मुगल सेनापति शाहबाज़ खां मेवाड़ व उसके आसपास 80 मुगल थाने तैनात करके पंजाब की तरफ चला गया। महाराणा प्रताप के साधन सीमित हो गए।
अनेक वीर हल्दीघाटी, गोगुन्दा, कुम्भलगढ़ जैसी बड़ी लड़ाइयों में वीरगति को प्राप्त हुए। महाराणा प्रताप ने भामाशाह कावड़िया व उनके भाई ताराचंद कावड़िया को फौजी टुकड़ी देकर मालवा की तरफ विदा किया।
भामाशाह जी महाराणा प्रताप के बचपन के मित्र थे व महाराणा से 7 वर्ष छोटे थे। इनका जन्म 1547 ई. में ओसवाल परिवार में भारमल जी के यहां हुआ। भारमल जी महाराणा सांगा के समय रणथंभौर दुर्ग के किलेदार थे।
महाराणा उदयसिंह ने भारमल जी को सपरिवार चित्तौड़गढ़ दुर्ग में आमंत्रित करके एक लाख की जागीर का पट्टा दिया था। भामाशाह जी मेवाड़ के खजांची थे।
मेवाड़ के राजकोष का उत्तरदायित्व इन्होंने सम्भाला। महाराणा प्रताप द्वारा जारी किए गए अधिकतर ताम्रपत्र भामाशाह जी द्वारा ही लिखे गए थे। प्रशासनिक कार्यों में कुशल होने के साथ-साथ दोनों भाई अच्छे योद्धा भी थे।
भामाशाह जी व ताराचंद जी ने हल्दीघाटी युद्ध में भी भाग लिया था। उसके बाद की छापामारी लड़ाइयों में भी दोनों भाइयों ने वीरता का प्रदर्शन किया था।
भामाशाह व ताराचंद जी फौजी टुकड़ी सहित मालवा में रामपुरा की तरफ गए। रामपुरा के राव दुर्गा सिसोदिया ने मुगल अधीनता स्वीकार कर रखी थी, परन्तु फिर भी उन्होंने मेवाड़ी फौज को सुविधाएं व सुरक्षा प्रदान की।
जब स्थिति कुछ ठीक हुई, तो भामाशाह जी ने मालवा में जगह-जगह बादशाही इलाकों पर हमले किए और जितना हो सका, जहां से हो सका, दंड वसूल किया।
भामाशाह जी ने मालवा में छापामार प्रणाली का कुशलता से प्रयोग किया। अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करके दोनों भाई अपने साथियों सहित मालवा से रवाना हुए।
महाराणा प्रताप इन दिनों गुजरात की ईडर रियासत में स्थित चूलिया गांव में थे। भामाशाह व ताराचंद जी वहां पहुंचे और उस ज़माने के 25 लाख रुपए व 20 हजार अशर्फियां महाराणा प्रताप के चरणों में रख दी।
भामाशाह व ताराचन्द जी ने अपना नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज करा दिया। भामाशाह जी की क्षमता देखकर महाराणा प्रताप ने महासहाणी रामा के स्थान पर भामाशाह जी को मेवाड़ के मंत्रिमंडल का सर्वोच्च पद देते हुए प्रधानमंत्री बना दिया।
रामा कायस्थों के ‘महासहाणी’ कुल के थे। “भामो परधानो करै, रामो कीधो रद्द। धरची बाहर करणनूं, मिलियो आय मरद्द।।”
इस दोहे का आशय है कि महाराणा प्रताप ने भामाशाह जी को प्रधान बनाया और रामा को पद से हटाया। देश की तरफदारी करने के लिए एक मर्द आ मिला है।
दोहे में भामाशाह जी को ‘दानवीर’ नहीं, बल्कि ‘मर्द’ कहा गया है जो कि उनकी मालवा लूटने की बहादुरी की तरफ संकेत करता है।
भामाशाह जी की हवेली चित्तौड़ दुर्ग में तोपखाने के मकान के सामने वाले कवायद के मैदान के पश्चिमी किनारे के मध्य में थी, जिसको महाराणा सज्जनसिंह ने कवायद का मैदान तैयार कराते समय थोड़ी तुड़वा दी।
वर्तमान में भामाशाह जी की हवेली जर्जर अवस्था में है, जिसके भीतर कई स्तम्भ भी हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार भामाशाह जी द्वारा भेंट किया गया धन महाराणा कुम्भा व महाराणा सांगा के समय का संचित कोष था।
परन्तु मैं इस तथ्य से असहमत हूँ। क्योंकि 1578 ई. में मालवा को लूटने की घटना प्रामाणिक है, जबकि संचित कोष की बात केवल धारणा है।
भामाशाह जी बचपन से महाराणा प्रताप के साथ खेले और बड़े हुए। यदि यह संचित कोष भामाशाह जी या उनके पिता के पास रहा होता,
तो मुश्किल समय आने से पहले ही महाराणा प्रताप को इस कोष के बारे में बता दिया जाता। इतनी बड़ी मात्रा में यदि संचित कोष होता, तो महाराणा प्रताप भामाशाह जी को मालवा लूटने के लिए नहीं भेजते।
यदि 25 लाख रुपए व 20 हज़ार अशर्फियां भामाशाह जी का निजी धन होता और उन्होंने महाराणा प्रताप को ये धन दान दिया होता, तो सर्वप्रथम प्रश्न भामाशाह जी पर ही उठ जाता कि उनके पास इतना धन कहाँ से आया।
अब प्रश्न ये है कि यदि भामाशाह जी द्वारा भेंट किया गया धन मालवा की लूट का था, तो उन्हें दानवीर क्यों कहा गया ? इस प्रश्न का कोई प्रामाणिक उत्तर नहीं है,
परन्तु उस समय से या उसके पश्चात चली आ रही मान्यताओं पर विचार किया जाए, तो प्रतीत होता है कि भामाशाह जी ने मालवा की लूट के साथ एक सैन्य टुकड़ी व स्वयं का धन भी महाराणा प्रताप को भेंट किया था।
यही कारण रहा होगा कि संसार भर में भामाशाह जी दानवीर का पर्याय बन गए। भामाशाह जी द्वारा भेंट किए गए धन से महाराणा प्रताप ने सैन्य शक्ति को मज़बूती प्रदान की।
हथियार आदि खरीदे गए, रसद का भी बेहतर इंतजाम होने लगा। महाराणा प्रताप ने पुनः नए जोश व उत्साह के साथ मेवाड़ी बहादुरों व प्रजा में स्वाधीनता की लहरों का संचार किया।
अब महाराणा प्रताप ने शाहबाज़ खां द्वारा तैनात की गई 80 मुगल चौकियों को उखाड़ फेंकने के लिए कमर कस ली।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)