वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप (भाग – 55)

1576 ई. में अक्टूबर-नवम्बर माह में अकबर डेढ़ महीना मेवाड़ में गुजारकर बांसवाड़ा गया, जहां वागड़ के शासकों ने मुगल अधीनता स्वीकार कर ली।

अकबर जब बांसवाड़ा में था, तब ईडर से एक फौज कुलीज खां के नेतृत्व में अकबर ने वापस बुलवा ली और उसको हज यात्रियों की मदद ख़ातिर सूरत की तरफ भेज दिया।

जब ईडर से मुगल फौज का दबाब कम हो गया, तो वहां के शासक राय नारायणदास राठौड़, जो कि महाराणा प्रताप के ससुर थे, उन्होंने फिर से मुगल सल्तनत के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद कर ली

और मुगल थानों पर आक्रमण करते हुए ईडर के मुगल आधिपत्य क्षेत्रों को पुनः जीतना प्रारंभ कर दिया। अकबर को इस बात की सूचना बांसवाड़ा में मिली।

अकबर

अकबर ने एक फ़ौज ईडर की तरफ रवाना की। इस फ़ौज में हीरा भान, उमर खां अफ़ग़ान, हसन बहादुर जैसे नामी सिपहसालार शामिल थे। इस अभियान का लक्ष्य ईडर पर पूर्ण रूप से मुगल आधिपत्य की स्थापना व राय नारायणदास राठौड़ को मारना था।

ईडर के पहले युद्ध में महाराणा प्रताप ने भाग नहीं लिया था, फिर भी इस युद्ध का वर्णन महाराणा प्रताप के इतिहास की सीरीज में इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि इस युद्ध के परिणामों का संबंध महाराणा प्रताप से है। इसी युद्ध ने ईडर के दूसरे युद्ध की नींव रखी थी।

मुन्तख़ब उत तवारीख़ में मुगल लेखक अब्दुल कादिर बदायूनी लिखता है कि “राणा कीका की तरह, जैसा कि लूटेरे किया करते हैं, नारायणदास भी पहाड़ों-जंगलों में भटकता रहा। जो चाँद करता है,

भला उसकी नकल कौनसा तारा नहीं करेगा। कुछ राजपूत ईडर के मन्दिरों और मकानों के बाहर तलवार-भाले लेकर डटे रहे और

मरने को उतारु होकर शाही फौज पर हमला करने लगे। हीरा भान, उमर खां अफ़ग़ान, हसन बहादुर वग़ैरह शाही फ़ौज के बहादुरों ने दुश्मनों को ख़त्म करने के लिए कमर कस ली।”

ईडर का किला

बदायूनी आगे लिखता है कि “अभागे राजपूतों ने अपनी तलवारें निकाल लीं और भाले तान लिए और उनको जहां अपनी जान देनी थी, वहां आ धमके। राजपूतों की बहादुरी के आगे शाही फौज के बहुत से सिपाही नहीं टिक पाए

और वे पीठ दिखाकर भागने लगे, पर कई बहादुर टिके रहे। अलबत्ता फतह का झंडा बादशाही फौज के हाथ रहा, पर उमर खां, हसन बहादुर वगैरह सिपहसालारों ने आखरी सांस तक लड़ाई की

और शहीद होकर जन्नत में जगह बनाई। गर्दन उठाने वाले लोग कत्ल हुए। ईडर से बहुत सा लूट का माल शाही फौज के हाथ लगा।”

यहां मैं बदायूनी का थोड़ा परिचय दे देता हूँ। बदायूनी का जन्म 1540 ई. में हुआ था और ये अपनी बेबाक बातों के लिए मुगल सल्तनत में बड़ा प्रसिद्ध था। बदायूनी ने अपनी कट्टरता के कारण कई बार अकबर के विचारों का भी खंडन कर दिया।

अकबर ने उस पर अपना प्रभुत्व व रौब जमाने के लिए बदायूनी से रामायण और महाभारत का अनुवाद लिखवाया, जो बदायूनी को न चाहते हुए भी लिखना पड़ा।

बदायूनी ने महाराणा प्रताप के लिए चांद व ईडर के राय नारायणदास के लिए तारे की उपमा दी है। वह महाराणा प्रताप को राजपूताने में मुगल सल्तनत की बग़ावत की धुरी मानता था, जो उचित भी था।

बदायूनी राजपूतों का कट्टर विरोधी था, फिर भी वह महाराणा प्रताप की बहादुरी और चतुरता का कायल था। महाराणा की बहादुरी वह हल्दीघाटी युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से देख भी चुका था।

ईडर के राठौड़ राजपूतों ने बड़ी बहादुरी दिखाई, परन्तु यहां भी वही हुआ जो हल्दीघाटी में हुआ था। आख़िरी समय में मुगलों ने पीछे खड़ी फ़ौज को आगे लाकर नतीजे बदल दिए।

ईडर पर मुगलों का अधिकार हो गया और राय नारायणदास राठौड़ बच निकलने में कामयाब रहे। राय नारायणदास बचे खुचे राजपूतों सहित मेवाड़ के जंगलों में चले गए।

महाराणा प्रताप

ईडर के राय नारायणदास राठौड़ अपने दामाद महाराणा प्रताप के पास पहुंचे। महाराणा प्रताप ने राय नारायणदास को आश्वासन देते हुए कहा कि

हम आपके राज्य ईडर को मुगल आधिपत्य से स्वतंत्र करने में सहयोग अवश्य करेंगे, परन्तु कुछ समय बाद, इस समय हमें मेवाड़ में तैनात मुगल थानों को जड़ समेत उखाड़ना है।

हिंदूपति प्रताप, पत राखी हिंदवाण री। सहे विपत्ति संताप, सत्य सपथ कर आपणी।। अर्थात हे हिंदूपति महाराणा प्रतापसिंह, आपने हिंदुओं की लाज रख ली और अनेक प्रकार की विपत्तियां व संताप सहकर भी अपनी सच्ची प्रतिज्ञा का पूर्ण रूप से निर्वाह किया।

* अगले भाग में महाराणा प्रताप द्वारा मुगल छावनियों पर भयंकर आक्रमण का वर्णन किया जाएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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