1578 ई. :- मुगल सेनापति शाहबाज़ खां ने कुम्भलगढ़ दुर्ग जीतने के बाद महाराणा प्रताप को खोजने के लिए मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्रों पर धावा बोल दिया। 3 महीने तक शाहबाज़ खां की फ़ौज व मेवाड़ी फ़ौज की टुकड़ियों में छोटी-बड़ी लड़ाइयां होती रही, लेकिन निर्णायक विजय किसी को नहीं मिली।
शाहबाज़ खां ने मेवाड़ में 50 मुगल थाने तैनात कर दिए। साथ-ही-साथ उसने मेवाड़ से सटे पड़ोसी इलाकों में भी 30 मुगल थाने तैनात किए। शाहबाज़ खां ने इस तरह पुख़्ता इंतजाम करने के बाद विचार किया कि अब मेवाड़ को पूरी तरह जकड़ लिया गया है।
शाहबाज़ खां द्वारा मेवाड़ और उसके निकट कुल 80 मुगल थाने तैनात किए गए। इतने मुगल थाने अब तक के इतिहास में किसी भी रियासत में तैनात नहीं किए गए थे। शाहबाज़ खां द्वारा इन थानों की तैनाती का परिणाम भी उसके पक्ष में आने लगा। मेवाड़ की परेशानियां बढ़ने लगी और महाराणा प्रताप के साथियों का साथ भी उनसे छूटने लगा।
बूंदी के राव दूदा हाड़ा, जो कि महाराणा प्रताप के प्रबल सहयोगी रहे। महाराणा प्रताप के कहे अनुसार राव दूदा बूंदी में मुगलों के ख़िलाफ़ विद्रोह किया करते थे। शाहबाज़ खां को मेवाड़ में एक जगह महाराणा प्रताप के होने की खबर मिली, तो उसने वहां अचानक छापा मारा। वहां महाराणा प्रताप तो नहीं मिले, परन्तु राव दूदा हाड़ा पकड़े गए। राव दूदा हाड़ा ने 1578 ई. में शाहबाज़ खां के समक्ष मुगल अधीनता स्वीकार कर ली।
कुम्भलगढ़ जीतकर, मेवाड़ को जकड़ने के लिए 80 मुगल थाने बिठाकर, राव दूदा हाड़ा को साथ लेकर शाहबाज़ खां मेवाड़ से रवाना हुआ और 17 जून, 1578 ई. को पंजाब के तिहारा गांव में अकबर के शिविर में हाजिर हुआ। जो उपलब्धि शाहबाज़ खां ने हासिल की थी, अकबर निश्चित रूप से खुश हुआ।
अकबर ने राव दूदा के लिए कहा कि “इसके माथे पर तो लगातार बर्बाद होना ही लिखा है। जो शैतान होते हैं, उनके लिए बादशाही मेहरबानियों का हमेशा अकाल पड़ा रहता है।” अकबर राव दूदा को पंजाब में ही छोड़कर अपनी राजधानी फतहपुर सीकरी के लिए रवाना हुआ। कुछ समय बाद राव दूदा पंजाब से बच निकले। लेकिन इसके बाद इनके द्वारा महाराणा प्रताप को कोई सहयोग नहीं मिला और ना ही इन्होंने मुगलों के विरुद्ध कोई बड़ा विद्रोह किया।
अकबरनामा में अबुल फजल लिखता है कि “शाहबाज खां राव सुर्जन के बेटे दूदा को लेकर शाही दरबार में आया। जैसा कि पहिले ही बताया जा चुका है कि शाहबाज खां को राणा को सजा देने भेजा गया था। शाहबाज खां ने बेहतरीन काम किया और कई बागी कत्ल हुए। राणा का मकान लूट लिया गया और राणा भागकर पहाड़ियों में चला गया। दूदा, जो कि हमेशा वक्त-वक्त पर राणा से हाथ मिलाकर बगावत करता था, उसने बादशाही मातहती कुबूल की।”
महाराणा प्रताप माउंट आबू के ऋषिकेश, भारना, सालगांव, अचलगढ़, गुरुशिखर, उतरज होते हुए शेरगांव पहुंचे। सिरोही के राव सुरताण देवड़ा ने उनकी सिरोही पहुंचने में मदद की। मान्यता है कि यहां महाराणा प्रताप एक गुफा में रहे, जिसे भैरोगुफा कहा जाता है।
1578 ई. में ही महाराणा प्रताप को एक और बुरा समाचार मिला। महाराणा प्रताप के प्रबल सहयोगी ईडर के राय नारायणदास राठौड़ का देहांत हो गया। राय नारायणदास के पुत्र वीरमदेव ईडर के शासक बने। इस प्रकार एक ही वर्ष में ईडर और बूंदी रियासतों से महाराणा प्रताप को मिलने वाले अप्रत्यक्ष सहयोग का अंत हो गया।
महाराज शक्तिसिंह द्वारा भीण्डर की रक्षा :- 1578 ई. में दशोर (वर्तमान में मन्दसौर) की तरफ से मिर्जा बहादुर ने भीण्डर पर हमला किया। भीण्डर के ठिकानेदार अमरसिंह सोनगरा (महाराणा प्रताप के मामा मानसिंह सोनगरा के पुत्र) ने शक्तिसिंह जी से सहायता मांगी।
शक्तिसिंह जी ने मिर्जा बहादुर को पराजित कर भीण्डर की रक्षा की। महाराणा प्रताप जब सिरोही से मेवाड़ पधारे, तब उन्होंने शक्तिसिंह जी के कार्यों से प्रसन्न होकर उनको बेगूं व भीण्डर की जागीर दे दी।
महाराणा प्रताप के समक्ष एक विराट दुविधा थी। महाराणा प्रताप के साधन सीमित होते जा रहे थे, खज़ाना खत्म होता जा रहा था और शाहबाज़ खां द्वारा तैनात किए गए 80 मुगल थाने उखाड़ फेंकना मुश्किल होता जा रहा था। महाराणा प्रताप ईडर के चूलिया गांव में पहुंचे।
चूलिया गांव से महाराणा प्रताप ने पत्र द्वारा रामपुरा के राव दुर्गा सिसोदिया से सम्पर्क स्थापित किया। राव दुर्गा सिसोदिया ने मुगल अधीनता स्वीकार कर ली थी, परन्तु अब भी उनके मन में मेवाड़ नरेश के प्रति आदर का भाव था। महाराणा प्रताप ने राव दुर्गा से कहा कि आप मालवा आने वाले हमारे साथियों की हरसंभव मदद करें।
राव दुर्गा द्वारा महाराणा प्रताप के पत्र का सकारात्मक जवाब दिया गया। फिर महाराणा प्रताप ने भामाशाह जी कावड़िया व उनके सगे भाई ताराचंद जी कावड़िया को फ़ौजी टुकड़ी देकर मालवा की तरफ विदा किया और कहा कि मालवा में मुगल अधीनस्थ क्षेत्रों व मुगल चौकियों से जितना हो सके दण्ड वसूल करो और ख़ज़ाने सहित सकुशल मेवाड़ लौट आओ।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)