वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप (भाग – 70)

1578 ई. – डूंगरपुर-बांसवाड़ा की सम्मिलित सेना पर रावत भाण सारंगदेवोत की विजय :- डूंगरपुर के रावल आसकरण व बांसवाड़ा के रावल प्रताप सिंह बादशाही अधीनता स्वीकार कर चुके थे।

डूंगरपुर रावल आसकरण के पुत्र कुँवर साहसमल इस बात से दुखी होकर महाराणा प्रताप के पास आए और महाराणा से विनती की कि वे डूंगरपुर पर आक्रमण करें।

इस कार्य के लिए कुँवर साहसमल ने महाराणा प्रताप को 4000 मुद्राएं देने का वचन दिया। महाराणा प्रताप ने कुँवर साहसमल से कहा कि

“अगर आप हमारे पास ना भी आते तब भी हम डूंगरपुर-बांसवाड़ा पर आक्रमण जरुर करते। हमें यदि मुगल सल्तनत से बैर रखना है, तो पड़ौसी राज्यों को अपने अधीन कर मेवाड़ को सशक्त बनाना ही होगा।”

डूंगरपुर-बांसवाड़ा को बादशाही मातहती कुबूल करने का खामियाजा भुगतना पड़ा। महाराणा प्रताप ने कानोड़ के रावत भाण सारंगदेवोत को फौज समेत भेजा। रावत भाण हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति पाने वाले रावत नैतसिंह सारंगदेवोत के पुत्र थे।

पुस्तक ‘मेवाड़ के महाराणा व बादशाह अकबर’ में लेखक राजेन्द्र शंकर भट्ट ने इस अभियान का नेतृत्वकर्ता रावत भाण शक्तावत को बता दिया, जो कि शक्तिसिंह जी के पुत्र थे, पर ये सही नहीं है।

क्योंकि महाराणा प्रताप के समय के ही सूरखण्ड के शिलालेख में रावत भाण सारंगदेवोत का नाम लिखा है। इसके अतिरिक्त अधिकतर ग्रंथों में रावत भाण सारंगदेवोत का ही नाम मिलता है।

यहां तक कि शक्तावत राजपूतों पर आधारित ग्रंथ सगतरासो में भी रावत भाण सारंगदेवोत की वागड़ विजय पर एक दोहा लिखा गया है।

रावत भाण सारंगदेवोत मेवाड़ी सेना का नेतृत्व करते हुए वागड़ की तरफ रवाना हुए। वागड़ के नरेशों को सूचना मिली, तो उन्होंने आपस में गठबन्धन कर लिया।

बांसवाड़ा के राजमहल

डूंगरपुर और बांसवाड़ा की फ़ौजें मिल गई और सोम नदी के किनारे पहुंची। इसी नदी के किनारे मेवाड़ी सेना का सामना डूंगरपुर-बांसवाड़ा की सम्मिलित सेना से हुआ।

रावत भाण सारंगदेवोत ने बड़ी वीरता दिखाई और सख़्त ज़ख्मी हुए। रावत भाण के काका रणसिंह सारंगदेवोत इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।

रावत भाण के नेतृत्व में मेवाड़ी सेना ने इस युद्ध में विजय प्राप्त की। परन्तु डूंगरपुर-बांसवाड़ा के शासकों ने महाराणा प्रताप की अधीनता स्वीकार नहीं की।

सगतरासो ग्रंथ के लेखक गिरधर आशिया रावत भाण व उनके पूर्वजों का यशोगान करते हुए व रावत भाण की इस विजय का वर्णन करते हुए यह दोहा लिखते हैं कि :- “सारंग जोगो सुजड़ हथ, खगवाहा खुमाण। सोमा नरबद नैतसी, भारी राउत भाण।।”

हालांकि अधिकतर ऐतिहासिक ग्रंथों में यही लिखा है कि इस आक्रमण के समय वागड़ के नरेशों ने महाराणा की अधीनता स्वीकार कर ली थी, पर मेरे द्वारा किए गए शोध से मालूम हुआ कि इस लड़ाई के पश्चात महाराणा प्रताप ने स्वयं वागड़ के नरेशों के विरुद्ध सेना सहित कूच किया था।

सोम नदी पर हुई लड़ाई में वागड़ के नरेशों ने स्वयं भाग न लेकर सेनापति को भेजा था, इसलिए उस समय महाराणा की अधीनता स्वीकार नहीं की जा सकती थी।

महाराणा प्रताप ने सर्वप्रथम सेना सहित बांसवाड़ा की तरफ कूच किया, जहां रावल प्रताप सिंह ने बिना लड़े ही महाराणा की अधीनता स्वीकार की। उसके बाद महाराणा प्रताप ने डूंगरपुर की तरफ कूच किया।

डूंगरपुर के रावल आसकरण की बहुत सी सेना पहले ही रावत भाण से हुई लड़ाई में काम आ चुकी थी। महाराणा प्रताप की सेना जब डूंगरपुर के निकट पहुंची, तो डूंगरपुर के रावल आसकरण अपनी रानियों समेत किला छोड़कर पहाड़ों में चले गए।

परन्तु यहां मामला कुछ जटिल था। क्योंकि मारवाड़ के राणा प्रताप कहे जाने वाले वीर योद्धा राव चंद्रसेन राठौड़ इस समय डूंगरपुर के निकट ही पहाड़ी क्षेत्र में थे और

वे डूंगरपुर रावल आसकरण की पत्नी पार्वती राठौड़ के भाई थे। इस समय डूंगरपुर के किले में रावल आसकरण के कुछ पुत्र व राव चंद्रसेन राठौड़ के परिवार के सदस्य थे।

महाराणा प्रताप की सेना देखकर किले वालों ने डरकर राव चंद्रसेन को बुलावा भेजा। राव चंद्रसेन महाराणा प्रताप के बहनोई भी थे और वे महाराणा प्रताप का बहुत आदर करते थे।

राव चंद्रसेन ने इस मामले में ना पड़कर पंचोली सुरताण को भेजकर डूंगरपुर से अपने परिवार को बुला लिया। इसी समय रावल आसकरण ने राव चन्द्रसेन को संदेश भिजवाया कि

“हम महाराणा प्रताप से विरोध नहीं कर पाएंगे, इसलिए आप डूंगरपुर पधारें”। संदेश प्राप्त करके राव चंद्रसेन ने डूंगरपुर के महलों की तरफ कूच किया।

राव चन्द्रसेन को वहां देखकर महाराणा प्रताप ने युद्ध न करने का फैसला किया, क्योंकि राव चन्द्रसेन महाराणा प्रताप के मित्र व बहनोई थे और सबसे बड़ी बात कि वे मुगल सल्तनत के कट्टर विरोधी थे।

महाराणा प्रताप ने इस अभियान को बीच में ही छोड़ दिया और मेवाड़ की तरफ लौट गए। महाराणा प्रताप के चावण्ड की तरफ जाने की खबर सुनकर रावल आसकरण अपनी रानियों समेत डूंगरपुर पहुंचे।

डूंगरपुर का जूना महल

इसी वर्ष मेवाड़ के कोटड़ा गाँव में राव चन्द्रसेन की महाराणा प्रताप से मुलाकात हुई। महाराणा प्रताप ने राव चन्द्रसेन से कहा कि

“पुरानी बातों को भुलाकर फिर से एक होकर मुगलों से लड़ा जाए, तो बेहतर रहेगा, इसलिए आप अपने इलाके में मुगल विरोधी कार्य करना शुरु कर देवें।”

महाराणा प्रताप का ये अभियान निर्णायक नहीं रहा था, फिर भी डूंगरपुर के रावल आसकरण महाराणा प्रताप का विरोध करने की स्थिति में नहीं थे। महाराणा प्रताप का प्रभुत्व उन्हें स्वीकार करना ही पड़ा।

वागड़ पर महाराणा प्रताप की विजय की खबर अकबर के कानों तक पहुंची, तो एक बार तो उसे यकीन नहीं हुआ, क्योंकि कुछ महीने पहले ही उसने वागड़ के नरेशों को अपने अधीन किया था।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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