24 अक्टूबर, 1605 ई. में जहांगीर मुगल साम्राज्य के तख़्त पर बैठा और इसी दौरान उसने अपनी गद्दीनशीनी के जलसे में आए हुए सभी राजाओं, सिपहसालारों, अमीरों आदि को शहज़ादे परवेज़ की कमान में मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह के विरुद्ध सैन्य अभियान पर जाने का आदेश दिया।
भला जिस मेवाड़ को मुगल बादशाह अकबर 50 वर्षों के शासनकाल में ना झुका पाया, वो मेवाड़ 16 वर्षीय नौसिखिए परवेज़ से कहाँ झुकने वाला था। ये बात जहांगीर भी भलीभांति जानता था, इसलिए अनुभवी आसफ़ खां को परवेज़ का संरक्षक व सलाहकार बनाकर साथ में भेजा गया।
जहांगीर द्वारा अपने शासनकाल में मेवाड़ के विरुद्ध भेजे गए इस प्रथम सैन्य अभियान में जाने वाले प्रमुख सिपहसालार :- इस अभियान में आसफ खां के चाचा मुख़्तार बेग को 800 का मनसब देकर शहज़ादे परवेज़ का दीवान बनाया गया और अब्दुर्ज्जाक मअमूरी को फ़ौज का बख्शी बनाया गया। बख्शी का कार्य फ़ौज को वेतन आदि देने का होता था। जफ़र बेग को भी परवेज़ को सलाह-मशवरा देने के लिए खास सिपहसालार बना कर भेजा गया।
आमेर के राजा मानसिंह के काका जगन्नाथ कछवाहा, जिन्होंने मेवाड़ के खिलाफ कई युद्धों में भाग लिया था, उन्हें भी इस अभियान में भेजा गया। जगन्नाथ कछवाहा को 5000 का मनसब दिया गया। जहांगीर ने इनको एक खिलअत व एक रत्नजड़ित तलवार भेंट करके विदाई दी। जगन्नाथ कछवाहा ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया था और महाराणा प्रताप के विरुद्ध अकबर द्वारा भेजे गए अंतिम सैन्य अभियान का नेतृत्व भी किया था।
जहांगीर ने राजा मानसिंह के भाई माधोसिंह कछवाहा को इस अभियान पर जाने से पूर्व मुगल ध्वज सौंपा और तीन हज़ार का मनसब व डंका भी दिया। जहांगीर किसी मुगल सिपहसालार को भी मुगल ध्वज सौंप सकता था, परन्तु उसने ऐसा नहीं किया।
जहांगीर ने राजा मानसिंह के पौत्र, कुँवर जगतसिंह के पुत्र व मेवाड़ के महाराज शक्तिसिंह के दामाद महासिंह कछवाहा को भी इस सैन्य अभियान में भेजा। जहाँगीर ने महासिंह को दो हज़ार का मनसब दिया। महासिंह मेवाड़ के संबंधी होने के बावजूद इस अभियान में भाग लेने से मना नहीं कर सके।
सगर सिंह सिसोदिया, जो कि मेवाड़ के जगमाल का छोटा भाई व महाराणा अमरसिंह का काका था। अकबर ने सगरसिंह को “राणा” का खिताब दिया और चित्तौड़ की राजगद्दी पर बिठाने का वादा किया था, जो वो पूरा नहीं कर सका।
जहांगीर लिखता है कि “एक वक्त पर मेरे बाप ने शहजादे खुसरो और राणा सगर की कमान में शाही फौज राणा अमरसिंह के खिलाफ भेजने का फैसला किया था, पर उससे पहले ही उनका इन्तकाल हो गया”। जहांगीर ने सगरसिंह को एक रत्नजड़ित तलवार दी।
जहांगीर ने रायसाल सिंह शेखावत को भी मुगल ध्वज सौंपा और तीन हज़ार का मनसब दिया। करा खां तुर्कमान को दो हज़ार का मनसब दिया गया। वज़ीर जमील को भी दो हज़ार का मनसब दिया गया।
मनोहर सिंह कछवाहा के बारे में जहाँगीर लिखता है कि “मनोहर ख़ुद आगे होकर राणा अमर के खिलाफ़ जंग में शामिल होने आया। मनोहर ने फारसी पढ़ रखी थी। हालांकि उसकी जाति के किसी भी शख़्स को समझदार नहीं कहा जा सकता, पर मनोहर समझदार था”
जहांगीर ने मनोहरदास के बारे में ऐसा इसलिए लिखा, क्योंकि उसको कछवाहा राजपूतों से घृणा थी। जहांगीर ने अबुल फ़ज़ल के बेटे शैख अब्दुर्रहमान को भी इस सैन्य अभियान में भेजा। सादिक खां के बेटे ज़ाहिद खां को भी दो हज़ार का मनसब देकर भेजा गया।
जहांगीर ने महाराणा के विरुद्ध फौज भेजने से पहले शैख रुकनुद्दीन पठान नामक एक सिपहसलार का मनसब 500 से बढ़ाकर 3500 कर दिया। वह शेर खां के नाम से प्रसिद्ध था। शेर खां ने उजबेगों से लड़ाई में अपना एक हाथ गंवाया था, फिर भी उसकी बहादुरी को देखते हुए उसे महाराणा अमरसिंह के विरुद्ध सैन्य अभियान में भेजा गया।
जहांगीर ने मेवाड़ जाने वाली इस फ़ौज के साथ एक हज़ार अहदी भी भेजे। अहदी विशेष युद्धों में भेजे जाने वाले निपुण योद्धा होते थे। सब सिपहसालारों को अपने-अपने लश्करों के साथ शहजादे परवेज़ के साथ कर दिया गया। इस तरह 20 हज़ार जंगी घुड़सवार, 20 हज़ार पैदल सिपाही, एक हज़ार अहदी, 3 हज़ार तोपें व अन्य ऊँट-हाथी सवारों समेत लगभग 50,000 की भाड़-भीड़ ने मेवाड़ की तरफ कूच किया।
अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-जहांगीरी में जहाँगीर लिखता है कि “सब सिपहसालारों और अहदियों के बारे में लिखना मुमकिन नहीं है। राणा अमर के खिलाफ जाने वाली ये फौज इतनी बड़ी थी कि किसी भी ताकतवर हुकूमत को हिला सकती थी”
महाराणा अमरसिंह ने मुगल फौज के आने की खबर सुन अपने दाजीराज की नीति अपनाते हुए मेवाड़ को उजाड़ दिया, फसलें खत्म कर दीं ताकि मुगलों को रसद वगैरह न मिले, मेवाड़ की प्रजा को पहाड़ों में सुरक्षित स्थानों पर भेज दिया, ताकि मुगल सेना कत्लेआम न कर सके।
परवेज़ का मांडल पर आक्रमण :- शहजादे परवेज़ के नेतृत्व में मुगल फौज मेवाड़ के करीब पहुंची कि तभी उन्हें पता चला कि इस वक्त महाराणा अमरसिंह मांडल में हैं। परवेज़ ने 50 हज़ार की फौज के साथ मांडल की तरफ कूच किया।
महाराणा अमरसिंह की कुल फ़ौज इस समय लगभग 50 हज़ार थी, परन्तु इस फ़ौज का बड़ा हिस्सा मेवाड़ के कई किलों, पहाड़ी नाकों व घाटियों में तैनात किया जाता था। इसलिए महाराणा अमरसिंह के साथ 10-12 हज़ार से अधिक की फ़ौज नहीं रहती थी और जब महाराणा अमरसिंह मेवाड़ में दौरे पर जाते थे, तब उनके साथ एक-दो हज़ार घुड़सवार ही रहते थे।
परवेज़ के आक्रमण के समय महाराणा अमरसिंह एक-दो हज़ार मेवाड़ी वीरों के साथ मांडल में थे। नतीजतन महाराणा अमरसिंह ने मांडल का थाना छोड़ना तय किया। महाराणा जाने लगे कि तभी अचलदास चुंडावत ने उनको कहा कि हुज़ूर आप मुझको मेरे साथियों के साथ यहीं नियुक्त कर दीजिए, मैं यहीं मुगलों से लड़ना चाहता हूं।
महाराणा अमरसिंह ने अचलदास चुंडावत की बात सुनकर उनको उनके साथियों सहित मांडल के थाने पर तैनात कर दिया और स्वयं फ़ौज सहित वहां से प्रस्थान किया। परवेज़ की सेना मांडल में तैनात राजपूतों पर टूट पड़ी। अचलदास चुंडावत वीरतापूर्वक शत्रुओं का सामना करते हुए अपने साथियों सहित वीरगति को प्राप्त हुए और मांडल पर परवेज़ का कब्ज़ा हो गया। यह जहांगीर के शासनकाल में मुगल सल्तनत की पहली विजय थी।
तुजूक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “मेरे बेटे परवेज़ ने मुझे पैगाम भेजा कि राणा अमर मांडल का थाना छोड़कर भाग गया है। मांडल अजमेर से 30-40 कोस दूर है। राणा के पीछे एक फौज भेज दी गई। उम्मीद है कि परवेज़ की भेजी हुई ये खबर मेरी सल्तनत के लिए बेहतर शुरुआत साबित होगी और राणा का वजूद बर्बाद हो जाएगा”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)