1585 ई. में बूंदी के राव सुर्जन हाड़ा का देहांत हो गया। इसी वर्ष अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना ने गुजरात की तरफ से मेवाड़ में प्रवेश किया था, परन्तु उसने मेवाड़ में क्या कार्रवाई की, यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता।
1571 ई. में अकबर ने फतहपुर सीकरी को राजधानी बनाई और इसी वर्ष महाराणा उदयसिंह ने गोगुन्दा को राजधानी बनाई। साक्ष्यों के अभाव में इसे संयोग ही कहा जाएगा, परन्तु 1585 ई. में महाराणा प्रताप ने अपनी राजधानी चावंड स्थानांतरित की और इसी वर्ष अकबर ने अपनी राजधानी लाहौर स्थानांतरित की। तत्पश्चात इसे पुनः संयोग ही कहा जाएगा, परन्तु अकबर ने महाराणा प्रताप के देहांत तक लाहौर को राजधानी बनाए रखा और उसके बाद पुनः राजधानी आगरा स्थानांतरित कर दी।
बहरहाल, इस विषय में कुछ और शोध होने चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अकबर ने लाहौर को राजधानी बनाने का विचार पहले ही कर लिया हो, परन्तु मेवाड़ पर विजय पाने के लिए वह रुका हुआ हो। और जब महाराणा प्रताप के देहांत के बाद उसके मन में फिर से मेवाड़ विजय की आस जगी हो, तो उसने राजधानी आगरा बना ली हो, क्योंकि आगरा को राजधानी बनाने के तुरंत बाद ही अकबर ने महाराणा अमरसिंह के विरुद्ध सैन्य अभियान भेजना शुरू कर दिया था, जबकि 1585 से 1599 तक वह मौन रहा। हालांकि इसके पीछे कोई ठोस प्रमाण नहीं है, ये मात्र लेखक का अनुमान है।
महाराणा प्रताप ने चावण्ड को मेवाड़ की राजधानी बनाई। महाराणा प्रताप अपने जीवन के अन्तिम 12 वर्षों तक चावण्ड में ही रहे। ये अटल प्रताप प्रतिज्ञा थी, जिसने रजपूती धर्म निभाया। पत्थर को तोड़ पहाड़ों में, मेवाड़ नया निर्माण किया।।
महाराणा प्रताप ने चावण्ड में चामुण्डा माता के पुराने मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि ये मंदिर महाराणा प्रताप ने ही बनवाया, परन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता। क्योंकि जिन चावंडिया राठौड़ राजपूतों से महाराणा प्रताप ने चावंड जीता था, वे पहले चामुंडा माताजी की ही पूजा करते थे। अतः यही कहना उचित होगा कि महाराणा प्रताप ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।
महाराणा प्रताप ने चावण्ड में रहकर मेवाड़ के अपराधियों को उचित दण्ड देकर उनकी संख्या में कमी करते हुए मेवाड़ में शान्ति का वातावरण स्थापित किया। महाराणा प्रताप ने चावण्ड में 16 पनाहगाह बनवाए, जिनमें महल, भवन, चतारों की ओवरी, मन्दिर आदि शामिल है।
चावण्ड के महलों के बारे में इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि “महलों के खण्डहर बतलाते हैं कि उनमें विलासिता या वैभव का कोई दिखावा नहीं रखा गया था। इनकी बनावट में ग्रामीण जीवन तथा सुरक्षा के साधनों को प्रधानता दी गई थी। जगह-जगह मोर्चों की सुविधाएँ, निकलकर बचने की व्यवस्था और सादगी पर अधिक बल दिया गया था ये महल युद्धकालीन स्थापत्य कला के अनूठे उदाहरण हैं।”
इसी वर्ष नवाब अली खां ने मेवाड़ में लूटमार की। महाराणा प्रताप ने रावत कृष्णदास चुण्डावत को फौज देकर उसका दमन करने भेजा। रावत चुण्डावत ने नवाब अली खां को मारकर उसकी फौज को खदेड़ दिया।
महाराणा प्रताप ने पहाड़ी जमीन में पैदा हो सकने वाली फसलें कुरी, सामा, जौ आदि के उत्पादन पर जोर दिया। महाराणा प्रताप ने कूणप जल विधि अपनाई व कृषि से सम्बन्धित एक ग्रन्थ लिखवाया।
महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा में विशाल समारोह का आयोजन किया, जिसमें उनका साथ देने वाले वीरों को तथा वीरगति को प्राप्त हो चुके वीरों के उत्तराधिकारियों को पुरस्कार दिये गए।
महाराणा ने मेवाड़ के वीरान भागों को फिर से बसाने की घोषणा की। पीपली, ढोलन, सघाना, टीकड़ आदि गांव मुगलों के आक्रमण से पूरी तरह तहस-नहस हो गए थे, जिन्हें फिर से बसाया गया। किसानों को नई भूमि दी गई। शीघ्र ही मेवाड़ के वीरान पड़े खेत फसलों से लहलहाने लगे।
महाराणा प्रताप ने व्यापार व उद्योगों को प्रोत्साहन दिया। मेवाड़ के लोग – स्त्रियां, बच्चे, वृद्ध सभी निर्भय होकर घूमने लगे। महाराणा अमरसिंह के समय में लिखे गए एक ग्रन्थ ‘अमरसार’ में लिखा है कि
“महाराणा प्रताप ने अपने राज्य में इतना सुदृढ़ शासन स्थापित कर दिया कि औरतों और बच्चों को भी किसी का भय नहीं रहा। महाराणा प्रताप के शासनकाल में पाश अर्थात डोरी की विद्यमानता महिलाओं की अलकाओं में ही होती थी। चोरों को पकड़ने के लिए पाश अर्थात रस्सी का प्रयोग नहीं होता था। जन साधारण का उचित और नैतिक आचरण सामान्य बात हो गई थी।”
अकबर द्वारा 1585 ई. में मेवाड़ के विरुद्ध संघर्ष विराम कर दिया गया। अकबर द्वारा ऐसा करने के पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारण थे। पहला तो ये कि वह अथाह धन संपदा मेवाड़ अभियानों में लुटा चुका था और उसके हज़ारों सैनिक भी मारे गए, परन्तु मेवाड़ पर उसका पूर्ण अधिकार न हो सका।
दूसरा प्रमुख कारण ये था कि अकबर द्वारा मेवाड़ पर बार-बार आक्रमण करने से अन्य हिन्दू राजाओं में असंतोष दिखाई देने लगा। महाराणा प्रताप के अनवरत संघर्ष व स्वाभिमान का लोहा समूचा भारतवर्ष मान चुका था, उन हिंदुओं को भी महाराणा प्रताप से सहानुभूति होने लगी, जो अकबर के अधीन थे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)