अक्टूबर, 1577 ई. में अकबर ने शाहबाज़ खां के नेतृत्व में कुम्भलगढ़ दुर्ग को जीतने के लिए फ़ौज भेजी। 2-3 महीने बीत जाने के बाद भी शाहबाज़ खां किला नहीं जीत पाया।
शाहबाज़ खां को 2 बार महाराणा प्रताप से परास्त भी होना पड़ा। शाहबाज़ खां ने राजा मानसिंह कछवाहा व राजा भगवानदास कछवाहा को फतहपुर सीकरी जाने के लिए कहा, क्योंकि वो राजपूतों का साथ नहीं चाहता था।
उसे शक था कि राजपूत होने के कारण ये महाराणा प्रताप के विरुद्ध मन से लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं। अकबरनामा में अबुल फजल लिखता है कि
“शाहबाज़ खां ने कुंवर मानसिंह और राजा भगवानदास को इस खातिर रवाना किया, क्योंकि ये राणा के बाप-दादों के मातहत (अधीन) रहे थे। इसलिए इनकी वजह से कहीं उस गर्दीले कलहकारी राणा से बदला लेने में देर न हो जाए।”
जयपुर की ख्यातों के अनुसार राजा मानसिंह व राजा भगवानदास खुद अपनी इच्छा से फतहपुर सीकरी चले गए, क्योंकि महाराणा प्रताप जैसे वीर के विरुद्ध वे पहले ही बहुत लड़ाइयां लड़ चुके थे। अब उनके विरुद्ध और लड़ना उन्हें उचित नहीं लगा।
इतिहासकार श्रीराम शर्मा लिखते हैं कि “राजा भगवानदास व राजा मानसिंह को, जिनके बारे में शक था कि उनका झुकाव महाराणा प्रताप के प्रति था,
वापस भेजकर शाहबाज़ खां ने अपने दायित्व के प्रति पूर्ण गंभीरता का परिचय दिया। इस शुद्धिकरण के उपरांत कुम्भलगढ़ जाने वाली शाही सेना में एक भी हिन्दू अधिकारी शेष नहीं रह गया था।
अवश्य ही राजा मानसिंह व शाहबाज़ खां के बीच कोई कहासुनी हुई होगी। स्वभावतः इनके जाने के बाद शाहबाज़ खां ने सोचा होगा कि अच्छी छुट्टी मिली, क्योंकि वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भय उत्पन्न कर देने वाले उपाय काम में लाने का दृढ़ निश्चय कर चुका था।
वह सारे प्रदेश को तहस-नहस कर देना चाहता था और ये एक ऐसी योजना थी, जिसका विरोध राजा भगवानदास और राजा मानसिंह ने किया होगा।”
राजा मानसिंह व राजा भगवानदास जब अकबर के पास पहुंचे, तो खास बात ये रही कि अकबर ने भी शाहबाज़ खां के इस फैसले का विरोध नहीं किया।
ये दोनों जब अकबर के खेमे में पहुंचे, तब उस खेमे में एक हिन्दू लेखक भी था, जो कुछ और बात लिखता है कि :-“पातिसाहजी रामनगर ऊतरि अर डेरा किया। वासै महला रे डेरे राजा भगवानदास आई मिलियो। ओथि पातिसाहजी
भगवानदास अर मानसिंह ऊपरि खिजिया। कहियो थे कुम्भळमेर फिटो करि क्यू आया। सु कुम्भळमेर इया माहे हेल हुई। उठा वरमदुवार मागि नीसरिया हुता। मरि छडि, तूती घणो, बेखरच हुई, तूति मरि, भूखा मरि अर नीसरिया हुता। तियै वासतै पातिसाहजी खिजिया”
अर्थात् “जब अकबर ने रामनगर पर मुकाम किया, तो वहां राजा भगवानदास और राजा मानसिंह पहुंचे। कुम्भलगढ़ के युद्ध में महाराणा प्रताप से पराजित होकर उन्हें घेरा बीच में ही छोड़कर आना पड़ा।
इस वजह से अकबर बड़ा क्रोधित हुआ। अकबर ने कहा कि कुम्भलगढ़ फतह करने के लिए हम पहले ही बहुत धन लगा चुके हैं, बहुत फौज खर्च भी हो रहा है और तुम लोग हारकर आ गए।”
(हालांकि इस लेखक की लिखी हुई बात उचित नहीं लगती है, क्योंकि अकबर ने इस समय कोई क्रोध नहीं दिखाया, बल्कि उसने तो उल्टा राजा मानसिंह व राजा भगवानदास को प्रसन्न करने के यत्न किए थे, क्योंकि उक्त दोनों का अपमान शाहबाज़ खां द्वारा किया गया था।)
इस घटना के बाद राजा मानसिंह और राजा भगवानदास कभी भी महाराणा प्रताप के विरुद्ध लड़ने नहीं आए या सम्भवत: नहीं भेजे गए।
इस तरह यहाँ महाराणा प्रताप और राजा मानसिंह के बीच संघर्ष समाप्त होता है। हल्दीघाटी का युद्ध वो समय था जब राजा मानसिंह ने महाराणा प्रताप के विरुद्ध विजयी होने व
अकबर की दृष्टि में और अधिक ऊपर उठने की मंशा से इस संघर्ष में भाग लिया था, परन्तु राजा मानसिंह इस बात से अनजान थे कि इस संघर्ष की समाप्ति इस अपमान के साथ होगी।
जब राजा मानसिंह फतहपुर सीकरी पहुंचे, तब अकबर ने राजा मानसिंह को प्रसन्न करने के लिए हरसंभव प्रयास किए। अकबर ने राजा मानसिंह को कोटा के दक्षिण में स्थित खीचीवाड़ा में उठे उपद्रव का दमन करने भेज दिया।
फिर राजा मानसिंह को मालवा भेज दिया गया और उनका मनसब बढ़ाकर 3500 कर दिया गया। इसके बाद उनको काबुल भेजा गया।
इस प्रकार एक तरफ अकबर ने राजा मानसिंह को प्रसन्न करने की कोशिश की और दूसरी तरफ उसने शाहबाज़ खां द्वारा राजा मानसिंह का अपमान किए जाने का कोई विरोध नहीं किया।
इससे मालूम होता है कि अकबर और शाहबाज़ खां द्वारा पत्र व्यवहार के ज़रिए यह पहले ही तय किया जा चुका था। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
Yeh rajput rahee he nahi gayee thee Kachwahaoo ko rajput samjhna hee nahi chaiee unke nasal malach ho chuki hai….woh napunsak aur kayaa thee aur hamesha rahenge