वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप (भाग – 23)

1576 ई. – हल्दीघाटी युद्ध से पूर्व मेवाड़ी सभा :- ग्रंथ राणा रासो में हल्दीघाटी युद्ध की शुरुआत में महाराणा प्रताप द्वारा मेवाड़ी सभा बुलाने का अच्छा वर्णन मिलता है। पोस्ट के अंत में दिए गए निष्कर्ष के अतिरिक्त आज के भाग का सम्पूर्ण वर्णन राणा रासो ग्रंथ से ही लिया गया है।

उक्त ग्रंथ में लिखा है कि “अकबर ने राजा टोडरमल से कहा कि यदि प्रताप को परास्त ना कर दूं तो मैं हुमायूं का पुत्र नहीं, सारे राजा मेरे अधीन हैं सिर्फ प्रताप ही नहीं है। मैं प्रताप के गले में धनुष प्रत्यंचा डालकर उसे पकड़ लूंगा।

मैंने रूमी भू-भाग, झाड़खंड, पूर्वी एवं पश्चिमी प्रदेश, पंजाब, अंग, बंग, कलिंग, तैलंग, मथर, मारवाड़, मुलतान, मंडोवर, उड़ीसा, गोंडवाना, मालवा, मालाबार, गक्खर, सौराष्ट्र, पैठण, कंबोज, कच्छ, कदली, विंध्य, गुजरात, गौड़ आदि प्रदेशों को जीता है।

अकबर ने अपनी सेना को तैयार किया। इससे सर्वत्र खलबली मच गई। अकबर की सेना में राजपूत, कवारी, खुरासानी, मुलतानी, रुहिल्ले, रूमी, हबसी, फिरगस्थानी आदि अनेक जातियों के योद्धा थे।

महाराणा प्रताप

अकबर ने अजमेर में आकर डेरे किए। वहां उसने ख्वाजा मुइनुद्दीन की दरगाह में वंदना की। महाराणा प्रताप के सामन्तों को जब अकबर के आक्रमण की सूचना मिली,

तो महाराणा प्रताप के बहनोई शालिवाहन तोमर ने सामन्तों से कहा कि अब हमें ग़ाफ़िल नहीं रहना है, जो भी प्रयत्न करने हों, शीघ्र कर लेने चाहिए।

सभी सामन्तों ने शालिवाहन तोमर से कहा कि आप महाराणा प्रताप के पास जाएं और उन्हें परिस्थिति से अवगत कराकर आदेश प्राप्त कर लौटें। रामसिंह खींची ने शालिवाहन तोमर से कहा कि आपके पिता के कंधों पर ही सारा भार है।

दो सवारों को साथ लेकर शालिवाहन तोमर महाराणा प्रताप के पास पहुंचे। महाराणा उस समय रनिवास में थे। शालिवाहन तोमर के आने की सूचना पाकर महाराणा प्रताप ने रानियों को संकेत देकर विदा किया और शालिवाहन तोमर को सम्मान सहित भीतर बुलाया।

शालिवाहन ने महाराणा प्रताप को अकबर के आक्रमण की सूचना दी, तो महाराणा ने हंस कर कहा कि परिणाम चाहे जो हो, अकबर मानसिंह सहित करोड़ों मुगलों के साथ भी आ जाए, तब भी हम उससे युद्ध करेंगे।

कुँवर शालिवाहन तोमर

महाराणा प्रताप ग्वालियर नरेश राजा रामशाह तोमर के मेवाड़ में ही स्थित निवास स्थान पर पहुंचे, तो राजा रामशाह ने महाराणा प्रताप का स्वागत किया और कहा कि आपने मुझे ही क्यों न बुलवा लिया, आपका जो आदेश होगा, मैं उसे सिर पर धारण करूँगा।

चोपदारों ने समस्त सामन्तों को सूचित किया। सूचना पाते ही समस्त सामंत राजा रामशाह के निवास स्थान पर पहुंचे। इस सभा में बड़ी सादड़ी के झाला बींदा/मानसिंह, महाराणा के मामा जालौर के मानसिंह सोनगरा, देलवाड़ा के झाला मानसिंह, राव संग्रामसिंह,

सरदारगढ़ के भीमसिंह डोडिया, बिजौलिया के डूंगरसिंह पंवार, शेरखान चौहान, सेढू महमूद खां, पत्ता चुण्डावत के पुत्र कल्याण सिंह, जालम राठौड़, नंदा प्रतिहार, नाथा चौहान, हरिदास चौहान, दुर्गादास, प्रयागदास भाखरोत, कूंपा के पुत्र जयमल, मंत्री भामाशाह आदि उपस्थित थे।

महाराणा प्रताप ने राजा रामशाह से सलाह पूछी, तो राजा रामशाह तोमर ने प्रस्ताव रखा कि मुगलों से खुले में युद्ध लड़ना ठीक न रहेगा। हमें पहाड़ों का आश्रय लेकर यवनों को घेर लेना चाहिए और उन्हें नष्ट कर देना चाहिए।

राजा रामशाह का प्रस्ताव सुनकर सभी सामंत हंस पड़े और कहने लगे कि हमारे साथी होकर आप मुगलों से भयभीत हो गए, आप एक वृद्ध होकर जीवित रहना चाहते हैं ?

राजा रामशाह तोमर

हम युवक तो अबोध और अज्ञानी ही हैं, पर हमने यह निश्चय किया है कि मुगलों से आमने-सामने रहकर ही युद्ध करेंगे।

राजा राम यदि चाहें तो हरावल में न रहकर, चंदावल में युद्ध करें। इस पर राजा राम ने कहा कि मैंने अपने अनुभव के आधार पर ही यह राय दी है।

सभी सामन्तों समेत महाराणा प्रताप ने भी इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। युद्ध का निश्चय करने पर महाराणा प्रताप ने सामन्तों का जुहार स्वीकार किया और उन्हें ताम्बूल दिए।”

निष्कर्ष :- प्रश्न ये उठता है कि यहां निश्चित रूप से राजा रामशाह तोमर का प्रस्ताव उचित था, परन्तु फिर भी महाराणा प्रताप जैसे दूरदृष्टि शासक ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार क्यों किया ? इसके भिन्न-भिन्न कारण हैं।

महाराणा प्रताप की दूरदृष्टि इसी बात से पता चलती है कि हल्दीघाटी जैसे महत्वपूर्ण युद्ध में भी मेवाड़ी वीरों ने केसरिया नहीं किया था। एक राजपूत जब केसरिया करता था तो युद्ध के दो ही परिणाम होते थे विजय या वीरगति।

महाराणा प्रताप

जैसा कि राजपूतों ने चित्तौड़ के तीनों शाकों में किया था। अर्थात महाराणा प्रताप यह पहले ही तय कर चुके थे कि यदि वे युद्ध में विजयी नहीं रहे, तो शेष वीरों को वीरगति के पथ पर नहीं जाने देंगे।

मौतमिद खां ने इकबालनामा-ए-जहांगीरी में एक और कारण बताया है, वह भी उचित है। उसके अनुसार राजा मानसिंह के पुरखे महाराणा प्रताप के पुरखों के ध्वज तले युद्ध लड़े थे, इसलिए राजा मानसिंह के नेतृत्व में जाने वाली फौज के सामने राणा प्रताप अवश्य आएंगे।

महाराणा प्रताप ने इन सभी तथ्यों से परिचित होने के बावजूद भी एक अंतिम बार राजा मानसिंह के फौज सहित हल्दीघाटी दर्रे के भीतर आने की प्रतीक्षा की थी,

लेकिन राजा मानसिंह भी महाराणा प्रताप की छापामार लड़ाई से भली भांति परिचित थे, इसलिए वे दर्रे के बाहर ही खड़े रहे। कोई और मार्ग शेष न रहने पर महाराणा प्रताप ने ही समतल युद्धभूमि में जाने का फैसला किया था।

हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप के सहयोगी कल्याण पड़िहार

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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