जसवंतसिंह मुख्य थे।

इन्हीं दिनों मेवाड़ में मेरों ने बगावत कर दी। महाराणा कर्णसिंह ने बगावत को कुचलने के लिए ठाकुर जयसिंह डोडिया को मेवाड़ी फौज के साथ भेजा। ठाकुर जयसिंह डोडिया बगावत को कुचलने में सफल रहे, पर स्वयं वीरगति को प्राप्त हुए।

महाराणा कर्णसिंह द्वारा बनवाए गए एकलिंगगढ़ का रमणा पोल नामक दरवाजा

जीवाशाह कावड़िया का देहांत :- भामाशाह जी कावड़िया के पुत्र जीवाशाह कावड़िया का देहांत हो गया। जीवाशाह ने भी मेवाड़ की अच्छी सेवा की थी। महाराणा कर्णसिंह ने जीवाशाह के पुत्र अक्षयराज कावड़िया को मेवाड़ का प्रधान घोषित किया।

महाराणा कर्णसिंह द्वारा जहांगीर के खिलाफ की जाने वाली कार्रवाइयां :- 1615 में हुई मेवाड़-मुगल सन्धि के बाद जहांगीर ने कर्णसिंह को बहुत उपहार आदि भेंट किए, परन्तु महाराणा कर्णसिंह कभी नहीं भूले कि उनके पिता को इस सन्धि से कितनी ग्लानि हुई।

1622 ई. में ख़ुर्रम ने जब मुगल सल्तनत से बगावत की, तो महाराणा कर्णसिंह ने ख़ुर्रम का साथ देने की ठान ली। मुगल सल्तनत के सबसे बड़े दावेदार को अपने यहां शरण देकर उन्होंने जहांगीर की खिलाफत तो की ही थी, साथ ही साथ जब जहांगीर ने महाराणा से फौजी मदद मांगी और अपने सामने हाजिर होने को कहा, तो महाराणा कर्णसिंह ने जहांगीर की कोई बात नहीं मानी।

महाराणा कर्णसिंह यहीं नहीं रुके। जब उन्होंने देखा कि जहांगीर के आदेशों की अवहेलना करने के बावजूद भी सल्तनत की तरफ से कोई कार्रवाई नहीं हो रही है, तो उनके हौंसले और बुलंद हो गए और मेवाड़-मुगल सन्धि की शर्त का उल्लंघन करते हुए चित्तौड़गढ़ दुर्ग की मरम्मत का कार्य शुरू करवा दिया।

जहांगीर की मृत्यु :- जहांगीर का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं था, फिर भी बैरम कला में वो एक हिरन का शिकार करने निकला, पर वो हिरन भाग गया। फिर उस गांव के लोग उस हिरन को घेरकर लाए, तभी जहांगीर ने बंदूक से गोली चलाई और गोली से जख्मी होकर भागते हुए वो हिरन हिरनियों के एक झुंड में घुस गया।

उस गांव का एक आदमी उस हिरन के पीछे-पीछे दौड़ा और एक पहाड़ी से गिरकर मर गया। इस आदमी के मरने का दृश्य जब जहांगीर ने देखा तो उसे बड़ा अजीब लगा और उसके बाद से उसका मन विचलित हो गया। इस घटना के अगले ही दिन 28 अक्टूबर, 1627 ई. को 58 वर्ष की आयु में जहांगीर की मृत्यु हो गई।

खुसरो, ख़ुर्रम, परवेज़, शहरयार, जहाँदार आदि जहांगीर के बेटे थे। जहांगीर के मरने की खबर आसफ़ खां ने फौरन एक दूत के ज़रिए ख़ुर्रम के पास भिजवाई। जल्दी इतनी थी कि पत्र के स्थान पर संकेत रूप में अंगूठी भेजी गई।

इस वक्त ख़ुर्रम दक्षिण में था। ख़ुर्रम को सूचना मिली, तो वह फ़ौज समेत रवाना हुआ और गुजरात गया। गुजरात से रवाना होकर मेवाड़ के गोगुन्दा में पड़ाव डाला। 2 जनवरी, 1628 ई. को महाराणा कर्णसिंह उससे मिलने गोगुन्दा गए।

महाराणा कर्णसिंह

ख़ुर्रम ने कहा कि हम शाही तख़्त पाने के लिए जा रहे हैं, जिसमें आपकी मदद की जरूरत है। महाराणा कर्णसिंह ने अपने भाई अर्जुनसिंह को सैनिक टुकड़ी सहित ख़ुर्रम के साथ भेज दिया। ख़ुर्रम ने महाराणा कर्णसिंह से वादा किया कि आपका पांच हजारी मनसब ज्यों का त्यों बना रहेगा।

महाराणा कर्णसिंह का शासनकाल मात्र 8 वर्ष रहा। मार्च, 1628 ई. में बीमारी के चलते 44 वर्ष की अल्पायु में महाराणा कर्णसिंह का देहान्त हुआ। आहड़ के महासतिया में महाराणा अमरसिंह की छतरी के ठीक पास में अग्निकोण की ऊँची कुर्सी पर स्थित 2 छोटी छतरियों में से एक छतरी महाराणा कर्णसिंह की है।

महाराणा कर्णसिंह द्वारा करवाए गए निर्माण कार्य :- लंबे संघर्ष के कारण मेवाड़ महाराणाओं को निर्माण कार्य करवाने की फुर्सत नहीं मिली, पर महाराणा कर्णसिंह ने अपने शासनकाल में उदयपुर में कई निर्माण कार्य करवाए, क्योंकि इन महाराणा के शासनकाल में मेवाड़ पर मुगल आक्रमण होने बन्द हो गए।

महाराणा उदयसिंह ने उदयपुर राजमहलों का निर्माण शुरू करवाया था, परन्तु वास्तव में उदयपुर राजमहलों का सर्वाधिक काम महाराणा कर्णसिंह ने करवाया। एक प्रकार से कहा जा सकता है कि महाराणा कर्णसिंह ने उदयपुर राजमहलों को स्वरूप प्रदान किया था।

उदयपुर के राजमहल

महाराणा कर्णसिंह ने उदयपुर में सूरजपोल, तोरण पोल, बड़ी पोल आदि दरवाजे बनवाए। बड़ी पोल का दरवाज़ा इन्होंने अपने कुँवरपदे काल में बनवाया था। हालांकि ग्रंथ वीरविनोद में लिखा है कि बड़ी पोल दरवाज़े के निर्माण का कार्य भामाशाह कावड़िया ने शुरू करवाया था 1600 ई. के करीब।

महाराणा कर्णसिंह ने उदयपुर में सूर्य गोखड़ा, लखु गोखड़ा, सूर्य चौपाड़, काँच की बुर्ज़, छितरम की बुर्ज़, मोर चौक, माणक महल, अमर महल आदि बनवाए। अमर महल महल इन्होंने कुँवरपदे काल में अपने पिता के नाम से बनवाया था, हालांकि इस महल का निर्माण कार्य महाराणा अमरसिंह ने करवाया था, परन्तु समाप्त महाराणा कर्णसिंह ने करवाया।

महाराणा कर्णसिंह ने उदयपुर के जनाना महल में लक्ष्मी चौक, रसोड़े का बड़ा महल, कर्णविलास, चम्पाबाग, भटियानी चौहटे के गुम्बज़ आदि बनवाए। भटियानी चौहटे के गुम्बज़ बाद में यहाँ से हटाकर देलवाड़े की हवेली में लगाए गए थे।

महाराणा कर्णसिंह ने जगमंदिर के बड़े गुम्बज़, सभा शिरोमणि (बड़ा दरीखाना), गणेश ड्योढ़ी, दिलखुशाल महल के भीतर की चौपाड़, चन्द्रमहल, हस्तिशाला के नीचे का बड़ा दालान और उदयपुर की शहरपनाह बनवाई। महाराणा कर्णसिंह ने उदयपुर की शहरपनाह बनवाना शुरू किया, पर ये कार्य अधूरा रह गया।

महाराणा कर्णसिंह ने उदयपुर में पिछोला झील के किनारे स्थित माछला मगरा नामक पहाड़ पर एकलिंगगढ़ नाम से एक किलेनुमा संरचना बनवाई। इसमें शिकार ओदियाँ भी बनवाई गई और उदयपुर की सुरक्षा ख़ातिर कुछ अच्छी तोपें भी रखी गई। एकलिंगगढ़ के एक द्वार का नाम रमणा पोल है। बाद में जब मराठों के आक्रमण हुए, तब एकलिंगगढ़ बहुत काम आया था।

एकलिंगगढ़ में बनी हुई शिकार ओदी

महाराणा कर्णसिंह ने एकलिंगगढ़ पर ही करणी माताजी का एक मंदिर बनवाया, जो वर्तमान में बड़ा प्रसिद्ध है। वर्तमान में यहां रोप-वे की सुविधा भी है, जिसका प्रतिदिन सैंकड़ों पर्यटक आनंद उठाते हैं। यहां से सारे शहर का नज़ारा बहुत खूबसूरत दिखाई देता है।

महाराणा कर्णसिंह ने खमनौर स्थित रक्त तलाई में हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति पाने वाले ग्वालियर नरेश राजा रामशाह तोमर व कुँवर शालिवाहन तोमर की छतरियाँ बनवाई। ये छतरियां 1624 ई. में बनवाई गई थीं। छतरी पर एक शिलालेख भी खुदवाया गया, जिसकी लिपि देवनागरी व भाषा मेवाड़ी है।

महाराणा कर्णसिंह ने अपने दादाजी महाराणा प्रताप के साथी इन तोमर वीरों की याद को बनाए रखा और हल्दीघाटी युद्ध के 48 वर्ष बाद उनका स्मारक बनवाया, जो कि उनकी उदारता का सूचक है। इन छतरियों का निर्माण करवाकर महाराणा कर्णसिंह ने ग्वालियर के इन वीरों के प्रति अपना आभार प्रदर्शित किया था।

महाराणा कर्णसिंह के 7 पुत्र हुए, जिनके नाम कुछ इस तरह हैं :- 1) महाराणा जगतसिंह, जो कि महाराणा कर्णसिंह के बाद राजगद्दी पर बैठे। 2) कुँवर गरीबदास, जिनके वंशजों का ठिकाना केर्या है। इनकी उपाधि बाबा है। 3) कुँवर मानसिंह 4) कुँवर छत्रसिंह 5) कुँवर मोहनसिंह 6) कुँवर गजसिंह 7) कुँवर सूरसिंह।

महाराणा कर्णसिंह की 3 पुत्रियाँ हुईं, जिनमें से एक का विवाह बीकानेर नरेश कर्णसिंह राठौड़ से, दूसरी का विवाह बूँदी के राव शत्रुसाल हाडा से व तीसरी का विवाह बड़ी सादड़ी के राजराणा रायसिंह झाला से हुआ। दूसरी पुत्री का विवाह महाराणा जगतसिंह के शासनकाल में हुआ था, तब राव शत्रुसाल हाडा ने विवाह हेतु बहुत सम्पत्ति खर्च की थी।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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