31 अगस्त, 1567 ई. को हुई “कुँवर शक्तिसिंह व अकबर की मुलाकात”
अकबर ने धौलपुर में पड़ाव डाला, जहां उसकी मुलाकात मेवाड़ के कुंवर शक्तिसिंह से हुई। मुगल लेखक अबुल फजल ने शक्तिसिंह का नाम शक्ता लिखा है। अकबरनामा में अबुल फजल लिखता है कि “शहंशाह ने धौलपुर में पड़ाव डाला, यहां उनकी मुलाकात राणा उदयसिंह के बेटे शक्ता से हुई। शहंशाह ने शक्ता से कहा कि बड़े-बड़े राजा-महाराजा हमारे दरबार में हाजिर हुए, पर राणा उदयसिंह नहीं आया। हम राणा उदयसिंह पर हमला करने जा रहे हैं, तुम भी चलोगे हमारे साथ ? कुछ देर बाद शक्ता शहंशाह की इजाजत लिए बगैर ही चला गया”
अकबर ने जब कुँवर शक्तिसिंह को साथ में चलने को कहा, तो कुँवर को पक्का यकीन हो गया कि अकबर का उद्देश्य चित्तौड़गढ़ जीतना है। कुँवर शक्तिसिंह के मन में यह बात शूल की तरह चुभने लगी और उन्होंने रातों-रात ही अकबर का शिविर छोड़ दिया और चित्तौड़गढ़ के लिए निकल गए।
सितम्बर, 1567 ई. को “कुँवर शक्तिसिंह द्वारा महाराणा उदयसिंह को अकबर के आक्रमण की सूचना देना”
कुंवर शक्तिसिंह चित्तौड़ आए और महाराणा उदयसिंह को अकबर के हमले की सूचना से अवगत कराया। महाराणा उदयसिंह ने चित्तौड़ के आस-पास की जमीन को उजाड़ दिया, फसलें खत्म कर दीं, ताकि मुगल सेना को रसद सामग्री ना मिल सके। अबुल फजल लिखता है “इस दौरान चित्तौड़ में घास तक नहीं बची”।
अक्टूबर, 1567 ई. को “धौलपुर से अकबर की रवानगी”
कुँवर शक्तिसिंह द्वारा बिना आज्ञा लिए शिविर छोड़ने के कारण अकबर और अधिक क्रोधित हो गया और उसने चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई करने में और अधिक फूर्ति दिखाई। अकबर ने अपने आगे-आगे 2 सेनापतियों के नेतृत्व में फौज चलाई, जो कि इस इलाके से परिचित थे। अकबर फ़ौज समेत धौलपुर से रवाना होकर रणथंभौर के निकट शिवपुर पहुंचा। शिवपुर का किला राव सुर्जन हाड़ा के अधीन था। बादशाही फ़ौज के आने की ख़बर सुनकर हाड़ा राजपूत पहले ही किला छोड़कर रणथंभौर चले गए थे। अकबर ने शिवपुर को फतह किया और इस विजय को अकबर ने शुभ शकुन माना। अकबर ने शिवपुर दुर्ग में नज़र बहादुर को एक फ़ौजी टुकड़ी समेत तैनात किया। शिवपुर विजय के बाद अकबर कोटा पहुंचा। कोटा में अकबर ने शाह मुहम्मद कंधारी के नेतृत्व में फ़ौज तैनात की। हाड़ौती प्रदेश को रौंदते हुए मुगल फ़ौज गागरोन किले के निकट पहुँची। अकबर ने अपने इस विजय अभियान में रणथंभौर और बूंदी के दुर्गों पर कोई आक्रमण नहीं किया, क्योंकि अकबर का लक्ष्य चित्तौड़गढ़ दुर्ग था और वह अपने लक्ष्य से भटकना नहीं चाहता था। अकबर नहीं चाहता था कि जब वह चित्तौड़गढ़ पर घेरा डाले, तब आसपास अन्य किसी प्रदेश में कोई उपद्रव हो। इसलिए गागरोन में जब अकबर ने पड़ाव डाला, तब उसने एक फ़ौज मिर्ज़ा-बंधुओं के विद्रोह को कुचलने के लिए मालवा भेज दी। “मांडलगढ़ का युद्ध” :- आसफ खां और वजीर खां को मांडलगढ़ भेजा गया। मांडलगढ़ में महाराणा उदयसिंह द्वारा तैनात राव बल्लु सौलंकी व भवानीदास सौलंकी मांडलगढ़ छोड़कर चित्तौड़ दुर्ग में पहुंचे। मांडलगढ़ पर मुगलों ने बचे-खुचे राजपूतों को मारकर अधिकार किया।
24 अक्टूबर, 1567 ई. को “अकबर का चित्तौड़ पहुंचना”
अकबर चित्तौड़ दुर्ग के समीप पहुंचा और किले को देखने की कोशिश की, पर उस वक्त बारिश और बिजली की चकाचौंध से कुछ नज़र न आया। 1 घण्टे बाद मौसम साफ हो गया, जिस पर अबुल फजल अकबर के लिए बहुत सी करामाती बातें लिखता है। अकबर ने चित्तौड़ के किले से 3 मील दूर अपना शिविर जमाया। अकबर जब चित्तौड़ दुर्ग के सामने पहुंचा, तब उसके साथ महज़ 5000 घुड़सवार थे। अकबर की चाल यह थी कि 5000 की फौज देखकर चित्तौड़ के राजपूत किले से बाहर आकर लड़ाई करेंगे। दरअसल गागरौन से मुगल फौज चित्तौड़ के लिए निकल चुकी थी। महाराणा उदयसिंह अकबर की इस चाल को समझ गए। अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग को घेरना शुरु किया। किला बड़ा होने के सबब से मोर्चेबन्दी का काम बड़ा मुश्किल नज़र आ रहा था।
“वीर कल्ला राठौड़ का चित्तौड़गढ़ दुर्ग में प्रवेश” :- ये जयमल राठौड़ के भतीजे थे। चित्तौड़ के तीसरे शाके के दौरान इनकी उम्र 23 वर्ष थी। महाराणा उदयसिंह ने इनको रनेला की जागीर प्रदान की थी। घोसुण्डा के समीप मुगलों से लड़ते हुए कल्ला राठौड़ ने चित्तौड़ दुर्ग में प्रवेश किया। इनको दुर्ग में प्रवेश करवाने में इनके सेनापति रणधीर सिंह वीरगति को प्राप्त हुए।
* रावत फतेह सिंह चुण्डावत / रावत पत्ता / रावत फत्ता :- इनकी जागीर में केलवा व आमेट आते हैं। इनकी उम्र चित्तौड़ के तीसरे शाके के दौरान 15 वर्ष बताई जाती है, जो कि सही नहीं है। इनकी 9 पत्नियां इस वक्त चित्तौड़ दुर्ग में ही थीं, जिससे सिद्ध होता है कि पत्ता चुण्डावत की उम्र ज्यादा रही होगी। ये महाराणा लाखा के पुत्र चूण्डा जी के वंशज थे। इनके पिता जग्गा जी थे, जिन्होंने 1554 ई. में जैताणा की लड़ाई में अपने प्राण दिए। रावत पत्ता चुण्डावत को चित्तौड़ के तीसरे शाके का नेतृत्वकर्ता घोषित किया गया।
* वीर जयमल राठौड़ :- इनका जन्म 17 सितम्बर, 1507 ई. को हुआ था। ये मेड़ता राजघराने से थे। जयमल राठौड़ महाराणा सांगा के भांजे थे। चित्तौड़ के तीसरे शाके के दौरान इनकी उम्र 60 वर्ष थी। महाराणा उदयसिंह ने इनको बदनोर की जागीर प्रदान की थी।
* अगले भाग में महाराणा उदयसिंह द्वारा की गई युद्ध की तैयारियां, राजपरिवार द्वारा दुर्ग छोड़ना, राजपरिवार के राजपीपला पहुंचने के बारे में लिखा जाएगा
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
मेवाड़ के इतिहास को आमजन तक पहुंचाने का बहुत अच्छा प्रयास.
Author
धन्यवाद सा
Bahut badiya hkm me mevad nam ka itnaa bada divana have ho gaya hu ki aap ko bata nai saktaa
अति सुन्दर प्रस्तुति
Very good post
जय महाराणा
आपरो प्रयास घणेमान प्रसंशा करवा जोग हे।आवावाली पीड़ी ने मेवाड़ रे इतिहास री जानकारी वेणी चाईजे।