मेवाड़ महाराणा अमरसिंह (भाग – 39)

1615 ई. में चित्तौड़गढ़ दुर्ग के किलेदार सगरसिंह सिसोदिया को जहांगीर ने चित्तौड़ छोड़ने को कहा, क्योंकि सन्धि के तहत चित्तौड़ का किला महाराणा अमरसिंह को सौंपा जाना तय हुआ था। सगरसिंह ने जब किला छोड़ा, तब वहां महाराणा अमरसिंह के आने तक नारायणदास शक्तावत को मुख्य अधिकारी रखा।

नारायणदास शक्तावत महाराणा प्रताप के भाई महाराज शक्तिसिंह के पुत्र रावत अचलदास के पुत्र थे। नारायणदास शक्तावत ने किले पर कब्ज़ा कर लिया और इसे महाराणा को सौंपने से इनकार कर दिया। कुँवर कर्णसिंह को ये मालूम हुआ, तो वे बड़े क्रोधित हुए।

कुँवर कर्णसिंह ने बेगूं के रावत मेघसिंह चुंडावत को फ़ौज देकर रवाना किया। रावत मेघसिंह चित्तौड़गढ़ पहुंचे और नारायणदास से बात की और उनको समझाने के प्रयास किए। रावत मेघसिंह ने कहा कि “महाराणा हमारे मालिक और पिता समान हैं, उनका सामना नहीं करना चाहिए।”

नारायणदास शक्तावत रावत मेघसिंह की बात मान गए और किला छोड़ने को तैयार हो गए। जब चित्तौड़गढ़ पर सागरसिंह का राज था, तब उसने बेगूं व रतनगढ़ के परगने नारायणदास शक्‍तावत को दे दिए थे। ये परगने भी पुनः महाराणा अमरसिंह के अधिकार में आ गए।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

कुँवर कर्णसिंह ये बात बताने के लिए एकांतवास में रह रहे महाराणा अमरसिंह के पास गए, तब महाराणा अमरसिंह ने ये परगने बल्लू चौहान को दे दिए, जिससे रावत मेघसिंह नाराज़ हो गए कि “लड़ने मरने के लिए हम और परगने मिले चौहानों को”।

तब कुँवर कर्णसिंह ने रावत मेघसिंह पर ताना मारते हुए कहा कि “तो क्या अब महाराणा के खिलाफ जाकर बादशाह से मालपुरे का पट्टा मांगोगे ?” ये ताना सुनकर रावत मेघसिंह अपने पुत्र नरसिंहदास सहित मेवाड़ छोड़कर जहाँगीर के यहां चले गए।

1608 ई. में जब जहांगीर ने महाबत खां को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा था, तब रावत मेघसिंह चुंडावत ने गज़ब की छापामार युद्ध नीति से महाबत खां को न केवल शिकस्त दी, बल्कि उसके द्वारा बैठाए गए सभी मुगल थाने एक ही रात में उखाड़ दिए, जिसके बाद जहांगीर को महाबत खां को वापस बुलाना पड़ा था।

इसी वाकिये को याद करते हुए एक दिन जहांगीर ने रावत मेघसिंह से पूछा कि “तुमने एक ही रात में मेवाड़ के कुल बादशाही थाने कैसे उठा दिए थे। उस रात तुमने जो लिबास पहना था, वैसा ही लिबास पहनकर हमारे सामने आओ।” फिर रावत मेघसिंह अपने शिविर में गए।

रावत मेघसिंह ने अपने साथी राजपूतों समेत उस तरह का लिबास पहना। सभी ने पूरी तरह से काले कपड़े पहने थे और सिर पर धौंकडे की टहनियों के एवज रजके की किलंगिये लगाकर छोटी मश्क पानी पीने की बगल में रखी और बंदूक, तलवार कसकर बादशाह के सामने आए। जहांगीर ने रावत मेघसिंह को देखकर कहा कि तुम्हें तो ‘कालीमेघ’ कहना चाहिए।

रावत मेघसिंह चुंडावत का ठिकाना – बेगूं

जहांगीर बड़ा खुश हुआ और कहा कि जागीर मांगो। तो रावत मेघसिंह ने कुँवर कर्णसिंह का ताना याद करते हुए मालपुरे की जागीर मांगी और जहांगीर ने दे दी। जहांगीर ने इस विषय का एक फरमान भी जारी कर दिया, जिसपे ख़ुर्रम के निशान थे। ये जागीर 22,38,500 दाम की थी।

जहाँगीर ने रावत मेघसिंह को 400 जात व 200 सवार का मनसब भी दे दिया। जब शाही फौज कांगड़े की तरफ गई, तब रावत मेघसिंह को भी उधर जाने का हुक्म हुआ, पर रावत नहीं गए जिससे कुछ समय के लिए उनकी जागीर जहाँगीर ने जब्त कर ली।

शहज़ादे ख़ुर्रम ने रावत मेघसिंह को एक निशान जारी किया, जो ग्रंथ वीरविनोद में हूबहू लिखा गया है। ये कुछ इस तरह है :- “बराबरी वालों में उम्दा रावत मेघ, शाही मिहरबानी का उम्मीदवार होकर जाने कि हम उसको अपना खैरख्वाह कारगुजार राजपूत जानते थे, इसलिए हमने उसको काँगड़े के झगड़े पर मुकर्रर किया था।

पर उसने अपनी जागीर में जाकर इस क़दर देर लगा दी कि खैरख्वाह मददगार ताबेदार एतिबार के लायक राजा विक्रमादित्य ने सूरजमल के मुआमले को थमा रखा। इसलिए बड़े हजरत बुजुर्ग दर्जे के बादशाह जहांगीर ने उसकी (रावत मेघ की) जागीर उतारने का हुक्म दिया था।

लेकिन खैरख्वाह सरदार मिहरबनियों के लायक कुँवर भीम (महाराणा अमरसिंह के पुत्र) ने हमसे अर्ज़ किया कि वह (रावत मेघ) जरूरत के सबब ठहर गया है, अब पूरा ख्याल है कि वह रवाना हो चुका होगा। इस बात को हमने बादशाही हुज़ूर में अर्ज़ करके उसकी जागीर साबिक दस्तूर बहाल रखी (अर्थात रावत मेघ की जागीर न छीनना तय किया था) और बुजुर्ग निशान उस मामले की बाबत हमने भेज दिया था।

दुबारा उस (रावत मेघसिंह) का एक ख़त खैरख्वाह सरदार अबुल हसन के नाम पहुंचा, जिसका मज़मून हजरत शहंशाह के हुज़ूर में अर्ज़ हुआ, तो मालूम हुआ कि वह (रावत मेघ) अब तक काँगड़े के लश्कर की तरफ रवाना नहीं हुआ, इसलिए बड़े हजरत ने उसकी जागीर उतारकर खास खैरख्वाह बड़े दर्जे के सरदार मिहरबानी के लायक बादशाहत के मोतबर आसिफ खां को इनायत फरमा दी। (अर्थात जहांगीर ने रावत मेघसिंह की जागीर छीनकर आसफ़ खां को दे दी)।

अगर वह (रावत मेघ) चाहता है कि इस कुसूर का एवज करे और बड़े हजरत उसकी खता मुआफ़ करे, तो मुनासिब है कि अच्छी जमइयत (फौज) लेकर उस तरफ जावे। अगर हमारी खिदमत में नौकरी का इरादा रखता हो, तो फौरन हाजिर हो जावे कि उसके लायक मिहरबानियों के साथ सरबुलंदी बख्शी जावे और जो नहीं, तो जहां चाहे चला जावे, कोई रोकने वाला नहीं है।”

ख़ुर्रम का खत मिलने के बावजूद भी रावत मेघसिंह चुंडावत काँगड़े की तरफ जाने वाली फ़ौज में स्वयं नहीं गए। हालांकि उन्होंने अपने 3 पुत्रों लक्ष्मण, कल्याण और रामचंद्र को वहां भेज दिया, जिनमें से लक्ष्मण और कल्याण वहां हुई लड़ाई में काम आए।

20 मार्च, 1616 ई. को कुँवर कर्णसिंह जहांगीर के यहां दिल्ली पहुंचे। वहां कुँवर कर्णसिंह ने 100 अशर्फियां, 1 हज़ार रुपए, 4 घोड़े और 1 हाथी जहांगीर को भेंट किया। फिर कुछ दिन वहां ठहरकर अपने विवाह की बात जहांगीर को बताई और दरबार से रुखसत पाई। विदाई के समय जहांगीर ने कुँवर कर्णसिंह को एक ईराकी घोड़ा, जीन सहित एक हाथी और कमर का एक जड़ाऊ खंजर भेंट किया।

कुँवर कर्णसिंह

लौटते समय वे मालपुरा गए, जहां रावत मेघसिंह ने उनकी खातिरदारी की। जब भोजन का समय हुआ और भोजन थाली में परोसा गया, तो कुँवर कर्णसिंह ने अपना हाथ खींच लिया। तब रावत मेघसिंह ने पूछा कि “आप भोजन क्यों नहीं कर रहे ?” तब कुँवर कर्ण ने कहा कि “आपको दाजीराज ने बुलाया है, इसलिए आप उदयपुर चलिए”

रावत मेघसिंह ने अपनी नाराजगी जताई, पर कुँवर कर्ण ने तसल्ली दी, तो रावत साथ चलने को राजी हो गए, तब जाकर कुँवर ने भोजन किया। वे दोनों कुछ दिन का सफर तय करके उदयपुर पहुँचे और महाराणा अमरसिंह के सामने हाजिर हुए।

महाराणा अमरसिंह ने रावत मेघसिंह को बेगूं और रतनगढ़ की जागीर दे दी। महाराणा ने बल्लू चौहान को गंगराड और बेदला की जागीर दे दी। इस प्रकार मनमुटाव दूर हुए और रावत मेघसिंह भी बड़े प्रसन्न हुए।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग जो कि 1568 ई. से मुगलों के हाथों में था और 1605 से सगरसिंह सिसोदिया जैसे विश्वासघाती इस किले में रहे। इसलिए इस महान दुर्ग के मंदिरों, महलों आदि को गंगाजल के छिड़काव से पवित्र किया गया। इस किले से महाराणा की ऐसी भावनाएं जुड़ी हुई थीं जिनको शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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