17 मार्च, 1527 ई. – खानवा के युद्ध में रायसेन के सलहदी तंवर की भूमिका :- बहुत से इतिहासकारों ने लिखा है कि रायसेन के सलहदी तंवर अपनी फ़ौज सहित महाराणा सांगा की सेना में शामिल हुए, लेकिन लड़ाई की शुरुआत में ही बाबर से जा मिले
लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ नहीं हुआ था। सलहदी तंवर ने महाराणा का साथ ही दिया था और कोई दगा नहीं किया। इस बात को सिद्ध करने के लिए यहाँ निम्न तर्क रखे जाते हैं :-
यदि सलहदी ने बाबर का साथ दिया होता, तो लड़ाई के बाद उन्हें निश्चित रूप से बाबर द्वारा कोई जागीर दी जाती, लेकिन फ़ारसी तवारीखों से मालूम पड़ता है कि बाबर ने सलहदी को जागीर देने के बजाय उनसे जागीर छीनने का प्रयास किया था।
सलहदी तंवर के पुत्र भूपति राय खानवा के युद्ध में महाराणा सांगा की तरफ से लड़े थे। यदि दगेबाजी होती, तो भूपति राय भी अपने पिता की तरफ शामिल होते।
यदि सलहदी तंवर ने दगा किया होता, तो वह फिर कभी चित्तौड़ न आते, परन्तु महाराणा रतनसिंह के समय में सलहदी तंवर चित्तौड़ आए थे।
सलहदी तंवर यदि बाबर का साथ देते, तो इस बात का ज़िक्र बाबर अपनी आत्मकथा में अवश्य करता, पर उसने ऐसा नहीं किया।
कहा जाता है कि खानवा युद्ध में नागौर के खानजादा ने दगा किया और बाबर की फ़ौज से मिल गया। इसके अलावा इब्राहिम लोदी का बेटा महमूद लोदी,
जो कि महाराणा सांगा के साथ था, वह लड़ाई के बीच में यह सोचकर कि यह लड़ाई जीतना नामुमकिन है, अपनी फ़ौज समेत वहां से बच निकला।
खानवा के युद्ध में वीरगति पाने वाले प्रमुख योद्धाओं की सूची :- सलूम्बर वालों के पूर्वज रावत रतनसिंह चुण्डावत प्रथम, कुंवर वीर, कुंवर कम्मा, कुंवर सायर, कुंवर बेणीदास, कुंवर खेमराज (उक्त पांचों कुँवर, सलूम्बर रावत के पुत्र थे),
कानोड़ के रावत जोगा सारंगदेवोत, मेड़ता के रायमल राठौड़, मेड़ता के रत्नसिंह राठौड़ (भक्त शिरोमणि मीराबाई जी के पिता), कर्मसिंह, डूंगरसिंह, डूंगरपुर नरेश रावल उदयसिंह, डूलावतों का गुड़ा के परबत सिंह डूलावत,
जवास के रावत माणकदेव चौहान, कोठारिया के प्रथम रावत साहब माणकचन्द चौहान, आमेट के रावत सींहा चुण्डावत, बड़ी सादड़ी के प्रथम राज राणा अज्जा झाला, बेदला के पहले राव चन्द्रभाण सिंह चौहान, खेतसी, राव दलपत,
रामदास सोनगरा, देवती के राजा कुंभा बड़गूजर, माचेड़ी के राजा आसकरण बड़गूजर, गोकुलदास परमार, जलालुद्दीन खां, बूंदी के नरबद हाड़ा (बूंदी के राव नारायणदास हाड़ा के छोटे भाई व बूंदी की सेना के मुखिया),
गंगदेव चौहान (ये जवास रावत के भाई थे। इनको पहाड़ा की जागीर मिली थी), मेवात के शासक हसन खां मेवाती (ये बन्दूक की गोली के लगने से वीरगति को प्राप्त हुए)।
बाबर को खानवा के युद्ध में जीतने की कोई आस नहीं थी। तुजुक-ए-बाबरी में बाबर लिखता है कि “मैं इस्लाम के लिए इस लड़ाई के जंगल में आवारा हुआ और मैंने अपना शहीद होना ठान लिया था,
लेकिन खुदा का शुक्र है कि गाज़ी बनकर जीता रहा” (गाज़ी :- इस्लाम के अनुसार वह मुसलमान योद्धा, जो हिंदुओं के ख़िलाफ़ युद्ध करे)
बाबर ने खानवा विजय का फ़तहनामा मुंशी शेख जेन से लिखवाया। फतहनामा में उन सभी घटनाओं का ज़िक्र किया जाता था, जो उस युद्ध से सम्बंधित होती थीं।
बाबर द्वारा महाराणा सांगा के खेमों में फ़ौज भेजना :- बाबर लिखता है कि “फ़तह के बाद राणा के डेरे की तरफ़ फ़ौज भेजी गई। राणा का डेरा वहां से करीब 2 कोस पर था। मैंने मोहम्मदी, अब्दुल अज़ीज, अली खां वग़ैरह को फ़ौजी टुकड़ी समेत भेजा। कुछ सुस्ती हुई, मुझे खुद जाना
चाहिए था। मैं एक कोस तक गया भी था, पर नमाज़ का वक़्त होने से वापिस लौट आया। जब मैं अपने डेरे पर गया, तो मोहम्मद शरीफ़ ज्योतिषी फ़तह की मुबारकबाद देने आया, जिसने झूठी बातें करके मेरी फ़ौज के हौंसले पस्त किए थे। मैंने उसको बहुत सी गालियां देकर अपने
दिल को हल्का किया। वह भी क़ाफ़िरों की तरह बददिल (खराब दिल वाला), घमंडी और सरकश (बागी) था। पर फिर भी वह पुराना नौकर था, इसलिए उसको 1 लाख का इनाम देकर विदा किया और कहा कि आज के बाद मेरी अमलदारी (सेवा) में खड़ा न रहे”
बाबर द्वारा राजपूतों के सिरों की मीनार बनवाना :- खानवा में मुख्य रूप से जिस पहाड़ के नीचे ये लड़ाई हुई थी, उस पहाड़ पर राजपूतों के कटे हुए सिरों की मीनार बनवाई गई। बाबर जब बयाना पहुंचा, तो बयाना, अलवर, मेवात हर जगह रास्तों में लाशें पड़ी थीं।
बाबर द्वारा मेवाड़ पर चढ़ाई के मामले पर चर्चा :- बाबर ने अपने प्रमुख सिपहसालारों को बुलाया और सबसे पूछा कि मेवाड़ पर चढ़ाई की जाए या नहीं। तो आखिरकार यह बात तय हुई कि मेवाड़ पर चढ़ाई न की जाए, क्योंकि अभी पानी की तंगी है और ऊपर से गर्मी भी ज्यादा है।
(यह बाबर द्वारा बनाया गया मात्र एक बहाना था। वास्तविकता ये थी कि खानवा के युद्ध में बाबर की सेना को भारी नुकसान पहुंचा था। उसने मरने वालों के सैनिक आंकड़े तक नहीं लिखे।)
मेवाड़ की सीमा :- खानवा युद्ध के बाद मेवाड़ की सीमा काणोता व बसवा गांवों तक ही रह गई, जो कि पहले पीलिया खाल तक थी।
खानवा के युद्ध के बारे में इतिहासकारों व लेखकों द्वारा कहे गए कथन :- एलफिंस्टन :- “बयाना की लड़ाई के बाद यदि राणा सांगा मुसलमानों की पहली घबराहट पर ही आगे बढ़ जाता, तो उसकी विजय निश्चित थी”
डॉ. ओझा :- “राजपूतों की शायद ही ऐसी कोई शाखा हो, जिसके राजकीय परिवार में से कोई न कोई प्रसिद्ध व्यक्ति इस युद्ध में काम न आया हो।
इस युद्ध के बाद बाबर स्थिर रूप से बादशाह बना, परंतु उसकी फौजी संख्या इतनी कम रह गई थी कि वह राजपूताने पर दोबारा कभी चढ़ाई करने का साहस न कर सका”
कर्नल जेम्स टॉड लिखता है “यदि खानवा की लड़ाई में सांगा के स्थान पर पृथ्वीराज (महाराणा रायमल के ज्येष्ठ पुत्र व संग्रामसिंह के बड़े भाई) होते, तो बाबर की पराजय निश्चित थी”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)