मेवाड़ महाराणा अमरसिंह (भाग – 7)

15 सितम्बर, 1599 ई. को अकबर ने अपने बड़े बेटे सलीम को अजमेर सूबे का सूबेदार घोषित किया। सलीम के लिए यह पहली प्रतिष्ठित शाही पद पर नियुक्ति थी। इस समय सलीम की आयु 30 वर्ष थी। वह महाराणा अमरसिंह से 10 वर्ष छोटा था।

16 सितम्बर, 1599 ई. को मुगल सेना ने दो महत्वपूर्ण अभियानों में भाग लेने के लिए कूच किया। पहली सेना अकबर के नेतृत्व में दक्षिण की ओर गई और दूसरी सेना अकबर के आदेश से सलीम के नेतृत्व में महाराणा अमरसिंह के विरुद्ध चढ़ाई करने हेतु अजमेर के लिए रवाना हुई।

सलीम भारी भरकम फ़ौज सहित अजमेर पहुंचा। अजमेर में अकबर का बनवाया हुआ एक किला है, जिसे अकबर का दौलतखाना कहा जाता था। वर्तमान में इसे मैगज़ीन दुर्ग कहते हैं। इस किले में सलीम कुछ दिनों तक रहा। अकबर जानता था कि मेवाड़ जैसी भूमि पर हमला करने के लिए केवल नौसिखिये सलीम को भेजना खतरे से खाली न होगा।

सलीम (जहांगीर)

इन दिनों आमेर के राजा मानसिंह कछवाहा बंगाल अभियान से समय निकालकर आगरा आए, जहां से अकबर ने उनको सलीम का साथ देने के लिए अजमेर भेज दिया। राजा मानसिंह एक फ़ौज सहित अजमेर पहुंचे। राजा मानसिंह ने मेवाड़ के विरुद्ध 1578 ई. के कुम्भलगढ़ अभियान में अंतिम रूप से भाग लिया था। अब 21 वर्षों बाद पुनः वे महाराणा प्रताप के पुत्र महाराणा अमरसिंह के विरुद्ध सैन्य अभियान में शामिल हुए।

इन दिनों सलीम को अपने पिता अकबर द्वारा बादशाह की गद्दी पर बैठना खटक रहा था। वह जल्द से जल्द बादशाह बनना चाहता था, इसलिए उसके अपने पिता से संबंध भी बिगड़ने लगे थे। इसके अलावा सलीम आमेर के कछवाहा राजपूतों से खुश नहीं था, उसने अपनी आत्मकथा में उनके खिलाफ बहुत कुछ कहा। राजा मानसिंह भी सलीम को बादशाह बनते हुए नहीं देखना चाहते थे, क्योंकि वे खुसरो को मुगल बादशाह बनाने के पक्ष में थे।

सलीम अजमेर में था, परन्तु उसका मन मेवाड़ पर आक्रमण करने का नहीं था। वह हिंदुस्तान का बादशाह बनने का ख़्वाब देख रहा था। उसके पिता को मुगल साम्राज्य पर राज करते हुए 43 वर्ष बीत चुके थे। उसे यह भी शंका होने लगी, कि अकबर अपने बेटे दानियाल पर अधिक अनुकम्पा दिखा रहा है, तो कहीं उसे ही उत्तराधिकारी न बना दे।

सलीम मेवाड़ पर आक्रमण करने के बजाय अजमेर में ही इधर-उधर घूमता रहा। यह ख़बर दक्षिण में अकबर के पास पहुंची, तो अकबर ने सलीम को समझाने के लिए मीर अबुल हई को अजमेर भेजा। दूसरी तरफ राजा मानसिंह के भी 2 पुत्र असमय चल बसे, इसलिए वे भी खिन्न रहने लगे। अकबर ने राजा मानसिंह के पास संवेदना संदेश के साथ एक घोड़ा व खिलअत भेजी।

मीर अबुल हई अजमेर पहुंचा और उसने सलीम को समझाने के प्रयास किए, परन्तु सलीम ने समझने की बजाय शराब और भोग विलास में दिन बिताना बेहतर समझा। फिर अकबर ने एक और दूत भेजकर सलीम को चेतावनी दी, जिसके बाद सलीम के होंश ठिकाने आए और उसने अपनी फ़ौज दुरुस्त की।

1600 ई. में सलीम व राजा मानसिंह के नेतृत्व में शाह कुली महराम समेत कई सिपहसालारों ने शाही फौज के साथ मेवाड़ कूच किया। राजा मानसिंह ने पुत्र वियोग में बेमन से इस अभियान में भाग लिया। सलीम ने चित्तौड़, पुर, मांडल, मांडलगढ़, बागोर, कोशीथल, ऊँठाळा, मोही, मदारिया, रामपुर समेत मेवाड़ के कई स्थानों पर मुगल थाने तैनात कर दिए।

सलीम ने चित्तौड़गढ़ व मांडलगढ़ दुर्ग की सुरक्षा सदृढ़ करवा दी। सलीम ने उँठाळा दुर्ग में कायम खां को हज़ारों की फ़ौज के साथ तैनात किया। सलीम की फ़ौज जहां जहां से भी गुजरी, वहां खेत लूट लिए गए, बस्तियां जला दी गई और कुछ लोग बंदी भी बनाए गए।

महाराणा अमरसिंह ने भी अपनी फ़ौज दुरुस्त की और राणा रामा के नेतृत्व में हज़ारों भीलों को पहाड़ी नाकों पर तैनात कर दिया। महाराणा अमरसिंह ने उदयपुर को पुनः खाली करवा दिया और जनता को समतल इलाकों में रहने से मना करते हुए पहाड़ों की तरफ भेज दिया।

जहां एक तरफ सलीम के नेतृत्व में मुगल फ़ौज मेवाड़ में जगह-जगह आक्रमण कर रही थी, वहीं दूसरी ओर इस समय मेवाड़ की एक महान हस्ती ने अपने जीवन की अंतिम श्वास ली। 16 जनवरी, 1600 ई. को मेवाड़ के खजांची व प्रधानमंत्री के पद पर रह चुके भामाशाह जी कावड़िया का देहांत हो गया।

भामाशाह जी कावड़िया

भामाशाह जी ने मेवाड़ का खजाना अलग-अलग स्थानों पर गुप्त रूप से छिपा रखा था, जिसका विवरण वे एक बही में रखते थे। जब भी आवश्यकता पड़ती, तब वे खजाना निकालकर समय-समय पर महाराणा को देते, जिससे मेवाड़ का खर्च चलता था।

अपने देहांत से पहले उन्होंने ये बही अपनी धर्मपत्नी को दी और कहा कि इस बही को महाराणा अमरसिंह के हाथों में दे देना। जब भामाशाह जी की धर्मपत्नी अपने पति के देहांत का समाचार और बही लेकर महाराणा अमरसिंह के पास पहुंची, तो महाराणा बड़े दुःखी हुए।

महाराणा अमरसिंह ने भामाशाह जी का अंतिम संस्कार करवाया और आहड़ में उनकी याद में एक छतरी बनवाई। फिर महाराणा अमरसिंह ने भामाशाह जी के पुत्र जीवाशाह जी कावड़िया को मेवाड़ का खजांची नियुक्त किया और वह बही उन्हें सौंप दी।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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